न्याय दर्शन एक सामान्य परिचय
भारतीय दर्शन |
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न्याय दर्शन एक सामान्य परिचय |
न्याय दर्शन एक सामान्य परिचय
न्याय दर्शन के प्रवर्तक महर्षि गौतम थे। इनका पूरा नाम मेधातिथि गौतम है। वे अक्षपाद के नाम से भी प्रसिद्ध हैं। अक्षपाद नाम के कारण ही न्याय दर्शन का अन्य नाम 'अक्षपाद दर्शन' भी है। न्याय दर्शन में शुद्ध विचार के नियमों तथा तत्त्वज्ञान प्राप्त करने के उपायों का वर्णन किया गया है। न्याय दर्शन का अन्तिम उद्देश्य शुद्ध विचार अथवा तार्किक आलोचना करना नहीं, बल्कि मोक्ष की प्राप्ति है। जीवन के दुःखों का किस तरह से नाश हो, इसका उपाय निकालना ही इस दर्शन का मुख्य उद्देश्य है। वात्स्यायन कहते हैं- "प्रमाणों के द्वारा किसी विषय की परीक्षा करना ही न्याय है। "
न्याय दर्शन का मूल ग्रन्थ न्याय सूत्र है। न्याय सूत्र के बाद भी
अनेक ग्रन्थ लिखे गए हैं, जो निम्नलिखित
हैं-
ग्रन्थ |
ग्रन्थकार |
न्याय भाष्य |
वात्स्यायन |
न्याय-वार्तिक |
उद्योतकर |
न्याय-वार्तिक
तात्पर्य टीका |
वाचस्पति |
न्याय-वार्तिक
तात्पर्य परिशुद्धि |
उदयन |
न्याय मंजरी |
जयन्त |
कुसुमांजलि |
उदयन |
प्राचीन समय का न्याय प्राचीन न्याय तथा आधुनिक काल का न्याय नव्य
न्याय कहलाता है। नव्य न्याय का प्रारम्भ गणेश की तत्त्व चिन्तामणि से हुआ है।
न्याय दर्शन निम्नलिखित चार भागों में वर्णित है-
प्रथम भाग |
प्रमाण सम्बन्धी |
द्वितीय भाग |
भौतिक जगत सम्बन्धी |
तृतीय भाग |
आत्मा एवं मोक्ष |
चतर्थ भाग |
ईश्वर (सम्बन्धी) विचार |
न्याय दर्शन में 16 पदार्थों या तत्त्वों
का अस्तित्व स्वीकार किया गया है तथा बताया गया है कि इनके सम्यक् ज्ञान के द्वारा
ही अपवर्ग या मोक्ष प्राप्त हो सकता है। ये तत्त्व हैं
- प्रमाण
- प्रमेय
- संशय
- प्रयोजन
- दृष्टान्त
- सिद्धान्त
- अवयव
- तर्क
- निर्णय
- वाद
- जल्प
- वितण्डा
- हेत्वाभास
- छल
- जाति तथा
- निग्रह-स्थान
उपरोक्त तत्त्वों में प्रमाण तथा प्रमेय ही मुख्य माने गए हैं।
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