बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy
बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy
बौद्ध दर्शन का 4 शाखाओं में जो वर्गीकरण हुआ है इसके पीछे दो
प्रश्न विद्यमान हैं, एक अस्तित्व संबंधीय और दूसरा ज्ञान संबंधी। अस्तित्व
संबंधित प्रश्न यह है कि, मानसिक या बाह्य कोई वस्तु है या
नहीं ? इस प्रश्न के तीन उत्तर दिए गए हैं - पहला माध्यमिकों
के अनुसार कि ‘मानसिक या बाह्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। सभी शून्य है’।
अतः ये शून्यवादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। दूसरा योगाचारों के अनुसार ‘मानसिक
अवस्थाएं या विज्ञान ही एक मात्र सत्य है। बाह्य पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं है’।
अतः योगाचार विज्ञानवादी के नाम से प्रसिद्ध है। तीसरा, कुछ
बौद्ध यह मानते हैं कि ‘मानसिक तथा बाह्य सभी वस्तुएं सत्य हैं। अतः यह वस्तुवादी
हैं’। ये सर्वास्तिवादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। बाहरी वस्तुओं के ज्ञान के लिए
क्या प्रमाण है ? सर्वास्तित्ववादी अर्थात जो वस्तुओं की
सत्ता को मानते हैं इस प्रश्न के दो उत्तर देते हैं। कुछ जो सौत्रांतिक के नाम से
प्रसिद्ध हैं, यह मानते हैं कि ‘वह वस्तुओं का प्रत्यक्ष
ज्ञान नहीं होता है। उनका ज्ञान अनुमान के द्वारा ही होता है’। दूसरे जो वैभाषिक नाम
से विख्यात हैं वे कहते हैं कि ‘बाह्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा भी
प्राप्त होता है’। अब इनका प्रमुख संप्रदायों का वर्णन करते हैं -
- शून्यवाद - शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन का जन्म दूसरी शताब्दी में दक्षिण भारत के एक ब्राम्हण परिवार में हुआ था। बुद्धचरित के प्रणेता अश्वघोष भी शून्यवाद के समर्थक थे। नागार्जुन की मूल माध्यमिक कारिका ही इस मत की आधारशिला है। आर्यदेव की चतुःशतिका भी एक और प्रधान ग्रंथ है। माध्यमिक शून्यवाद को भारतीय दर्शन में कभी-कभी सर्ववैनाशिकवाद भी कहा गया है क्योंकि इसके अनुसार किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। किंतु यदि हम माध्यमिक दर्शन का विचार पूर्वक अध्ययन करें तो हम देख सकते हैं कि माध्यमिक मत वस्तुतः वैनाशिकवाद नहीं है। यह तो केवल इंद्रियों से प्रत्यक्ष जगत् को असत्य मानता है। प्रत्यक्ष जगत से परमार्थी सत्ता अवश्य है लेकिन वह अवर्णनीय है उसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कि वह मानसिक है या बाह्य। साधारण लौकिक विचारों के द्वारा अवर्णनीय होने के कारण उसे शून्य कहते हैं। इन विचारों से स्पष्ट है कि पारमार्थिक सत्ता या परम तत्व बिल्कुल अवर्णनीय है। इस वर्णनातीत तत्व को शून्यता कहते हैं।
- योगाचार विज्ञानवाद - योगाचार
विज्ञानवाद के अनुसार चित्त ही एकमात्र सत्ता है। विज्ञान के प्रवाह को ही चित्त
कहते हैं। हमारे शरीर तथा अन्यान्य पदार्थ जो मन के बहिर्गत मालूम पड़ते हैं वे
सभी हमारे मन के अंतर्गत हैं। जिस तरह स्वप्न या मतिभ्रम की अवस्था में हम वस्तुओं
को बाह्य समझते हैं यद्यपि वे मन के अंतर्गत ही रहती हैं, उसी
तरह साधारण मानसिक अवस्थाओं में भी जो पदार्थ बाह्य प्रतीत होते हैं वे विज्ञान
मात्र हैं। किसी वस्तु में तथा तत्संबंधी ज्ञान में भेद सिद्ध नहीं किया जा सका है
इसलिए बाह्य वस्तु का अस्तित्व बिल्कुल असिद्ध है।
- सौत्रांतिक - सौत्रांतिक चित्त
तथा बाह्य जगत् दोनों को ही मानते हैं। उनका कथन है कि यदि बाह्य वस्तुओं के
अस्तित्व को नहीं माना जाए तो वह वस्तु की प्रतीति कैसे होती है इसका प्रतिपादन हम
नहीं कर सकते हैं। जिसने बाह्य वस्तु को कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा है वह यह नहीं कह
सकता कि भ्रमवश अपनी मानसिक अवस्था ही बाह्य वस्तु के सदृश प्रतीत होती है इसके
लिए बाह्य वस्तु के सदृश यह कहना उसी तरह अर्थहीन है जिस तरह बंध्यापुत्र
विज्ञानवादियों के अनुसार वस्तु की तो कोई सत्ता ही नहीं है। अतः बाह्य वस्तु का न
तो कोई ज्ञान हो सकता है न ही उसके साथ किसी की तुलना ही की जा सकती है।
सौत्रांतिक कहते हैं कि यह सही है कि वस्तु के वर्तमान रहने पर ही उसका प्रत्यक्ष
होता है किंतु वस्तु और उसका ज्ञान समकालीन है इसलिए अभिन्न है, यह
युक्ति ठीक नहीं है। जब हमें घट का प्रत्यक्ष होता है तो घट हमारे बाहर है और
ज्ञान अंदर है, इसका स्पष्ट अनुभव होता है।
- वैभाषिक - सौत्रांतिक की
तरह ही वैभाषिक भी चित्त तथा बाह्य वस्तु के अस्तित्व को मानते हैं। किंतु आधुनिक
नव्य वस्तु वादियों की तरह यह कहते हैं कि वस्तु का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोड़कर
अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकता। यह सही है कि धुआं देखकर हम आग का अनुमान करते
हैं कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोड़कर अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकता। यह
सही है कि धुआं देखकर हम आग का अनुमान करते हैं। किंतु यह इसलिए संभव होता है कि अतीत
में हमने आग और धुआं एक साथ देखा है। जिसने भी दोनों को एक साथ कभी नहीं देखा वह
धुंआ देखकर आग का अनुमान नहीं कर सकता। यदि बाह्य वस्तुओं का प्रत्यक्ष कभी नहीं
हुआ रहे तो केवल मानसिक परिरूपों के आधार पर उनका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है।
जिसने कभी कोई वस्तु नहीं देखी है वह यह नहीं समझ सकता कि कोई मानसिक अवस्था किसी
वस्तु का प्रतिरूप है। प्रत्युत् वह तो यह समझेगा कि मानसिक अवस्था ही मौलिक और
स्वतंत्र सत्ता है, उसका अस्तित्व किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर
नहीं है। अतः, या तो हमें विज्ञानवाद को स्वीकार करना होगा
या मानना होगा कि वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान ही संभव है। अतः वैभाषिक मत को
बाह्यप्रत्यक्षवाद कहते हैं। अभिधर्म पर महाविभाषा या विभाषा नाम की प्रकांड टीका
इस मत का मूल अवलंबन थी इसलिए इसका नाम वैभाषिक पड़ा।