चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा

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चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा 

चार्वाक दर्शन की कर्म मीमांसा 

वेदों, उपनिषदों, गीता तथा अन्य धर्मग्रन्थों में लिखा है कि कर्म के अनुसार जीव फल पाता है। प्रत्येक प्राणी को शुभ-अशुभ का फल उसके किए कर्मानुसार मिलता है। गीता में तीन प्रकार के कर्म की बात की गई है-

    संचित कर्मों का फल संचित होता है, जो कालान्तर में मिलता है।

    प्रारब्ध कर्म पूर्वजन्म में किए वे कर्म होते हैं, जिनका फल इस वर्तमान जीवन में मिलता है।

    संचीयमान कर्म वे कर्म हैं, जो हम कर रहे हैं।

परन्तु चार्वाक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को ही मानता है। वह ईश्वर, कर्म, परलोक आदि को नहीं मानता। अत: वह कर्म नियम को भी नहीं मानता। चार्वाक का मानना है कि इस जन्म में जीवित रहते ही सुख-दुःख प्राप्त किया जा सकता है, मृत्यु के पश्चात् नहीं। मृत्यु समस्त कर्मों का अन्त है।

स्वर्ग

मीमांसक स्वर्ग को मानव जीवन का चरम लक्ष्य मानते हैं। स्वर्ग पूर्ण आनन्द की अवस्था को कहते हैं। इस लोक में वैदिक आचारों के अनुसार चलने पर परलोक में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। चार्वाक इस मत का खण्डन करते हैं, क्योंकि यह परलोक में विश्वास पर अविलम्बित है। इसके अनुसार तो परलोक का कहीं प्रत्यक्ष नहीं होता। स्वर्ग-नरक पुरोहितों की मिथ्या कल्पनाएँ हैं। पुरोहित वर्ग अपने व्यावसायिक लाभ के लिए इस प्रकार के भय गढ़ते हैं। चार्वाक स्वर्ग-नरक आदि का खण्डन करता है।

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