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Saturday, October 2, 2021

वैशेषिक दर्शन का परमाणुकारणवाद या परमाणुवाद

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वैशेषिक दर्शन का परमाणुकारणवाद या परमाणुवाद

वैशेषिक दर्शन का परमाणुकारणवाद या परमाणुवाद

     परमाणुवाद न्याय-वैशेषिक दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसके आधार पर वे विश्व की सावयव वस्तुओं की उत्पत्ति एवं विनाश की व्याख्या करते हैं। चूँकि यहाँ परमाणुओं के आधार पर भौतिक विश्व की सृष्टि एवं विनाश की व्याख्या की जाती है, इसलिए, उनका सृष्टि सम्बन्धी सिद्धान्त परमाणुवाद कहलाता है। महर्षि गौतम परमाणु को परिभाषित करते हुए कहते हैं कि परं वा गुटे अर्थात् जिसे और अधिक विभाजित न किया जा सके, वही परमाणु है अतः स्पष्ट है कि परमाणु निरवयव है तथा निरवयव होने के कारण अविभाज्य है, अविभाज्य होने के कारण नित्य है।

     वैशेषिक के अनुसार, संख्यात्मक दृष्टि से परमाणु अनन्त हैं तथा सभी परमाणु स्वभावत: निष्क्रिय हैं। यद्यपि परमाणु नित्य हैं, किन्तु इनसे उत्पन्न होने वाली समस्त सावयव वस्तुएँ अनित्य हैं। अत: परमाणु संसार की समस्त सावयव वस्तुओं के उपादान का कारण है। प्रत्येक परमाणु का अपना एक विशेष महत्त्व होता है, जो इसे अन्य परमाणुओं से अलग करता है अर्थात् कोई भी परमाणु अन्य के समान नहीं है, चाहे वे एक ही वर्ग के क्यों न हो।

परमाणुओं के प्रकार

    न्याय-वैशेषिक में चार प्रकार के परमाणुओं को स्वीकार किया गया है-पृथ्वी, अग्नि, जल तथा वायु के परमाणु। इन चार भूतों के अतिरिक्त आकाश एकमात्र ऐसा भूत है, जिसके परमाणु नहीं होते, क्योंकि आकाश विभू है। आकाश चार भूतों के परमाणुओं के संयोग व वियोग के लिए अवकाश प्रदान करता है। इन परमाणुओं में गुणात्मक तथा संख्यात्मक भेद पाया जाता है। जैसे-वायु के परमाणु में स्पर्श का गुण पाया जाता है, किन्तु पृथ्वी के परमाणुओं में रस, गन्ध आदि गुण भी पाए जाते हैं, किन्तु इनमें गन्ध का गुण प्रमुख है। चूंकि सभी परमाणु सूक्ष्मतम हैं। अत: इन्द्रियों के द्वारा उनका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं है। परमाणुओं की सत्ता का ज्ञान अनुमान के आधार पर किया जाता है। आकाश नामक भूत का ज्ञान भी अनुमान पर ही आधारित है।

वैशेषिक दर्शन में परमाणु सिद्धि के तर्क

वैशेषिक दर्शन में परमाणु सिद्धि के लिए निम्नलिखित तर्क दिए गए हैं-

    वैशेषिक के मतानुसार जितने भी सावयव पदार्थ हैं, वे अनित्य हैं। यदि इन सावयव पदार्थों का विभाजन किया जाए तो एक स्थिति ऐसी आएगी जब इनका और अधिक विभाजन सम्भव नहीं होगा। यदि हम इस विभाजन की प्रक्रिया को स्थिर नहीं जानेगे तो 'अनावस्था दोष' उत्पन्न हो जाएगा। अत: इस दोष से बचने के लिए निरवयव, अविभाज्य तथा सूक्ष्मतम तत्त्व के रूप में इन परमाणुओं का मानना आवश्यक है।

    वैशेषिक के मतानुसार, जिस प्रकार हम बड़े परिमाण की ओर बढ़ते-बढ़ते आकाश तक पहँचते हैं जिससे बड़ा कोई परिमाण नहीं है, ठीक उसी प्रकार सबसे छोटा परिमाण भी होना चाहिए, क्योंकि संसार में प्रत्येक वस्तु की एक विरोधी वस्तु विद्यमान है। अतः परमाणु ही वह सबसे छोटा परिमाण है।

    न्याय-वैशेषिक मतानुसार, परमाणु स्वभावतः निष्क्रिय हैं। ऐसी स्थिति में यह प्रश्न उभरकर सामने आता है कि निष्क्रिय परमाणुओं से जगत की रचना क्यों और कैसे तथा किसके द्वारा की गई है?

    न्याय-वैशेषिक मतानुसार, जीवों को उनके कर्मों का उचित फल प्रदान करने के लिए ईश्वर द्वारा इस जगत की रचना निष्क्रिय परमाणुओं में गति को उत्पन्न करके की है। इस क्रम में सर्वप्रथम ईश्वर दो परमाणुओं को आपस में मिलाकर द्विअणु की रचना के पश्चात् तीन द्विअणुओं के संयोग से एक त्रयणुक का निर्माण करता है। यह त्रयणुक सृष्टि का सूक्ष्मतम दृष्टिगोचर होने वाला द्रव्य है, परमाणुओं का यह संयोग क्रम चलता रहता है और इस प्रकार सृष्टि निर्माण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।

परमाणुवाद की मुख्य विशेषताएँ

न्याय-वैशेषिक परमाणुवाद की कुछ मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

    न्याय-वैशेषिक परमाणुवाद, ईश्वरवाद तथा अनीश्वरवाद का समन्वय करता है। ईश्वरवाद ईश्वर को जगत का कारण मानता है तथा अनीश्वरवाद भौतिक तत्त्वों या परमाणुओं के आधार पर जगत की उत्पत्ति एवं विकास की व्याख्या करता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में परमाणुओं के संयोग से जगत की उत्पत्ति की बात की गई है, परन्तु साथ में यह भी कहा गया है कि यह सृष्टि ईश्वर की इच्छा से स्वयं ईश्वर द्वारा की गई है।

    न्याय-वैशेषिक का यह परमाणुवाद केवल अनित्य या सावयव जगत की उत्पत्ति एवं विनाश की व्याख्या करता है। यहाँ देश-काल, मन तथा आत्मा आदि नित्य द्रव्यों की व्याख्या परमाणुओं के आधार पर नहीं की गई है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में परमाणुवाद की उक्त विवेचना की गई है, जिसके विरुद्ध अद्वैत के प्रतिपादक शंकर ने निम्न आक्षेप लगाए हैं-

    यदि परमाणु स्वभावतः निष्क्रिय है, तो ऐसी स्थिति में सृष्टि उत्पत्ति की व्याख्या नहीं हो पाती।

    यदि परमाणुओं को सदैव सक्रिय माना जाए तो ऐसी स्थिति में सदैव सृष्टि ही होती रहेगी, विनाश की व्याख्या नहीं हो पाएगी।

    यदि परमाणुओं को निष्क्रिय एवं सक्रिय दोनों माना जाए तो आत्मविरोधाभास की स्थिति उत्पन्न होती है और यदि परमाणुओं को न निष्क्रिय माना जाए, न सक्रिय माना जाए तो ऐसी स्थिति अकल्पनीय होगी।

    परमाणु नित्य नहीं हो सकते क्योंकि ये भौतिक वस्तुओं की मूल इकाई हैं। ये निरवयव भी नहीं हो सकते, क्योंकि इनकी वस्तुगत सत्ता है।

    परमाणुवाद में ईश्वर की कल्पना बाह्य आरोपित है।


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वैशेषिक दर्शन का कारणता सिद्धान्त

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वैशेषिक दर्शन का कारणता सिद्धान्त 

वैशेषिक दर्शन का कारणता सिद्धान्त  

     कार्य के नियत रूप में पूर्ववर्ती को कारण कहा जाता है। स्पष्ट है कि कार्य के पहले कारण को होना ही चाहिए, किन्तु कारण के अतिरिक्त कार्य से पूर्व अन्य भी अनेक पदार्थ रह सकते हैं। उदाहरण के लिए घट बनाने से पूर्व घट बनाने की मिट्टी बैलगाड़ी में भी आ सकती है और गधे पर भी। किन्तु ये दोनों ही घड़े के कारण नहीं माने जाएंगे, क्योंकि वे घट के पूर्व नियत रूप से नहीं रहते।

कारण के प्रकार

सामान्यतया किसी कार्य को करने के दो कारण होते हैं-

  1. उपादान कारण और
  2. निमित्त कारण

जैसेकुम्हार मिट्टी से घड़ा बनाता है। यह कुम्हार निमित्त कारण तथा मिट्टी (सामग्री) उपादान कारण है, परन्तु वैशेषिक दर्शन में

  1. समवायी
  2. असमवायी एवं
  3. निमित्त।

ये तीन कारण माने गए हैं, जो इस प्रकार हैं

समवायी कारण

    समवायी सम्बन्ध नित्य सम्बन्ध होता है. जो दो ऐसे पदार्थों के मध्य होता है जिन्हें अलग नहीं किया जा सकता; जैसे-घड़े एवं मिट्टी के मध्य सम्बन्ध। घड़े को मिट्टी से पृथक् करना सम्भव नहीं होता। यहाँ मिट्टी समवायी कारण है। अन्य दर्शन इसे उपादान कारण कहते हैं।

असमवायी कारण

   जो समवाय सम्बन्ध से समवायी कारण में रहता हो तथा समवायी कार्य का जन्म हो, वह असमवायी कारण कहा जाता है; जैसेपट (कपड़ा) कार्य में तन्तुओं का रंगा

निमित्त कारण

     जिसके बिना कार्य उत्पन्न ही न हो सके, उसे निमित्त कारण कहते हैं। घड़े के प्रसंग में कुम्हार, उसका चाकदण्ड आदि निमित्त कारण हैं।

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वैशेषिक दर्शन का असत्कार्यवाद सिद्धान्त

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वैशेषिक दर्शन का असत्कार्यवाद सिद्धान्त 

वैशेषिक दर्शन का असत्कार्यवाद सिद्धान्त 

    असत्कार्यवाद वैशेषिक दर्शन का कारण कार्य नियम है। पुनः वैशेषिक दर्शन के अनुसार कारण-कार्य नियम स्वयं-सिद्ध है। कारण किसी वस्तु का पूर्ववर्ती एवं कार्य उत्तरवर्ती होता है, परन्तु सभी पूर्ववर्ती को कारण नहीं कहा जा सकता है। पूर्ववर्ती दो प्रकार के होते हैं-

  1. नियत पूर्ववर्ती
  2. अनियत पूर्ववर्ती

नियत पूर्ववर्ती 

वह पूर्ववर्ती जो घटना विशेष के पूर्व निरन्तर आता है, जैसे-वर्षा के पूर्व आकाश में बादल का रहना।

अनियत पूर्ववर्ती 

    जो घटना के पूर्व कभी आता है, कभी नहीं आता है। वर्षा होने के पूर्व बच्चे का शोर करना अनियत पूर्ववर्ती है, क्योंकि जब-जब वर्षा होती है तब-तब बच्चे शोर नहीं करते। वैशेषिक के अनुसार, कारण नियत पूर्ववर्ती होता है।

    कारण की एक अन्य विशेषता तात्कालिकता है अर्थात् जो पूर्ववर्ती घटना कार्य के ठीक पूर्व आयी हो, उसे कारण कहा जा सकता है। वैशेषिक के कारण की व्याख्या पाश्चात्य दार्शनिक मिल की तरह है, दोनों ही कारण को नियत, निरूपाधिक और तात्कालिक पूर्ववर्ती मानते हैं।

    वैशेषिक दर्शन में किसी एक कार्य के लिए अनेक कारणों को स्वीकार नहीं किया गया है। कार्य अपने कारण के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से उत्पन्न ही नहीं हो सकता। कारण अनेक तभी प्रतीत होते हैं जब हम कार्य की विशेषताओं पर पूर्ण रूप से ध्यान नहीं देते। यदि कारण को अनेक माना जाए तो अनुमान करना सम्भव नहीं है कि किसी कार्य का कारण क्या है।

असत्कार्यवाद की सिद्धि हेतु उक्तियाँ

न्याय दार्शनिकों ने अपने असत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिए निम्नांकित उक्तियाँ दी हैं-

    यदि कार्य उत्पत्ति से पूर्व कारण में निहित रहता तब निमित्त कारण की आवश्यकता नहीं होती। यदि मिट्टी में ही घड़ा निहित रहता तो कुम्हार की कोई आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए थी अर्थात् मिट्टी से घड़े को अपने आप उत्पन्न हो जाना चाहिए था।

    यदि कार्य उत्पत्ति से पूर्व कारण में रहता तब फिर कार्य की उत्पत्ति के बाद ऐसा कहा जाना कि कार्य की उत्पत्ति हई', यह उत्पन्न हुआ आदि सर्वथा अर्थहीन मालूम होता, परन्तु हम यह जानते हैं कि इन वाक्यों का प्रयोग होता है, जो सिद्ध करता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं था।

    यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में ही निहित रहता तब कारण और कार्य का भेद करना असम्भव हो जाता, परन्तु हम कारण और कार्य के बीच भिन्नता का अनुभव करते हैं। मिट्टी और घड़े में भेद किया जाता है। अतः कार्य की सत्ता कारण में नहीं है।

    यदि कार्य व कारण अभिन्न हैं तो ऐसी स्थिति में दोनों से एक ही प्रयोजन की पूर्ति होनी चाहिए, परन्तु हम पाते हैं कि कार्य का प्रयोजन कारण के प्रयोजन से भिन्न होता है; जैसे-घड़े में पानी जमा किया जाता है, परन्तु मिट्टी के द्वारा यह काम पूरा नहीं हो सकता।

    यदि कार्य कारण में निहित रहता तबकारण व कार्य' के लिए एक ही शब्द का प्रयोग किया जाता, परन्तु दोनों के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग इसलिए हुआ है, क्योंकि न्याय दर्शन में बहुकारणवाद के सिद्धान्त का खण्डन हुआ है। न्याय के अनुसार कारण-कार्य में व्यतिरेकी सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध का यह अर्थ है कि जब कारण रहता है तभी कार्य होता है। कारण के अभाव में कार्य का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।

    वैशेषिक न्याय मतानुसार, कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं रहता। कार्य एक नई सृष्टि है। उसकी सत्ता का आरम्भ उसकी उत्पत्ति के साथ होता है। वैशेषिक के कारण-कार्य सिद्धान्त को असत्कार्यवाद कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पर्व कारण में अन्तर्भत नहीं है। अतः असत्कार्यवाद उस सिद्धान्त को कहते हैं जिसके अनुसार कार्य का अस्तित्व कारण में नहीं है। इस सिद्धान्त को 'आरम्भवाद' भी कहा जाता है क्योंकि यह कार्य को एक नवीन उत्पत्ति मानता है। इस प्रकार दर्शन के क्षेत्र में असत्कार्यवाद के सिद्धान्त का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। न्याय तथा वैशेषिक दर्शन के अतिरिक्त इस सिद्धान्त को जैन, बौद्ध और मीमांसा दर्शन ने भी अपनाया है।

नोट- न्याय तथा वैशेषिक दर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त अर्थात् असत्कार्यवाद का सिद्धान्त एक ही है।

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वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा

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वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा 

वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा 

    न्याय-वैशेषिक दर्शन में अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इनके अनुसार किसी स्थान विशेष, काल विशेष में किसी वस्तु का उपस्थित नहीं होना 'अभाव' है। यहाँ अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि अभाव का शाब्दिक अर्थ 'नहीं होना। किसी वस्तु के अभाव को सूचित करता है, इसे ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है, इसे नाम दिया जा सकता है। यदि अभाव को स्वीकार न किया जाए तो असत्कार्यवाद तथा मोक्ष की संगत व्याख्या सम्भव नहीं है। वैशेषिक में अभाव के दो प्रकार बताए गए हैं- अन्योन्याभाव तथा संसर्गाभाव को पुन: तीन भागों में बाँटा गया है

  1. प्राग् भाव,
  2. प्रध्वंसाभाव तथा
  3. अत्यन्ताभाव।

     न्याय वैशेषिक ने अपना उपरोक्त जो पदार्थ विचार प्रस्तुत किया है उसकी कई आधारों पर आलोचना होती है; जैसे-शंकर का विचार है कि वैशेषिक के बहुत्ववाद से सांख्य का द्वैतवाद बेहतर है, क्योंकि वह सांख्य जगत का विभाजन जड़ व चेतन नामक दो मौलिक कोटियों में करता है, जबकि वैशेषिक को सात कोटियों की आवश्यकता पड़ती है। यदि जगत का विभाजन करना ही है तो सात ही कोटियाँ क्यों? इससे कम या अधिक क्यों नहीं? जगत का विभाजन अनन्त कोटियों में भी हो सकता है और यदि मौलिक कोटियों को भी स्वीकार करना है तो चित् व अचित् की दो कोटियाँ ही पर्याप्त हैं।

     वैशेषिक की द्रव्य की अवधारणा अन्तर्विरोधग्रस्त है। सापेक्ष द्रव्य आत्म व्याघाती है। द्रव्य अनिवार्यत: निरपेक्ष ही हो सकता है, किन्तु वैशेषिक का द्रव्य गुण से सदैव संयुक्त रहता है। यह गुण से स्वतन्त्र द्रव्य की स्थापना नहीं कर पाता है। वैशेषिक की सामान्य अवधारणा भी तर्कपूर्ण नहीं है, क्योंकि वस्तुवादी होने के कारण वह सामान्य को वस्तुनिष्ठ घोषित करता है, जबकि वास्तविकता यह है कि सामान्य का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व सम्भव नहीं, क्योंकि सामान्य आकारिक (मानसिक) होता है। 'विशेष' वैशेषिक की कल्पना मात्र है, विशेष कोई तात्त्विक तत्त्व नहीं है। यह दो तादात्म्यक वस्तुओं में उनकी पृथक्ता के कारण होता है न कि विशेष के कारण। समवाय विचार में अनावस्था दोष है, क्योंकि दो पदार्थों को जोड़ने के लिए एक तीसरे पदार्थ के रूप में समवाय पदार्थ को मानना आवश्यक है। चूंकि समवाय एक नित्य पदार्थ है, अत: यह अकेला नहीं रह सकता। इसके साथ एक विशेष का होना अनिवार्य है। पुनः समवाय और विशेष को जोड़ने के लिए एक समवाय पदार्थ की आवश्यकता पड़ेगी और इस क्रम में अनावस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। रामानुज के अनुसार, समवाय एक आन्तरिक नहीं, बल्कि बाह्य सम्बन्ध है, क्योंकि समवाय से जुड़ी वस्तुएँ एक-दूसरे से पृथक् होती हैं।

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