मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा
भारतीय दर्शन |
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मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा |
मीमांसा दर्शन में शब्द प्रमाण की अवधारणा
शब्द प्रमाण
नैयायिकों के अनुसार शब्द अनित्य हैं, क्योंकि
ये उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं। इसके विपरीत मीमांसक शब्दों को नित्य मानते हैं। इनके
अनुसार वेद के शब्द नित्य हैं। इस सन्दर्भ में मीमांसकों की मान्यता थी कि शब्द उत्पन्न
एवं नष्ट नहीं होते, बल्कि आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है; जैसे-बोलने
से
'ॐ' शब्द
उत्पन्न नहीं हुआ, 'ॐ' शब्द तो नित्य है आवाज के द्वारा 'ॐ' को व्यक्त
किया गया है, अत: आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है शब्द नहीं, क्योंकि
शब्द नित्य है।
नैयायिकों की मान्यता थी कि शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध नित्य है।
शब्दों में अर्थ प्रदान करने की जो शक्ति है, नैयायिक
उसे
'शब्द
शक्ति' कहते हैं तथा बताते हैं कि शब्द शक्ति अनित्य है, क्योंकि
यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करती है। इस सन्दर्भ में नैयायिकों का मत था कि चूँकि
शब्दों के अर्थ ईश्वर ने निश्चित किए हैं तथा ऐसा हो सकता है कि इस सृष्टि के बाद अगली
सृष्टि में ईश्वर शब्दों के अर्थ को बदल दे। अतः शब्द तथा अर्थ का सम्बन्ध अनित्य है, क्योंकि
यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर है।
मीमांसकों के अनुसार, शब्द तथा अर्थ
का सम्बन्ध नित्य है। चूंकि मीमांसक अनीश्वरवादी हैं, इसलिए
वे कहते हैं कि जब ईश्वर है ही नहीं तो शब्दों के अर्थ कौन परिवर्तित करेगा? अत: वेद शब्द
नित्य हैं, क्योंकि इनकी रचना न तो मनुष्यों ने की है और न ही ईश्वर ने, इसलिए
ये अपौरुषेय हैं। मीमांसकों के अनुसार, वेद स्वत: प्रकट
हुए हैं। मीमांसकों के अनुसार वेद यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के साधन हैं।
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