नागार्जुन के दो सत्यों का सिद्धान्त

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नागार्जुन के दो सत्यों का सिद्धान्त

नागार्जुन के दो सत्यों का सिद्धान्त

नागार्जुन ने 'दो सत्यों के सिद्धान्त' का प्रतिपादन किया है-

  1. संवृत्ति या व्यवहार सत्य और
  2. परमार्थ सत्य

     नागार्जुन के अनुसार जो व्यक्ति इन दोनों सत्यों को नहीं जानता, वह बुद्ध की गम्भीर शिक्षाओं के रहस्य को नहीं जान सकता। नागार्जुन ने संवृत्ति सत्य के दो भेद किए हैं-

  1. लोक संवृत्ति एवं
  2. मिथ्या संवृत्ति।

     लोक संवृत्ति में वे सभी वस्तुएँ आती हैं, जिनकी उत्पत्ति किसी कारण से होती है और जिसका समान अनुभव सभी लोगों को होता है; जैसे-घट, पट आदि। मिथ्या संवृत्ति से तात्पर्य उन अनुभवों एवं घटनाओं से है, जो हेतु-प्रत्ययजन्य तो हैं, परन्तु उनकी प्रतीति व्यक्ति-विशेष को ही होती है, सभी व्यक्तियों को नहीं; जैसे-मृगतृष्णा।

     नागार्जुन के अनुसार, परमार्थ सत्य बुद्धि से परे अवर्णनीय एवं नि:स्वभाव है। इसमे ज्ञाता, ज्ञेय, ज्ञानादि के भेद का पूर्ण अभाव होता है। यह एक निर्विकल्प अवस्था है। इसका कोई पूर्व कारण नहीं है। शून्यवाद एक प्रकार की सापेक्षिक अवधारणा है। चूँकि, परमार्थत: सत्ता नि:स्वभाव है और व्यवहारतः वह प्रतीत्य समुत्पन्न है। अत: व्यवहार में, वस्तु में धर्म अन्य वस्तुओं पर निर्भर होता है। आशय यह है कि वस्तु का अस्तित्व अन्य वस्तुओं से निर्धारित होता है। सापेक्षवाद भी मानता है कि वस्तु का अपना कोई निश्चित एवं निरपेक्ष स्वभाव नहीं है।

      नागार्जुन के शून्यवाद पर भी आलोचकों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की है। शंकर ने शून्यवाद की पूर्णत: उपेक्षा की है। उन्होंने इतना ही कहा है कि मैं इसकी आलोचना करके इसका महत्त्व नहीं बढ़ाना चाहता। आचार्य कुमारिल ने माध्यमिक विचारधारा के 'सत्यद्वय सिद्धान्त' पर गम्भीर आक्षेप किया है। उन्होंने यह दिखाने का प्रयास किया है कि संवृत्ति सत्य को सत्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि जो सत्य है, वह निरपेक्ष सत्य है।

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