वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा
भारतीय दर्शन |
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वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा |
वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा
न्याय-वैशेषिक दर्शन
में अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इनके अनुसार किसी स्थान विशेष, काल विशेष
में किसी वस्तु का उपस्थित नहीं होना 'अभाव' है। यहाँ
अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि
अभाव का शाब्दिक अर्थ 'नहीं होना। किसी वस्तु के अभाव को सूचित करता है, इसे ज्ञान
का विषय बनाया जा सकता है, इसे नाम दिया
जा सकता है। यदि अभाव को स्वीकार न किया जाए तो असत्कार्यवाद तथा मोक्ष की संगत व्याख्या
सम्भव नहीं है। वैशेषिक में अभाव के दो प्रकार बताए गए हैं- अन्योन्याभाव
तथा संसर्गाभाव को पुन: तीन भागों में बाँटा गया है—
- प्राग् भाव,
- प्रध्वंसाभाव
तथा
- अत्यन्ताभाव।
न्याय वैशेषिक ने अपना उपरोक्त जो पदार्थ विचार प्रस्तुत किया है
उसकी कई आधारों पर आलोचना होती है; जैसे-शंकर
का विचार है कि वैशेषिक के बहुत्ववाद से सांख्य का द्वैतवाद बेहतर है, क्योंकि
वह सांख्य जगत का विभाजन जड़ व चेतन नामक दो मौलिक कोटियों में करता है, जबकि
वैशेषिक को सात कोटियों की आवश्यकता पड़ती है। यदि जगत का विभाजन करना ही है तो सात
ही कोटियाँ क्यों? इससे कम या अधिक क्यों नहीं? जगत का
विभाजन अनन्त कोटियों में भी हो सकता है और यदि मौलिक कोटियों को भी स्वीकार करना है
तो चित् व अचित् की दो कोटियाँ ही पर्याप्त हैं।
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