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Monday, June 13, 2022

बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

बौद्ध दर्शन / Buddhist philosophy

     बौद्ध दर्शन का परिचय बौद्ध धर्म के प्रवर्तक बुद्ध थे जो बचपन में सिद्धार्थ कहलाते थे। ईसा पूर्व छठी शताब्दी में हिमालय तराई के कपिलवस्तु नामक स्थान में इनका जन्म हुआ था। जन्म-मरण के दृश्यों को देखने से उनके मन में विश्वास पैदा हुआ कि संसार में केवल दुःख ही दुःख है। अतः दुःख से मुक्ति पाने के लिए इन्होंने सन्यास ग्रहण किया। सन्यासी बन कर इन्होंने दुःखों के मूल कारणों को तथा उनसे मुक्त होने के उपायों को जानने का प्रयास किया। बुद्ध का समय ईसा पूर्व छठी शताब्दी कहा जाता है। उनके जन्म का वर्ष बौद्ध परंपरा अनुसार लगभग 624 ईसा पूर्व तथा अन्य विद्वानों के अनुसार 566 ईसा पूर्व के आसपास होना चाहिए। किंतु यह सिद्ध है कि भगवान बुद्ध का महाभिनिष्क्रमण (गृह त्याग और परिव्राजकत्व) से लेकर महापरिनिर्वाण तक का समय छठी सदी ईसा पूर्व है। संन्यास के बाद 6 वर्षों की कठिन तपस्या और साधना के बाद लगभग 35 वर्ष की आयु में गया के समीप बोधि वृक्ष के नीचे अज्ञान के अंधकार को दूर करने वाले ज्ञानसूर्य का साक्षात्कार कर 'सम्यक् संबुद्ध' बने। फिर वे वाराणसी के पास ऋषिपत्तन में सारनाथ गए और वहाँ पांच भिक्षुओं को उन्होंने अपना शिष्य बना कर अपने साक्षात्कृत सत्य का सर्वप्रथम उपदेश दिया, जिसे धर्मचक्रप्रवर्तन की संज्ञा दी गई है। यहीं से बौद्ध धर्म का प्रारंभ हुआ।

बौद्ध दर्शन का साहित्य

    बौद्ध दर्शन का साहित्य बौद्ध दर्शन का साहित्य त्रिपिटकों में संग्रहीत है। त्रिपिटकों के अंतर्गत विनय पिटक, सुत्त पिटक तथा अभिधम्म पिटक हैं। विनय पिटक में संघ के नियमों का, सुत्त पिटक में बुद्ध के वार्तालाप और उपदेशों तथा अभिधम्म पिटक में दार्शनिक विचारों का संग्रह हुआ है। इन पिटको में केवल प्राचीन बौद्ध धर्म का वर्णन मिलता है। इनकी भाषा पालि है।

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Wednesday, October 6, 2021

बौद्धों का असख्यातिवाद

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बौद्धों का असख्यातिवाद

बौद्धों का असख्यातिवाद

असख्यातिवाद

भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन शून्यवादी बौद्ध दार्शनिकों द्वारा किया गया। शून्यवादियों के अनुसार, रस्सी तथा साँप दोनों असत् हैं। क्योंकि रस्सी और साँप के बारे में बुद्धि की किसी भी कोटि के द्वारा कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, परिणामस्वरूप भ्रम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता अतः भ्रम शून्य है।
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बौद्धों का आत्मख्यातिवाद

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बौद्धों का आत्मख्यातिवाद

बौद्धों का आत्मख्यातिवाद 

आत्मख्यातिवाद

यह विज्ञानवादी बौद्धों का सिद्धान्त है। इस दर्शन के अनुसार जिसे हम बाह्य जगत् कहते हैं और जिसे हम भौतिक रूप में अस्तित्ववान मानते हैं, वह वास्तव में भौतिक रूप में अस्तित्व नहीं रखता। बाह्य संसार खरगोश के सींग एवं आकाश कुसुम के समान असत् है। यह स्वप्न के समान है; जैसे-स्वप्न में हमें कई प्रकार के पदार्थों का जगत् दिखता है पर वे सब पदार्थ हमारे भीतर ही होते हैं। इस प्रकार, विज्ञानवादी बाह्य का अस्तित्व नहीं मानते, अब जब सब कुछ आत्म स्थित है तब भ्रम के विषय जैसे साँप भी हमारे मन के प्रत्यय ही हैं। मन के भीतर के प्रत्यय को ही हम बाह्य जगत् में प्रक्षेपित करते हैं। इस प्रकार बाहरी जगत् में सर्प के न होते हुए भी हमें सर्प दिखाई देता है।

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Saturday, October 2, 2021

ब्राह्मण और श्रमण परम्परा में भेद

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ब्राह्मण और श्रमण परम्परा में भेद

ब्राह्मण और श्रमण परम्परा में भेद

       ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म को ही मोक्ष का आधार मानता हो और वेद वाक्य को ही ब्रह्म वाक्य मानता हो। ब्राह्मणों के अनुसार ब्रह्म और ब्रह्माण्ड को जानना आवश्यक है, तभी ब्रह्मलीन होने का मार्ग खुलता है। श्रमण वह है जो श्रम द्वारा मोक्ष प्राप्ति के मार्ग को मानता हो और जिसके लिए व्यक्ति के जीवन में ईश्वर की नहीं, श्रम की आवश्यकता है। श्रमण परम्परा तथा श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख प्राचीन बौद्ध तथा जैन ग्रन्थों में मिलता है तथा ब्राह्मण परम्परा का उल्लेख वेद, उपनिषद् और स्मृतियों में मिलता है।

       फिर चन्द्रगुप्त मौर्य के दरबार में आए यूनानी राजदूत मेगस्थनीज ने दार्शनिकों की जाति को दो श्रेणियों में विभाजित किया है-ब्राह्मण और श्रमण। ब्राह्मण 37 वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते थे। ब्राह्मण की वृत्ति के सम्बन्ध में मेगस्थनीज लिखता है यज्ञ, अन्त्येष्टि क्रिया तथा अन्य धार्मिक कृत्य करवाने के बदले में उन्हें बहुमूल्य दक्षिणा मिलती है। श्रमणों को भी दो श्रेणियों में बाँटा गया है, जो वनों में रहते थे और कन्द-मूल फलों पर आजीविका चलाते थे।

      इन्हें वैखानस या वानप्रस्थ आश्रम से सम्बद्ध माना जा सकता है। दूसरी श्रेणी के श्रमण वे थे जो आयुर्वेद में कुशल होते थे और समाज में सम्मानित थे। मेगस्थनीज के श्रमण तथा ब्राह्मण, वानप्रस्थ अथवा संन्यासियों से अधिक मेल खाते हैं, जैन और बौद्ध श्रमणों से नहीं। सम्भवतः एक विदेशी होने के कारण मेगस्थनीज भारतीय समाज की जटिलताओं को समझने में असमर्थ था।

      संस्कृति मनुष्य के भूत, वर्तमान एवं भावी जीवन का अपने में पूर्ण विकसित रूप है। यह अपने आप में एक अखण्ड तत्त्व है, जिसका विभाजन नहीं किया जा सकता। फिर भी संस्कृति के पूर्व जब कोई विशेषण जोड़ दिया जाता है, तो वह विभाजित हो जाती है; जैसे-श्रमण एवं ब्राह्मण परम्परा। ये दोनों परम्पराएँ भारतीय धर्म में गुरुपद को भोगते रही हैं, लेकिन एक ही देश में रहते हुए उसी का अन्न-जल ग्रहण करते हुए भी दोनों की चिन्तन पद्धति अलग है।

      ब्राह्मण परम्परा का मूल आधार वैदिक साहित्य रहा है जिसकी धुरी ब्रह्म है। वेदों में जो कुछ भी आदेश एवं उपदेश उपलब्ध हैं अर्थात् यज्ञ, पूजा, स्तुति, ईश्वर, उन्हीं के अनुसार जिस परम्परा ने अपनी जीवन पद्धति का निर्माण किया वह ब्राह्मण परम्परा कहलाई तथा जिस परम्परा ने वेदों को प्रमाणित न मानकर आध्यात्मिक ज्ञान, आत्मविजय एवं आत्म-साक्षात्कार पर विशेष बल दिया, वह श्रमण परम्परा कहलाई। 'श्रमण' शब्द प्राकृत के 'समण' शब्द से बना है। जिसके संस्कृत में तीन रूप होते हैं- श्रमण, समन, शमन। श्रमण परम्परा का आधार इन्हीं तीन शब्दों पर है। श्रमण शब्द 'श्रम' धातु से बना है जिसका अर्थ है परिश्रम करना। श्रमण शब्द का उल्लेख वृहदारण्यक उपनिषद् में भी मिलता है जिसमें इस शब्द का अर्थ यह बताया गया है कि व्यक्ति अपना विकास अपने ही परिश्रम द्वारा कर सकता है। सुख-दु:, उत्थान-पतन सभी के लिए वह स्वयं उत्तरदायी है। 

     'समन' का अर्थ है समता भाव अर्थात सभी को आत्मवत समझना, सभी के प्रति सम्भाव रखना। फिरशमन' का अपनी वृत्तियों को शान्त रखना, उनका निरोध करना अर्थात् जो व्यक्ति अपनी वृत्तियों को संयमित रखता है, वह महाश्रमण है। इस प्रकार श्रमण परम्परा का मूल आधार श्रम, सम, शम इन तीन तत्त्वों पर आश्रित है एवं इसी में इस नाम की सार्थकता है। श्रमण परम्परा अत्यन्त प्राचीन है।

     भारतीय इतिहास के आदिकाल से ही हम श्रमण परम्परा के संकेत पाते हैं। श्रमण परम्परा ने संसार की दुःखमयता को प्रदर्शित कर त्याग और वैराग्यमय जीवन शैली का विकास कर निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य माना है। इसमें तप, त्याग, योग आदि पर बल दिया गया है।

     ब्राह्मण परम्परा के विकासक्रम ने मीमांसा, वेदान्त, वैशेषिक और न्याय दर्शन को जन्म दिया। वहीं श्रमण परम्परा में चार्वाक, सांख्य, योग विचारधारा का विकास हुआ। जो आज वृहद वैदिक धर्म का ही एक अंग बन चुका है। आजीवक धारा को भी श्रमण परम्परा में ही शामिल किया जाता है। जैन तथा बौद्ध दर्शन भी श्रमण परम्परा के ही अंग हैं जिनकी उत्पत्ति ब्राह्मणवाद के विरुद्ध हुई थी अर्थात् श्रमण परम्परा वैदिक कर्मकाण्ड, यज्ञ में पशु बलि, वर्ण-व्यवस्था इत्यादि का विरोध करती है।

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तिब्बती बौद्ध दर्शन

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तिब्बती बौद्ध दर्शन

तिब्बती बौद्ध दर्शन

      कुषाण शासक कनिष्क के काल में चतुर्थ बौद्ध सम्मेलन कश्मीर के कुण्डलवन में हुआ था। जिसकी अध्यक्षता वसुमित्र ने की थी। इस सम्मेलन के उपाध्यक्ष अश्वघोष थे। इसी सम्मेलन में बौद्ध धर्म दो सम्प्रदायों महायान तथा हीनयान में बँट गया था। महायान बौद्ध धर्म भारत के अतिरिक्त विदेशों में भी फैला। तिब्बती बौद्ध धर्म भी महायान बौद्ध धर्म का ही एक रूप है। तिब्बती बौद्ध धर्म पर वज्रयान (तान्त्रिक पद्धति) का भी प्रभाव देखा जा सकता है।

      तिब्बती बौद्ध धर्म का धीरे-धीरे काफी प्रसार हुआ, जिसमें मंगोल शासक कुबलई खान की भी अप्रत्यक्ष रूप से भूमिका थी, क्योंकि इसका साम्राज्य विस्तार बहुत ही अधिक था। तिब्बती बौद्ध धर्म के अन्तर्गत चार प्रमुख शाखा हैं-

  1. निमिंगमा,
  2. काग्यू,
  3. शाक्य और
  4. गेलुग

      तिब्बत में भारत के संस्कृत बौद्ध ग्रन्थों का पहली बार राजा सोंगत्सान्पो गम्पो के शासनकाल में तिब्बती भाषा में अनुवाद किया गया। इसी समय तिब्बती लेखन प्रणाली शास्त्रीय तिब्बती भाषा का भी विकास होने लगा। 8वीं शताब्दी में राजा ट्रिसॉन्ग डेट्सन ने इसे राज्य के आधिकारिक धर्म के रूप में स्थापित किया।

      ट्रिसॉन्ग डेट्सन ने भारतीय बौद्ध विद्वानों को अपने दरबार में आमन्त्रित किया जिनमें पद्मसम्भव प्रमुख थे। पद्मसम्भव को तिब्बती बौद्ध धर्म की सबसे पुरानी परम्परा निंगमा (प्राचीन युग) का संस्थापक माना जाता है। फिर तिब्बत में प्राचीनकाल से लेकर अब तक कई बार राजनीतिक अस्थिरता का समय आया परन्तु तिब्बती बौद्ध धर्म आज तक जिन्दा है जिसे आज हम दलाई लामा की परम्परा के सन्दर्भ में समझ सकते हैं। तिब्बती बौद्ध धर्म में भी बुद्धत्व और बोधिसत्व की चर्चा है। तिब्बती बौद्ध धर्म में बोधिसत्वों में अवलोकितेश्वर, मंजुश्री, वज्रपाणि और तारा शामिल हैं।

     तिब्बती बौद्ध धर्म के अन्तर्गत बोधिसत्व के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निम्नलिखित पाँच मार्ग का उल्लेख है-

    संचय का मार्ग

    तैयारी का मार्ग

    देखने का मार्ग

    ध्यान का मार्ग

    कोई और अधिक सीखने का मार्ग

     इसी मार्ग का समापन बुद्धत्व में होता है। फिर अन्य बौद्ध धर्म परम्पराओं की तरह तिब्बती बौद्ध धर्म में भी गुरु को काफी महत्त्व दिया गया है। तिब्बती बौद्ध शिक्षक/ गुरु को लामा कहा जाता है। साथ ही बौद्ध मठ का भी तिब्बती बौद्ध परम्परा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। साथ ही साथ तिब्बती बौद्ध परम्परा में महिलाओं को अपेक्षाकृत अधिक स्वायत्तता प्रदान की गई है।

      इस प्रकार तिब्बती बौद्ध दर्शन में बुद्धत्व प्राप्त करना, गुरु योग, गूढार्थवाद, अनुष्ठान, मन्त्र, तान्त्रिक योग इत्यादि महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं, जो आज भी निरन्तर हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यद्यपि बौद्ध धर्म की उत्पत्ति भारत में हुई तथा आज यह अपने जन्म स्थल से विलुप्त होता जा रहा है। परन्तु विदेशों में विशेषकर दक्षिण-पूर्वी एशिया, तिब्बत में आज भी यह व्यापक रूप में मौजूद है, जो इसकी प्रासंगिकता को बताता है।

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नागार्जुन के दो सत्यों का सिद्धान्त

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नागार्जुन के दो सत्यों का सिद्धान्त

नागार्जुन के दो सत्यों का सिद्धान्त

नागार्जुन ने 'दो सत्यों के सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया है-

  1. संवृत्ति या व्यवहार सत्य और
  2. परमार्थ सत्य

     नागार्जुन के अनुसार जो व्यक्ति इन दोनों सत्यों को नहीं जानता, वह बुद्ध की गम्भीर शिक्षाओं के रहस्य को नहीं जान सकता। नागार्जुन ने संवृत्ति सत्य के दो भेद किए हैं-

  1. लोक संवृत्ति एवं
  2. मिथ्या संवृत्ति।

     लोक संवृत्ति में वे सभी वस्तुएँ आती हैं, जिनकी उत्पत्ति किसी कारण से होती है और जिसका समान अनुभव सभी लोगों को होता है; जैसे-घट, पट आदि। मिथ्या संवृत्ति से तात्पर्य उन अनुभवों एवं घटनाओं से है, जो हेतु-प्रत्ययजन्य तो हैं, परन्तु उनकी प्रतीति व्यक्ति-विशेष को ही होती है, सभी व्यक्तियों को नहीं; जैसे-मृगतृष्णा।

     नागार्जुन के अनुसार, परमार्थ सत्य बुद्धि से परे अवर्णनीय एवं नि:स्वभाव है। इसमे ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञानादि के भेद का पूर्ण अभाव होता है। यह एक निर्विकल्प अवस्था है। इसका कोई पूर्व कारण नहीं है। शून्यवाद एक प्रकार की सापेक्षिक अवधारणा है। चूँकि, परमार्थत: सत्ता नि:स्वभाव है और व्यवहारतः वह प्रतीत्य समुत्पन्न है। अत: व्यवहार में, वस्तु में धर्म अन्य वस्तुओं पर निर्भर होता है। आशय यह है कि वस्तु का अस्तित्व अन्य वस्तुओं से निर्धारित होता है। सापेक्षवाद भी मानता है कि वस्तु का अपना कोई निश्चित एवं निरपेक्ष स्वभाव नहीं है।

      नागार्जुन के शून्यवाद पर भी आलोचकों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की है। शंकर ने शून्यवाद की पूर्णत: उपेक्षा की है। उन्होंने इतना ही कहा है कि मैं इसकी आलोचना करके इसका महत्त्व नहीं बढ़ाना चाहता। आचार्य कुमारिल ने माध्यमिक विचारधारा के 'सत्यद्वय सिद्धान्त' पर गम्भीर आक्षेप किया है। उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया है कि संवृत्ति सत्य को सत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जो सत्य है, वह निरपेक्ष सत्य है।

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बौद्ध दर्शन के सम्प्रदाय

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बौद्ध दर्शन के सम्प्रदाय

बौद्ध दर्शन के सम्प्रदाय

      महात्मा बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् बौद्ध धर्म दो सम्प्रदायों में बँट गया- प्रथम हीनयान एवं द्वितीय महायान। हीनयान को थेरावाद भी कहते हैं। हीनयान में बौद्ध धर्म का प्राचीन रूप पाया जाता है। दोनों सम्प्रदायों के साथ भिन्न धाराएँ विकसित हुईं। इनमें हीनयान से सम्बद्ध वैभाषिक व सौत्रान्तिक तथा महायान से सम्बन्धित योगाचार व माध्यमिक हैं। इनका वर्णन इस प्रकार है-

वैभाषिक

     वैभाषिक का एक अन्य नाम 'सर्वास्तिवाद' है। वैभाषिक या सर्वास्तिवाद का मानना है कि जगत् की समस्त वस्तुओं की सत्ता है। वैभाषिक चित्त और बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। नव्य वस्तुवादियों की तरह इनका भी मानना है कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोड़कर किसी अन्य तरीके से नहीं हो सकता। वस्तुओं के बिना प्रत्यक्ष के अनुमान द्वारा अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता। यदि किसी व्यक्ति को बाह्य वस्तु का प्रत्यक्ष नहीं हुआ हो, तो उसे वस्तु के प्रतिरूप को ग्रहण करने में कठिनाई होगी। इस प्रकार वैभाषिक बाह्य प्रत्यक्षवादी भी है।

सौत्रान्तिक

    इस सूत्र के मूल प्रतिष्ठापक कुमारलात थे। सूत्रान्तों को प्रमाण मानने के कारण ये सौत्रान्तिक कहलाए। सौत्रान्तिक चित्त व बाह्य जगत दोनों की सत्ता को मानते हैं। इनकी मान्यता है कि यदि बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व न माना जाए, तो उनकी प्रतीति सम्भव नहीं हो सकेगी। वस्तुओं के वर्तमान रहने पर ही उनका प्रत्यक्ष होता है। इनकी मान्यता है कि पदार्थों में सादश्य तभी सम्भव है, जब दोनों का अस्तित्व अलग-अलग हो। दोनों को एक मान लेने पर उनकी सादृश्यता का ज्ञान सम्भव नहीं हो सकेगा। घट हमारे बाहर है और ज्ञान अन्दर है, इसका स्पष्ट अनुभव होता है। अत: वस्तु को ज्ञान से भिन्न मानना चाहिए। यदि घट में तथा मुझमें कोई भेद नहीं होता, तो मैं कहता कि मैं ही घट हूँ।

      दूसरी बात यह है कि बाह्य वस्तुओं का कोई अस्तित्व नहीं होता, तो घट एवं पट दोनों यदि केवल ज्ञान हैं, तो दोनों एक हैं, लेकिन घट ज्ञान तथा पट ज्ञान को हम एक नहीं मानते हैं। अत: स्पष्ट है कि दोनों में वस्तु सम्बन्धी भेद अवश्य है। इस प्रकार हम देखते हैं कि बाह्य वस्तुओं का अस्तित्व आवश्यक है। बाह्य वस्तुओं के अनेक आकार होने के कारण ही ज्ञान के भिन्न-भिन्न आकार होते हैं। विभिन्न आकार के ज्ञानों से हम अनेक कारणस्वरूप विभिन्न बाह्य वस्तुओं का अनुमान कर सकते हैं।

योगाचार (विज्ञानवाद)

     योगाचार या विज्ञानवाद महायान दर्शन का एक दार्शनिक निकाय है। मैत्रेयनाथ को इसका संस्थापक माना जाता है। उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ 'अभिसमयालंकार' है। विज्ञानवाद में इस बात पर बल दिया जाता है कि केवल विज्ञानों की ही सत्ता है, बाह्य वस्तु की कोई सत्ता नहीं है। इस संसार में या तो विज्ञान है या विज्ञानों की पुंजरूप बाह्य वस्तुएँ हैं।

     इस मत को योगाचार कहते हैं। इसे योगाचार इसलिए कहते हैं, क्योंकि यह योग एवं साधना पर बल देता है। महायान सम्प्रदाय की योगाचार विचारधारा की स्थापना है कि विज्ञान ही एकमात्र सत् है। उनकी यह स्थापना विज्ञानवाद कहलाती है। योगाचार सम्प्रदाय युक्तियों के आधार पर विज्ञान की एकमात्र सत्ता का प्रतिपादन करता है। उसकी युक्तियों के दो प्रकार हैं-प्रथम वर्ग में बाह्य पदार्थ का निषेध होता है एवं द्वितीय वर्ग में विज्ञान की एकमात्र सत्ता की स्थापना होती है। योगाचार जिन युक्तियों के आधार पर विज्ञानों की सत्ता स्थापित करता है, वे निम्न प्रकार से हैं-

    यदि कोई बाह्य वस्तु है भी, तो उसका ज्ञान सम्भव नहीं है। मान लीजिए घड़ा एक बाह्य वस्तु है। अब घड़ा या तो अणुरूप है या अणुओं का संघात है। यदि घड़ा अणुरूप है तो उसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि अणु स्वभावत: इतना सूक्ष्म होता है कि उसका इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष सम्भव नहीं है। यदि घड़ा अणुओं का संघात है, तो उसका पूर्णतः प्रत्यक्ष होना असम्भव है। हमें घड़े के उसी भाग का प्रत्यक्ष होगा जिस तरफ से उसे देखेंगे। पुन: घड़े के एक भाग का भी प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है, क्योंकि घड़े का वह भाग भी अणुरूप होगा।

    यदि घड़े का वह भाग अणुरूप है तो वह इतना सूक्ष्म होगा कि उसका इन्द्रिय सन्निकर्ष सम्भव नहीं हो सकेगा। परिणामस्वरूप उसका ज्ञान सम्भव नहीं हो सकेगा। इस प्रकार विज्ञानवाद की मान्यता है कि यदि बाह्यार्थ के अस्तित्व को स्वीकार भी किया जाए तो उसका ज्ञान सम्भव होगा। अत: बाह्यर्थ की सत्ता में विश्वास के लिए कोई आधार नहीं है।

    यदि बाह्यार्थ के ज्ञान को सम्भव माना भी जाए तो क्षणिकवाद में दोष आता है। क्षणिकवाद के अनुसार, किसी भी वस्तु की सत्ता एक से अधिक क्षण तक नहीं हो सकती, परन्तु किसी वस्तु का ज्ञान तभी हो सकता है जब उसकी सत्ता कम-से-कम दो क्षणों तक हो। प्रथम क्षण वह जिसमें वस्तु का इन्द्रिय सन्निकर्ष होगा और द्वितीय वह क्षण जिसमें वस्तुतः उसका प्रत्यक्ष होगा। इससे क्षणिकवाद में दोष आता है। अत: बाह्यार्थ के लिए कोई प्रमाण नहीं है।

    योगाचार सम्प्रदाय के अनुयायी स्वप्न सादृश्य के आधार पर बाह्यार्थ को असत् सिद्ध करके विज्ञानवाद की स्थापना करते हैं। जिस प्रकार हम स्वप्नावस्था में वस्तुओं को बाहर देखते हैं, यद्यपि वे हमारे मन में होती हैं, वैसे ही जाग्रतावस्था के विषय भी मन में होते हैं, मन के बाहर नहीं। स्वप्नावस्था में व्यक्ति शेर को देखकर घबरा जाता है एवं किसी प्रिय से मिलकर प्रसन्न होता है, परन्तु जैसे ही वह जागता है, बाह्य जगत् में कोई अस्तित्व नहीं होता। इस प्रकार स्वप्नावस्था के विषयों का मन के बाहर कोई अस्तित्व नहीं होता। इसी प्रकार योगाचार सम्प्रदाय के अनुसार हमारे शरीर तथा अन्योन्य पदार्थ जो मन के बाहर प्रतीत होते हैं, वे भी मन के अन्तर्गत ही हैं। इस प्रकार वस्तु जगत् विज्ञान मात्र है।

योगाचार की आलोचना

    विज्ञानवादियों की युक्तियों में विरोधाभास है, चूँकि हमें बाह्य वस्तुओं की उपलब्धि होती है। अत: उनके अनस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जा सकता। शंकर कहते हैं कि जब हमें घट-पट आदि का अनुभव होता है, तो उनके अभाव को अस्वीकार नहीं कर सकते। शंकर के अनुसार, “विज्ञानवादियों की स्थिति उस मनुष्य के समान है जो कहता है कि मैंने भोजन किया है. मैं सन्तुष्ट हूँ, फिर पुन: वह कहता है कि मैंने भोजन नहीं किया है, मैं असन्तुष्ट हूँ। " इस प्रकार बाह्यार्थ को अस्वीकार करना अनुभव के विपरीत है।

    शंकर के अनुसार विज्ञानवादी बाह्य वस्तु का खण्डन करने में ही असंदिग्ध रूप में उसकी सत्ता को स्वीकार कर लेते हैं। विज्ञानवादियों का यह कहना कि हमारे आन्तरिक विज्ञान ही बाह्य वस्तु के समान दिखाई देते हैं, तत्पश्चात् यह स्वीकार कर लेना कि कोई बाह्य वस्तु अवश्य है, जिसके समान हमारे विज्ञान दिखाई देते हैं, विरोधाभासी बात है। शंकर के अनुसार, जाग्रत एवं स्वप्न की तुलना असमंजसपूर्ण है, क्योंकि दोनों में अन्तर है।

    जाग्रत ज्ञान, स्वप्न आदि के ज्ञान के समान नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों वैधर्म्य हैं। आलय विज्ञान पर शंकर कहते हैं कि आलय विज्ञान भी क्षणिक होने के कारण वासनाओं का आश्रय नहीं हो सकता। पुन: यदि आलय विज्ञान को स्थायी मान भी लें, तो क्षणिकवाद में दोष आ जाएगा। इस प्रकार विज्ञानवादियों का मत तर्कसंगत नहीं है।

माध्यमिक (शून्यवाद)

     माध्यमिक शून्यवाद. महायान बौद्ध विचारधारा की महत्त्वपूर्ण शाखा है। आचार्य नागार्जुन को शून्यवाद का प्रवर्तक माना जाता है। उसने शून्य को ही एकमात्र तत्त्व घोषित किया, यद्यपि उसने शून्य का विशिष्ट अर्थ दिया। शून्यवाद माध्यमिक दर्शन के नाम से भी जाना जाता है, क्योंकि यह गौतम के उपदेशों को अक्षरश: मानते हुए परम विधि एवं परम निषेध के बीच के मार्ग को स्वीकार करता है।

     माध्यमिक दर्शन का मानना है कि योगाचार सम्प्रदाय जिन युक्तियों का प्रयोग करके बाह्य वस्तु की सत्ता का निषेध करता है, उन्हीं युक्तियों के आधार पर आत्मा का भी निषेध किया जा सकता है। माध्यमिक कहता है कि यदि हम प्रत्यक्षानुभवों से आगे बढ़कर अनुभूत पदार्थों तक नहीं पहुँच सकते, तो अनुभवों के आधार पर प्रत्यक्ष की सम्पादन आत्मचेतना तक कैसे पहुँच सकते हैं? अत: बाह्य जगत् को विज्ञान की प्रतीति मानने की आवश्यकता नहीं है।

     नागार्जुन ने मध्यमिकशास्त्र में बाह्य सत्ता का प्रतिपादन करने वाली युक्तियों में दोष दिखाकर वस्तु स्वभाव की तार्किक विवेचना की और यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि वस्तु सम्बन्धी उत्पत्ति, जाति, गति निरोध आदि गुण वस्तु के स्वरूप नहीं हैं, बल्कि अविद्याजन्य मिथ्या प्रपंचमात्र हैं। यह सम्पूर्ण आनुभविक जगत प्रतीति मात्र एवं अज्ञेय सम्बन्धों का जाल है। नागार्जुन के अनुसार, “किसी का भी अस्तित्व नहीं है, चाहे हम उसे स्वयं से उत्पन्न माने या दूसरे से उत्पन्न माने या दोनों से उत्पन्न मानें या किसी भी कारण से उत्पन्न माने। "

     इस प्रकार माध्यमिक की दृष्टि में उत्पत्ति की धारणा मिथ्या प्रत्यय मात्र है, वस्तुस्वभाव नहीं। चूँकि, बुद्ध का सिद्धान्त किसी भी चीज को अकारण नहीं मानता। अत: सम्पूर्ण जगत भ्रममूलक है। सारा अनुभव भ्रम है। विज्ञान एवं विज्ञान से इतर सभी तत्त्व भ्रम मात्र हैं।

     माध्यमिक दर्शन तत्त्व को शून्य या शून्यता कहता है। शून्य से आशय अभाव या अनस्तित्व से नहीं है। यहाँ शून्यता एक भावात्मक तत्त्व है। कुमारजीव के अनुसार, “प्रत्येक वस्तु का सम्भव होना शून्यता के कारण है और इसके बिना संसार में कुछ भी सम्भव नहीं है। "

    नागार्जुन का कथन है कि मनुष्य व्यवहार में जिन गुणों को वस्तु का स्वरूप समझते हैं, वे सभी हेतु प्रत्ययजन्य हैं। हेतुफल परम्परा के अप्रमाणित होने पर बुद्धि द्वारा वस्तु के पारमार्थिक स्वरूप का निश्चय हो पाना सम्भव नहीं है। अत: 'नि:स्वाभवता' ही वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप है। माध्यमिक इसी को शून्य कहते हैं। विज्ञान को शून्य कहने का तात्पर्य यह है कि वह प्रपंचशून्य और बाह्य जगत स्वभाव शून्य है।

    इस प्रकार तत्त्व को शून्य कहने का तात्पर्य इतना ही है कि वस्तु का पारमार्थिक स्वरूप बुद्धि से परे एवं अनिर्वचनीय है। माध्यमिक उन्हीं तत्त्वों को शून्य कहता है, जिनकी व्याख्या नहीं हो सकती। इस प्रकार शून्यवादी दार्शनिक प्रवृत्ति भावात्मक है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...