जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य
जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य
जैन दर्शन (Jain philosophy) एवं जैन साहित्य
जैन मत में कुल 24 तीर्थंकर हुए। प्राचीन काल से ही तीर्थंकरों
की एक लंबी परंपरा चली आ रही थी। ऋषभदेव इस परंपरा के पहले तीर्थंकर माने जाते हैं।
वर्धमान या महावीर इसके अंतिम तीर्थंकर थे। उनका जन्म ईसा से पूर्व छठी शताब्दी
वर्ष में हुआ था। जैन ईश्वर को नहीं मानते। जैन मत के प्रवर्तकों की उपासना करते
हैं। तीर्थंकर मुक्त होते हैं। किंतु मोक्ष पाने के पूर्व में भी बंधन में थे
लेकिन साधना के द्वारा ये मुक्त, सिद्ध, सर्वज्ञ,
सर्वशक्तिमान और आनंदमय हो गए। कालांतर में जैनों के दो संप्रदाय हो
गए - श्वेतांबर और दिगंबर। श्वेतांबर और दिगंबर संप्रदायों में मूल सिद्धांतों का
भेद नहीं बल्कि आचार विचार संबंधी कुछ और बातों को लेकर भेद किए गये हैं। यह दोनों
ही महावीर के संदेशों को मानते हैं लेकिन नियम पालन की कठोरता श्वेतांबर की अपेक्षा
दिगंबर में अधिक पाई जाती है। यहां तक कि वे वस्त्रों का व्यवहार भी नहीं करते हैं।
श्वेतांबर सन्यासी वस्त्रों का व्यवहार करते हैं। दिगंबरों के अनुसार पूर्ण ज्ञानी
महात्माओं को भोजन की भी आवश्यकता नहीं होती है। वे यह भी कहते हैं कि स्त्रियाँ
जब तक पुरुष रूप में जन्म ग्रहण न कर ले तब तक वे मुक्तिप्राप्त नहीं कर सकती
किंतु श्वेतांबर इन विचारों को नहीं मानते हैं।
जैन दर्शन का साहित्य जैन दर्शन का साहित्य बहुत समृद्ध है और
अधिकांशतः प्राकृत भाषा में है। जैनमत के मौलिक सिद्धांतों को सभी संप्रदायों के
लोग मानते हैं। कहा जाता है कि इन सिद्धांतों के उपदेशक 24 वें तीर्थंकर महावीर
हैं। आगे चलकर जैन दर्शन ने संस्कृत भाषा को अपनाया और फिर संस्कृत में भी जैन
साहित्य का विकास हुआ। संस्कृत में उमा स्वाति का तत्वार्थाधिगम सूत्र, सिद्धसिंह
दिवाकर का न्यायावतार, नेमिचंद्र का द्रव्यसंग्रह, मल्लिसेन का स्याद्वादमंजरी, प्रभाचंद का प्रमेय-कमलमार्तंड
आदि प्रसिद्ध दार्शनिक ग्रंथ हैं।
Comments
Post a Comment