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Sunday, June 12, 2022

जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

जैन दर्शन का स्यादवाद / Syadvada of Jain Philosophy

    जैन दर्शन का स्यादवाद अनेकांतवादी सिद्धान्त पर ही आधारित एक सिद्धान्त है। परन्तु जहाँ अनेकांतवाद जैन दर्शन की तत्त्वमीमांसा से सम्बन्धित है वहीं स्यादवाद ज्ञानमीमांस से सम्बन्धित है। जैन दर्शन में ‘स्यात्’ शब्द का अर्थ – ‘किसी अपेक्षा से’ या ‘किसी दृष्टि में’ लिया गया है। इसे एक शब्द में ‘कथंचित’ भी कहा जा सकता है। इस प्रकार किसी भी वाक्य में ‘स्यात्’ शब्द जोड़ने का अर्थ है कि वह किसी विशेष दृष्टि या अपेक्षा से सत्य है। इस प्रकार जैन दर्शन का स्यादवाद एक प्रकार से सापेक्षवाद ही है। 

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Tuesday, September 28, 2021

जैन दर्शन में स्यादवाद

भारतीय दर्शन

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जैन दर्शन में स्यादवाद

जैन दर्शन में स्यादवाद

      जैन दार्शनिकों का मत है कि जीव अल्पज्ञ है, क्योंकि कुछ कर्म पुद्गल पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं। साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है, वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण, सापेक्ष तथा एकांगी होता है। कारण यह है कि साधारण व्यक्ति किसी वस्तु को एक समय में एक ही दृष्टि से देख सकता है, इसलिए उस वस्तु के कुछ ही धर्मों को जान सकता है, परिणामस्वरूप वस्तु के सन्दर्भ में जो कुछ कहा जाता है वह अपूर्ण, सापेक्ष तथा एकांगी होने के कारण प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता है।

     जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि इस सापेक्ष तथा एकांगी ज्ञान को प्रामाणिक बनाना है, तो ऐसे प्रत्येक सांसारिक ज्ञान के पूर्व हमें स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। उल्लेखनीय है कि यहाँ स्याद शब्द से तात्पर्य संशय, सम्भावना, अनिश्चितता तथा अज्ञेयता आदि से नहीं है, बल्कि यहाँ स्याद से तात्पर्य है, 'हो सकता है।

    जैन दार्शनिकों के अनुसार किसी वाक्य से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग यह संकेत करता है कि इस शब्द के साथ प्रयुक्त कथन की सत्यता सन्दर्भ विशेष पर निर्भर है, इसलिए यह कथन सापेक्षिक रूप से सत्य है। अन्य शब्दों में स्याद से युक्त कथन, काल, स्थान तथा दृष्टिकोण विशेष से आंशिक सत्य है, क्योंकि किसी अन्य दृष्टिकोण से कोई अन्य कथन भी उस वस्तु के बारे में प्रस्तुत किया जा सकता है, जो परस्पर भिन्न होते हुए भी अपने प्रसंग के अनुसार उस वस्तु के सन्दर्भ में आंशिक रूप से सत्य हो सकता है।

     जैन दार्शनिकों के अनुसार किसी भी सांसारिक ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग नहीं करना एकांगी मत के समतुल्य है, साथ ही अप्रामाणिक है। उदाहरणार्थ-कुछ अन्धे हाथी का आकार जानना चाहते थे। इस क्रम में किसी अन्धे ने हाथी का पैर पकड़ा और कहा कि हाथी स्तम्भ की तरह है, अन्य अन्धों ने भी हाथी के विभिन्न अंगों को (प्रत्येक अन्धे ने एक अंग को) स्पर्श किया; जैसे-पूँछ, पेट, कान आदि तथा क्रमश: रस्सी, दीवार तथा पंखे आदि के रूप में वर्णित किया।

     जैन दार्शनिकों के अनुसार हाथी के स्वरूप के सन्दर्भ में प्रत्येक अन्धे का मत एकान्तिक था, क्योंकि प्रत्येक ने हाथी के किसी एक पक्ष का ही वर्णन किया था। उनमें हाथी के स्वरूप को लेकर परस्पर मतभेद भी पैदा हो गया था, किन्तु जैसे ही अन्धों को यह बताया गया कि प्रत्येक ने हाथी के अलग-अलग अंगों को स्पर्श किया है, तो उनका मतभेद दूर हो गया।

     जैन दार्शनिक कहते हैं कि दार्शनिकों के बीच मतभेद का भी यही कारण है, क्योंकि वे किसी एक विषय को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखते हैं तथा उसी के अनुरूप अपना मत व्यक्त कर देते हैं और उसे ही सत्य मानने लगते हैं।

   जैन दार्शनिकों के अनुसार उनके ये मत एकान्तिक हैं। अत: यदि दार्शनिकों को किसी विषय के सन्दर्भ में अपने मत को निर्दोष बनाना है अर्थात् प्रामाणिकता की श्रेणी में लाना है, तो प्रत्येक दार्शनिक को अपने मत से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है, क्योंकि स्याद से युक्त मत या कथन यह संकेत करता है कि उस कथन की सत्यता सन्दर्भ विशेष पर निर्भर है। इसके साथ ही यह अनुमान भी कर लिया जाता है कि वस्तु में अनेक धर्म विद्यमान हैं, जिनमें से एक या कुछ धर्मों का ज्ञान ही दार्शनिक को हो पाया है, अतः वस्तु से सम्बन्धित कथन आंशिक सत्य हैं।

     जैन दार्शनिकों का स्याद सम्बन्धी उपरोक्त मत एक प्रकार का सापेक्षतावाद है, जिसकी मान्यता है कि हमारा समस्त ज्ञान सापेक्ष है, किन्तु यह प्रत्ययवादी सापेक्षतावाद न होकर वस्तुवादी सापेक्षतावाद है, क्योंकि जैन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि किसी वस्तु का ज्ञाता से पृथक् तथा स्वतन्त्र अस्तित्व है और वस्तुओं के गुण हमारे मन पर निर्भर न हो, वस्तु पर ही निर्भर (आश्रित) है अर्थात् वस्तु में ही रहते हैं, लेकिन जब यह कहा जाता है कि वस्तुओं के गुण वस्तु में नहीं, बल्कि हमारे मन में रहते हैं, तो यह दृष्टिकोण प्रत्ययवादी सापेक्षतावाद कहलाता है, किन्तु जैन दार्शनिक इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते हैं। वे अपने वस्तुवादी सापेक्षतावाद के सन्दर्भ में मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि वस्तु के गुण वस्तु में ही रहते हैं। इनके अनुसार हमारा कोई विचार तभी सत्य हो सकता है, जब उसकी संगति बाह्य जगत में विद्यमान वस्तु में विद्यमान हो। जैनियों का यह विचार पाश्चात्य दार्शनिकों; जैसे- पार्मेनाइडीज, प्लेटो तथा लॉक आदि से साम्यता दर्शाता है।

स्यादवाद की आलोचनाएँ

जैनियों ने अपना स्यादवाद सम्बन्धी जो उपरोक्त मत प्रस्तुत किया है, उसको लेकर मुख्यत: अद्वैत वेदान्तियों तथा बौद्ध दार्शनिकों ने गम्भीर आपत्तियाँ जताई हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

    स्यादवाद के अन्तर्गत समस्त ज्ञान को (सांसारिक ज्ञान) सापेक्ष मानते हैं, निरपेक्ष ज्ञान को स्वीकार नहीं करते, ऐसी स्थिति में सापेक्ष शब्द को भी तर्कतः स्वीकार नहीं किया जा सकता।

    शंकराचार्य ने स्यादवाद को पागलों का प्रलाप कहा है।

    यदि सभी सिद्धान्त आंशिक सत्य हैं, तो फिर स्यादवाद भी स्वत: आंशिक सत्यठहरता है।

    जैन स्यादवाद का खण्डन स्वयं करते हैं। स्यादवाद की मीमांसा करते समय वे स्यादवाद को भूलकर अपने ही मत को एकमात्र सत्य घोषित करते हैं। इस प्रकार स्यादवाद का पालन वे स्वयं नहीं कर पाते हैं।

    'केवल ज्ञान' को निरपेक्ष ज्ञान कहना स्यादवाद के विरुद्ध है।

स्यादवाद का महत्त्व

स्यादवाद के विरुद्ध उठाई गई आपत्तियों के बाद भी इस सिद्धान्त का अपना महत्त्व है, क्योंकि स्यादवाद के द्वारा जैन दार्शनिक किसी ज्ञान की सत्यता को सन्दर्भ विशेष के अनुसार आंशिक सत्य मानते हैं न कि उसे पूर्ण असत्य घोषित करते हैं। परिणामत: यह धार्मिक संघर्ष, दार्शनिक विवाद तथा अन्य मतभेदों का शान्तिपूर्ण ढंग से समाधान करने का उदार मार्ग प्रस्तुत करता है।

स्यादवाद परस्पर सहयोग, सामंजस्य तथा समन्वयवादिता की भावना को बल प्रदान करता है। साम्प्रदायिकता एवं कट्टरवादिता को दूर करने के सम्बन्ध में इसका महत्त्व है। यह बहुधर्मी समाज को मान्यता प्रदान करता है। स्यादवाद एक प्रकार की मानसिक अहिंसा है जो व्यक्ति में हठवादिता को समाप्त करके उसे उदार बनाती है, फलत: दूसरे के विचारों की सत्यता को आंशिक रूप से ही सही, किन्तु वह सत्य मानने लगता है।

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