वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा

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वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा 

वैशेषिक दर्शन में अभाव पदार्थ की अवधारणा 

    न्याय-वैशेषिक दर्शन में अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इनके अनुसार किसी स्थान विशेष, काल विशेष में किसी वस्तु का उपस्थित नहीं होना 'अभाव' है। यहाँ अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि अभाव का शाब्दिक अर्थ 'नहीं होना। किसी वस्तु के अभाव को सूचित करता है, इसे ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है, इसे नाम दिया जा सकता है। यदि अभाव को स्वीकार न किया जाए तो असत्कार्यवाद तथा मोक्ष की संगत व्याख्या सम्भव नहीं है। वैशेषिक में अभाव के दो प्रकार बताए गए हैं- अन्योन्याभाव तथा संसर्गाभाव को पुन: तीन भागों में बाँटा गया है

  1. प्राग् भाव,
  2. प्रध्वंसाभाव तथा
  3. अत्यन्ताभाव।

     न्याय वैशेषिक ने अपना उपरोक्त जो पदार्थ विचार प्रस्तुत किया है उसकी कई आधारों पर आलोचना होती है; जैसे-शंकर का विचार है कि वैशेषिक के बहुत्ववाद से सांख्य का द्वैतवाद बेहतर है, क्योंकि वह सांख्य जगत का विभाजन जड़ व चेतन नामक दो मौलिक कोटियों में करता है, जबकि वैशेषिक को सात कोटियों की आवश्यकता पड़ती है। यदि जगत का विभाजन करना ही है तो सात ही कोटियाँ क्यों? इससे कम या अधिक क्यों नहीं? जगत का विभाजन अनन्त कोटियों में भी हो सकता है और यदि मौलिक कोटियों को भी स्वीकार करना है तो चित् व अचित् की दो कोटियाँ ही पर्याप्त हैं।

     वैशेषिक की द्रव्य की अवधारणा अन्तर्विरोधग्रस्त है। सापेक्ष द्रव्य आत्म व्याघाती है। द्रव्य अनिवार्यत: निरपेक्ष ही हो सकता है, किन्तु वैशेषिक का द्रव्य गुण से सदैव संयुक्त रहता है। यह गुण से स्वतन्त्र द्रव्य की स्थापना नहीं कर पाता है। वैशेषिक की सामान्य अवधारणा भी तर्कपूर्ण नहीं है, क्योंकि वस्तुवादी होने के कारण वह सामान्य को वस्तुनिष्ठ घोषित करता है, जबकि वास्तविकता यह है कि सामान्य का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व सम्भव नहीं, क्योंकि सामान्य आकारिक (मानसिक) होता है। 'विशेष' वैशेषिक की कल्पना मात्र है, विशेष कोई तात्त्विक तत्त्व नहीं है। यह दो तादात्म्यक वस्तुओं में उनकी पृथक्ता के कारण होता है न कि विशेष के कारण। समवाय विचार में अनावस्था दोष है, क्योंकि दो पदार्थों को जोड़ने के लिए एक तीसरे पदार्थ के रूप में समवाय पदार्थ को मानना आवश्यक है। चूंकि समवाय एक नित्य पदार्थ है, अत: यह अकेला नहीं रह सकता। इसके साथ एक विशेष का होना अनिवार्य है। पुनः समवाय और विशेष को जोड़ने के लिए एक समवाय पदार्थ की आवश्यकता पड़ेगी और इस क्रम में अनावस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। रामानुज के अनुसार, समवाय एक आन्तरिक नहीं, बल्कि बाह्य सम्बन्ध है, क्योंकि समवाय से जुड़ी वस्तुएँ एक-दूसरे से पृथक् होती हैं।

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