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पुरुषार्थ ( Puruṣārtha ) की अवधारणा

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पुरुषार्थ  ( Puruṣārtha ) की अवधारणा  पुरुषार्थ  ( Puruṣārtha ) की अवधारणा      पुरुषार्थ - पुरुषस्य अर्थः लक्ष्यैव वा पुरुषार्थः अर्थात् पुरुष के लक्ष्य , चाह , इच्छा , प्रयोजन को पुरुषार्थ कहते हैं। भारतीय परम्परा में सामान्य रूप से धर्म, अर्थ , काम एवं मोक्ष चार प्रकार के पुरुषार्थ माने गये हैं। किन्तु मनुस्मृति में पुरुषार्थ तीन ही माना गया है। इस सन्दर्भ में मनुस्मृति (2.224) में कहा गया है — धर्मार्थ विच्यते श्रेयः कामार्थो धर्म एव च। अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः ॥ अर्थात् धर्म , अर्थ और काम इन त्रिवर्ग को ही पुरुषार्थ कहा जाता है। मीमांसा दर्शन के अनुसार- यस्मिन्प्रीतिः पुरुषस्य तस्य लिप्सा अर्थ लक्षणा विभक्तित्वात् (जै० सू० , 4.1.2)। अर्थात् जिस कर्म से मनुष्य को सुख प्राप्त होता है और जिसे करने की इच्छा स्वयं ही होती है वह पुरुषार्थ है। सांख्य दर्शन के अनुसार- सत्व पुरुषान्यता ख्याति पुरुषार्थ: । अर्थात सत्व और पुरुष को अलग-अलग समझना पुरुषार्थ है (सर्व० सं० , पृ० 747)। सांख्य सुत्र (1.1) में कहा गया है- त्रिविध दुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः । अर्थ