न्याय दर्शन में प्रमा तथा अप्रमा का स्वरूप

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

न्याय दर्शन में प्रमा तथा अप्रमा का स्वरूप 

न्याय दर्शन में प्रमा तथा अप्रमा का स्वरूप 

      न्याय दर्शन में प्रमा तथा अप्रमा की अवधारणा को समझने हेतु प्रमाण मीमांसा को समझने की जरूरत है। वस्तुत: न्याय दर्शन का मुख्य प्रतिपाद्य विषय प्रमाण मीमांसा है। न्याय दर्शन की प्रमाण मीमांसा वस्तुवादी है। इसमें ज्ञान एवं उसके साधनों का गहन चिन्तन प्राप्त होता है। इसमें आत्मा को ज्ञान का आश्रय माना जाता है। ज्ञान आत्मा का आगन्तुक गुण है। आत्मा में ज्ञान तब उत्पन्न होता है जब ज्ञेय के सम्पर्क में आता है। ज्ञान अपने विषय को प्रकाशित करता है। ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं है, वह केवल विषय प्रकाशक है।न्याय दर्शन ज्ञान को अनुभव कहता है। " प्रमाण मीमांसा के अन्तर्गत अनुभव (ज्ञान) दो प्रकार के होते हैं

प्रमा का विचार

     यथार्थ अनुभव को प्रमा कहते हैं। तर्क संग्रह के अनुसार, किसी वस्तु का जो वह है, उसी रूप में ज्ञान यथार्थ अनुभव है अथवा जहाँ जो है, वहाँ उसी रूप में उसका अनुभव प्रमा है। इस प्रकार न्याय दर्शन यथार्थता को प्रमा का लक्षण मानता है। न्याय दर्शन में प्रमा के चार भेद हैं

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमिति,
  3. उपमिति एवं
  4. शब्द।

    प्रत्यक्ष प्रमा का प्रमाण प्रत्यक्ष, अनुमिति का अनुमान, उपमिति का अनुमान एवं शब्द प्रमा का शब्द प्रमाण माना जाता है। प्रत्येक प्रमा का विशिष्ट प्रमाण होता है।

अप्रमा का स्वरूप 

     किसी वस्तु के अन्यथा अनुभव को अप्रमा कहते हैं। यह संशयात्मक ज्ञान होता है, क्योंकि इसमें असंदिग्ध ज्ञान नहीं होता है। यह विषय का यथार्थ रूप प्रकाशित नहीं करता। अप्रमा तीन प्रकार की होती है-

  1. संशय
  2. भ्रम या विपर्यय और
  3. तर्क।

     संशय अनिश्चित ज्ञान है। इसमें मन दो कोटियों के बीच डोलता रहता है। भ्रम या विपर्यय अयथार्थ प्रत्यक्ष है। इसमें एक वस्तु भिन्न रूप में दिखाई देती है और देखने वाले को पक्का विश्वास रहता है कि वह सही चीज देख रहा है। सीप को चाँदी के रूप में देखना विपर्यय का एक उदाहरण है। विपर्यय में ज्ञान का वस्तु से संवाद नहीं होता है, जबकि तर्क किसी बात को परोक्ष तरीके से सिद्ध करना है। इसका उद्देश्य यह दिखाना रहता है कि असत्य कल्पना से अनिष्ट परिणाम निकलता है। तर्क से निश्चित ज्ञान नहीं होता है।

------------

Comments

Popular posts from this blog

वेदों का सामान्य परिचय General Introduction to the Vedas

वैदिक एवं उपनिषदिक विश्व दृष्टि

मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा