वैशेषिक दर्शन का असत्कार्यवाद सिद्धान्त

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वैशेषिक दर्शन का असत्कार्यवाद सिद्धान्त 

वैशेषिक दर्शन का असत्कार्यवाद सिद्धान्त 

    असत्कार्यवाद वैशेषिक दर्शन का कारण कार्य नियम है। पुनः वैशेषिक दर्शन के अनुसार कारण-कार्य नियम स्वयं-सिद्ध है। कारण किसी वस्तु का पूर्ववर्ती एवं कार्य उत्तरवर्ती होता है, परन्तु सभी पूर्ववर्ती को कारण नहीं कहा जा सकता है। पूर्ववर्ती दो प्रकार के होते हैं-

  1. नियत पूर्ववर्ती
  2. अनियत पूर्ववर्ती

नियत पूर्ववर्ती 

वह पूर्ववर्ती जो घटना विशेष के पूर्व निरन्तर आता है, जैसे-वर्षा के पूर्व आकाश में बादल का रहना।

अनियत पूर्ववर्ती 

    जो घटना के पूर्व कभी आता है, कभी नहीं आता है। वर्षा होने के पूर्व बच्चे का शोर करना अनियत पूर्ववर्ती है, क्योंकि जब-जब वर्षा होती है तब-तब बच्चे शोर नहीं करते। वैशेषिक के अनुसार, कारण नियत पूर्ववर्ती होता है।

    कारण की एक अन्य विशेषता तात्कालिकता है अर्थात् जो पूर्ववर्ती घटना कार्य के ठीक पूर्व आयी हो, उसे कारण कहा जा सकता है। वैशेषिक के कारण की व्याख्या पाश्चात्य दार्शनिक मिल की तरह है, दोनों ही कारण को नियत, निरूपाधिक और तात्कालिक पूर्ववर्ती मानते हैं।

    वैशेषिक दर्शन में किसी एक कार्य के लिए अनेक कारणों को स्वीकार नहीं किया गया है। कार्य अपने कारण के अतिरिक्त किसी अन्य कारण से उत्पन्न ही नहीं हो सकता। कारण अनेक तभी प्रतीत होते हैं जब हम कार्य की विशेषताओं पर पूर्ण रूप से ध्यान नहीं देते। यदि कारण को अनेक माना जाए तो अनुमान करना सम्भव नहीं है कि किसी कार्य का कारण क्या है।

असत्कार्यवाद की सिद्धि हेतु उक्तियाँ

न्याय दार्शनिकों ने अपने असत्कार्यवाद को सिद्ध करने के लिए निम्नांकित उक्तियाँ दी हैं-

    यदि कार्य उत्पत्ति से पूर्व कारण में निहित रहता तब निमित्त कारण की आवश्यकता नहीं होती। यदि मिट्टी में ही घड़ा निहित रहता तो कुम्हार की कोई आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए थी अर्थात् मिट्टी से घड़े को अपने आप उत्पन्न हो जाना चाहिए था।

    यदि कार्य उत्पत्ति से पूर्व कारण में रहता तब फिर कार्य की उत्पत्ति के बाद ऐसा कहा जाना कि कार्य की उत्पत्ति हई', यह उत्पन्न हुआ आदि सर्वथा अर्थहीन मालूम होता, परन्तु हम यह जानते हैं कि इन वाक्यों का प्रयोग होता है, जो सिद्ध करता है कि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं था।

    यदि कार्य उत्पत्ति के पूर्व कारण में ही निहित रहता तब कारण और कार्य का भेद करना असम्भव हो जाता, परन्तु हम कारण और कार्य के बीच भिन्नता का अनुभव करते हैं। मिट्टी और घड़े में भेद किया जाता है। अतः कार्य की सत्ता कारण में नहीं है।

    यदि कार्य व कारण अभिन्न हैं तो ऐसी स्थिति में दोनों से एक ही प्रयोजन की पूर्ति होनी चाहिए, परन्तु हम पाते हैं कि कार्य का प्रयोजन कारण के प्रयोजन से भिन्न होता है; जैसे-घड़े में पानी जमा किया जाता है, परन्तु मिट्टी के द्वारा यह काम पूरा नहीं हो सकता।

    यदि कार्य कारण में निहित रहता तबकारण व कार्य' के लिए एक ही शब्द का प्रयोग किया जाता, परन्तु दोनों के लिए भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग इसलिए हुआ है, क्योंकि न्याय दर्शन में बहुकारणवाद के सिद्धान्त का खण्डन हुआ है। न्याय के अनुसार कारण-कार्य में व्यतिरेकी सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध का यह अर्थ है कि जब कारण रहता है तभी कार्य होता है। कारण के अभाव में कार्य का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता।

    वैशेषिक न्याय मतानुसार, कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान नहीं रहता। कार्य एक नई सृष्टि है। उसकी सत्ता का आरम्भ उसकी उत्पत्ति के साथ होता है। वैशेषिक के कारण-कार्य सिद्धान्त को असत्कार्यवाद कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनसार कार्य अपनी उत्पत्ति के पर्व कारण में अन्तर्भत नहीं है। अतः असत्कार्यवाद उस सिद्धान्त को कहते हैं जिसके अनुसार कार्य का अस्तित्व कारण में नहीं है। इस सिद्धान्त को 'आरम्भवाद' भी कहा जाता है क्योंकि यह कार्य को एक नवीन उत्पत्ति मानता है। इस प्रकार दर्शन के क्षेत्र में असत्कार्यवाद के सिद्धान्त का काफी महत्त्वपूर्ण स्थान है। न्याय तथा वैशेषिक दर्शन के अतिरिक्त इस सिद्धान्त को जैन, बौद्ध और मीमांसा दर्शन ने भी अपनाया है।

नोट- न्याय तथा वैशेषिक दर्शन में कारण-कार्य सिद्धान्त अर्थात् असत्कार्यवाद का सिद्धान्त एक ही है।

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