न्याय दर्शन की प्रमाण मीमांसा

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न्याय दर्शन की प्रमाण मीमांसा 

न्याय दर्शन की प्रमाण मीमांसा 

प्रमाण के सिद्धान्त

     न्याय दर्शन का प्रतिपादन गौतम ने किया था। यह एक ज्ञानमीमांसीय दर्शन है, क्योंकि इसमें ज्ञानमीमांसा को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है अर्थात् ज्ञान क्या है, यह कैसे प्राप्त होता है तथा इसकी प्रामाणिकता क्या है? आदि के बारे में विस्तार से बताया गया है। न्याय दार्शनिकों के अनुसार, ज्ञान दो प्रकार का होता है-

  1. यथार्थ ज्ञान तथा
  2. अयथार्थ ज्ञान।

     वस्तु जैसी है, जब ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त होता है, तो ऐसे ज्ञान को यथार्थ ज्ञान कहते हैं, किन्तु जब वस्तु जैसी होती है, ठीक वैसा ही ज्ञान प्राप्त नहीं होता, तो ऐसे ज्ञान को अयथार्थ ज्ञान कहते हैं। न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के लिए चार स्वतन्त्र प्रमाण स्वीकार किए गए हैं

  1. प्रत्यक्ष,
  2. अनुमान,
  3. उपमान तथा
  4. शब्द।

प्रत्यक्ष प्रमाण

    शाब्दिक दृष्टि से एवं संकीर्ण अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है-आँखों के सामने एवं व्यापक अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है, ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान। न्याय दर्शन के प्रतिपादक गौतम ने प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए कहा है कि-'इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानम् प्रत्यक्षम्।अर्थात् इन्द्रिय, अर्थ, सन्निकर्ष से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह प्रत्यक्ष है। भारतीय दर्शन में कुल छ: इन्द्रियाँ मानी गई हैं। इनमें से पाँच इन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, जिह्वा तथा त्वचा को बाह्य इन्द्रिय कहते हैं। इसके अतिरिक्त मन को आन्तरिक इन्द्रिय कहते हैं। आन्तरिक इन्द्रिय मन के द्वारा हम अन्त:प्रत्यक्ष करते हैं तथा बाह्य इन्द्रियों के द्वारा हम बाह्य प्रत्यक्ष करते हैं।

प्रत्यक्ष प्रमाण के चरण

न्याय दार्शनिकों के अनुसार, बाह्य प्रत्यक्ष तीन चरणों में सम्पन्न होता है-

    निर्विकल्प प्रत्यक्ष - यह प्रत्यक्ष की प्रारम्भिक भाषा है। इसमें हम वस्तु का प्रत्यक्ष तो करते हैं, परन्तु समझ नहीं पाते कि वस्तु क्या है। जैसे-हमने दूर से किसी को आते देखा, परन्तु समझ नहीं पाए कि कौन आ रहा है? निर्विकल्प प्रत्यक्ष है।

    सविकल्प प्रत्यक्ष - यह प्रत्यक्ष की दूसरी अवस्था है। इसमें इन्द्रियों से प्राप्त संवेदना में अर्थ भी जोड़ देते हैं और स्पष्टत: जान लेते हैं कि अमुक वस्तु 'यह' है। सविकल्प प्रत्यक्ष में वस्तु का स्पष्ट, निश्चित एवं निर्णायक ज्ञान होता है।

    प्रत्यभिज्ञा - यह तीसरा प्रत्यक्ष है। इसका तात्पर्य हैपहचानना। कई बार प्रत्यक्षीकरण में हमें वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ-ही-साथ यह ज्ञान भी होता है कि हमने इसे पहले भी देखा है, तो यह प्रत्यभिज्ञा है।

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार बताए गए हैं-

  1. लौकिक प्रत्यक्ष
  2. अलौकिक प्रत्यक्ष

लौकिक प्रत्यक्ष

    लौकिक प्रत्यक्ष जब इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष साधारण ढंग से होता है, तो इसे लौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। लौकिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है-

  1. बाह्य प्रत्यक्ष और
  2. मानस बाह्य

बाह्य प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का होता है-

  1. चाक्षुष प्रत्यक्ष (आँखों द्वारा)
  2. श्रावण (कानों द्वारा)
  3. घ्राणज (नाक द्वारा)
  4. रासन (जिह्वा द्वारा)
  5. त्वक (त्वचा द्वारा)

मानस बाह्य प्रत्यक्ष मन के द्वारा होता है।

अलौकिक प्रत्यक्ष

    अलौकिक प्रत्यक्ष जब इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता है, तो इसे अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है-

  1. सामान्य लक्षण
  2. ज्ञान लक्षण
  3. योगज लक्षण

सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष - सामान्य लक्षण सामान्यों का प्रत्यक्ष है, न्याय-वैशेषिक की तत्त्वमीमांसा के अनुसार सामान्यों का वस्तुगत अस्तित्व है एवं सामान्य विशेष में अनुगत रहते हैं तथा विशेष को देखने पर सामान्य का अलौकिक प्रत्यक्ष हो जाता है। इस सामान्य के आधार पर उस वर्ग विशेष की समस्त वस्तुओं का (जो अन्य कहीं विद्यमान हैं) प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाता है; जैसे-हमने जब धुएँ को देखा तो साथ ही धुएँ के सामान्य तत्त्व धूम्रत्व को भी देखा। इस सामान्य तत्त्व के आधार पर हमें अन्यत्र व्याप्त सभी धुओं का अलौकिक प्रत्यक्ष हो जाता है।

ज्ञान लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष - ज्ञान लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा किसी वस्तु के उस गुण का ज्ञान होता है, जिसका सम्पर्क इन्द्रियों से नहीं होता फिर भी हमें उससे गुण का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। जैसेबर्फ को देखकर ठण्ड का ज्ञान तथा पुष्प को देखकर सुगन्ध का ज्ञान हो जाता है, जबकि ठण्डक या सुगन्ध का सम्पर्क इन्द्रियों से नहीं हुआ होता है।

योगज अलौकिक प्रत्यक्ष - योगज अलौकिक प्रत्यक्ष का तीसरा भेद है, जो योगाभ्यास से प्रसूत होता है। योगियों को योग शक्ति के द्वारा दूर से दूर तक की वस्तुओं का अनुभव हो जाता है। वे अपने स्थान से बैठे-बैठे ही हजारों किलोमीटर दूर की घटना को देख-सुन सकते हैं, क्योंकि यह सन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता है, अत: इसे योगज अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं।

अनुमान प्रमाण

    चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शनों के समान ही न्याय दर्शन में भी अनुमान को यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। अनुमान दो शब्दों के योग से बना है-अनु एवं मान। यहाँ 'अनु' का अर्थ है- पश्चात् तथा मान का अर्थ है 'ज्ञान' अर्थात् अनुमान का शाब्दिक अर्थ है 'पश्चात् ज्ञान। अन्य शब्दों में पूर्व ज्ञान के पश्चात् और उसी पर आधारित होकर होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अत: स्पष्ट है अनुमान का आधार पूर्व में किए गए अनुभव हैं। उदाहरणार्थ-सामने पहाड़ी पर धुआँ दिख रहा है। धुएँ को देखकर यह ज्ञान हो जाना कि वहाँ आग है, यह एक अनुमान है। आग का ज्ञान हमें इसलिए प्राप्त हो गया, क्योंकि जब-जब हमने धुआँ देखा, तब-तब उसके साथ हमें आग भी दिखाई दी। अत: धुएँ और आग के बीच अनिवार्य सम्बन्ध (व्याप्ति) का हमें ज्ञान था। इस व्याप्ति के आधार पर ही हमने पहाड़ी में धुएँ को देखकर आग का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस उदाहरण में धुआँ हेतु, आग साध्य तथा पहाड़ी पक्ष को निर्धारित करते हैं। अत: अनुमान में तीन अवयव होते हैं हेतु, साध्य तथा पक्षा नैयायिकों ने अनुमान को परिभाषित करते हुए कहा है कि-हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्य सम्बन्ध के आधार पर पक्ष में साध्य का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुमान है।

न्याय दर्शन में अनुमान के प्रकारों का वर्गीकरण

    न्याय दर्शन में अनुमान के प्रकार बताने के लिए दो वर्गीकरण मिलते हैं-प्रथम वर्गीकरण के अनुसार अनुमान दो प्रकार के होते हैं-

  1. स्वार्थ अनुमान तथा
  2. परार्थ अनुमान

द्वितीय वर्गीकरण के अनुसार अनुमान तीन प्रकार के होते हैं-

  1. पूर्ववत्,
  2. शेषवत् तथा
  3. सामान्यतोदृष्ट अनुमान।

प्रथम वर्गीकरण के अन्तर्गत जो अनुमान स्वयं के लिए किया जाता है, उसे स्वार्थ अनुमान कहते हैं, किन्तु जो अनुमान पाँच अवयवों-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन

का प्रयोग करते हुए अन्य को ज्ञान प्राप्त कराने के लिए किया जाता है, उसे परार्थ अनुमान कहते हैं। द्वितीय वर्गीकरण के अन्तर्गत जब कारण का प्रत्यक्ष करके कार्य के होने का अनुमान किया जाता है, तो उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। जब कार्य का प्रत्यक्ष करके कारण के होने का अनुमान किया जाता है, तो उसे शेषवत् अनुमान कहते हैं तथा जब दो वस्तुओं में साहचर्य होता है तथा जिस साहचर्य को हम प्राय: देखते हैं तो एक वस्तु को देखकर दूसरी वस्तु का ज्ञान हो जाना सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता है; जैसेबैल के एक सींग को देखकर दूसरे सींग का सहज ही ज्ञान हो जाता है, क्योंकि दोनों में साहचर्य है। उपरोक्त दो वर्गीकरण के अतिरिक्त नव्य नैयायिकों ने अनुमान का एक तीसरा वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इस वर्गीकरण के अनुसार, अनुमान तीन प्रकार के होते हैं

  1. केवल अन्वयी,
  2. केवल व्यतिरेकी तथा
  3. अन्वय व्यतिरेकी अनुमान।

     जब हेतु और साध्य के बीच भावमूलक साहचर्य के आधार पर व्याप्ति स्थापना करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो इसे केवल अन्वयी अनुमान कहते हैं। जब अभावमूलक साहचर्य के आधार पर व्याप्ति स्थापना करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो इसे केवल व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। जब व्याप्ति स्थापना भावमूलक तथा अभावमूलक साहचर्य दोनों के आधार पर करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, तो इसे अन्वय व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं।

     परार्थ अनुमान को पाँच क्रमबद्ध वाक्यों में प्रकाशित किया जाता है। इन वाक्यों को अवयव कहा जाता है। चूंकि परार्थ अनुमान में पाँच क्रमबद्ध अवयव होते हैं, अत: इसे पंचअवयव अनुमान भी कहा जाता है। ये पाँच अवयव हैं-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन।

प्रतिज्ञा - इसके अन्तर्गत पक्ष में साध्य के होने का ज्ञान कराया जाता है। माना हम पहाड़ पर आग को सिद्ध करना चाहते हैं, तो ऐसा करने से पूर्व सर्वप्रथम हम अन्य के सामने वह स्पष्ट रूप से प्रकाशित करते हैं कि 'पहाड़ पर आग है। यह निर्देश ही प्रतिज्ञा है।।

हेतु - जिस हेतु से साध्य का अनुमान होता है, उस हेतु का वर्णन किया जाता है। उदाहरण के लिए पहाड़ पर आग को सिद्ध करने के लिए हम पर्वत पर उठ रहे धुएँ का वर्णन करते हैं।

दृष्टान्त - इसके अन्तर्गत व्याप्ति का उल्लेख एवं उसकी पुष्टि में दिए गए उदाहरण का उल्लेख किया जाता है। माना हमें यह सिद्ध करना है कि पहाड़ पर आग है, क्योंकि पहाड़ पर धुआँ है। हमें दृष्टान्त देना होगा कि रसोई में जब-जब हमने धुआँ देखा तब-तब आग थी, अतः धुएँ और आग के बीच अनिवार्य सम्बन्ध है।

उपनय - दृष्टान्त के माध्यम से हेतु और साध्य में व्याप्ति दिखाने के पश्चात् अब अपने पक्ष अर्थात् पहाड़ पर हेतु अर्थात् धुआँ दिखलाना ही उपनय है।

निगमन - इसके अन्तर्गत साध्य के सिद्ध होने का प्रतिपादन किया जाता है अर्थात् पर्वत पर आग है, हमें यही सिद्ध करना था, जो सिद्ध हो गया।

परार्थानुमान का उदाहरण

    पर्वत पर आग है-प्रतिज्ञा

    क्योंकि वहाँ धुआँ है-चिह्न (हेतु)

    जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ आग है-उदाहरण

    पर्वत पर धुआँ है-उपनय

    इसलिए पर्वत पर आग है-निगमन

     न्याय दार्शनिकों के अनुसार, परार्थ अनुमान का चौथा चरण उपनय ही तृतीय लिंग परामर्श कहा जाता है तथा इसी के द्वारा हमें साध्य का ज्ञान प्राप्त होता है। यह तृतीय लिंग परामर्श ही हमें अनुमान कराता है। नैयायिकों के अनुसार, परार्थ अनुमान का जो स्वरूप है इसमें प्रथम एवं पाँचवाँ तथा दूसरा एवं चौथा वाक्य समान है। अत: या तो प्रथम दो या अन्तिम दो कथनों को हटाया जा सकता है। इस प्रकार परार्थ अनुमान को स्वार्थ अनुमान में परिवर्तित किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य न्याय वाक्य तथा नैयायिकों के पंचअवयव अनुमान में भेद है। जहाँ पाश्चात्य न्याय वाक्य में तीन ही वाक्य होते हैं-

  1. वृहद् वाक्य,
  2. लघु वाक्य तथा
  3. निष्कर्ष,

वहीं नैयायिकों के पंच अवयव अनुमान में पाँच वाक्य हैं-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन।

     पंचअवयव अनुमान में जो दृष्टान्त है, वह पाश्चात्य न्याय वाक्य के वृहत वाक्य से मिलता-जुलता है। पाश्चात्य न्याय वाक्य में उदाहरण के लिए कोई स्थान नहीं है, परन्तु पंचअवयव अनुमान में 'निगमन' को सबल बनाने के लिए उदाहरण का प्रयोग होता है। पाश्चात्य न्याय वाक्य में निष्कर्ष का तीसरा स्थान रहता है परन्तु पंचअवयव अनुमान में निष्कर्षप्रतिज्ञा' के रूप में प्रथम वाक्य में रहता है और निगमन के रूप में पाँचवें वाक्य के स्थान पर रहता है। नैयायिकों का मत है कि पंचअवयव अनुमान में पाँच वाक्यों के रहने से निष्कर्ष अधिक सबल हो जाता है, परन्तु पाश्चात्य न्याय वाक्य में तीन ही वाक्य रहने से निष्कर्ष भारतीय न्याय की तरह सबल नहीं हो पाता।

व्याप्ति 

प्रमा प्रकार के ज्ञान के रूप में अनुमान प्रमाण की वैधता को चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं। अनुमान ज्ञान व्याप्ति पर आधारित है। व्याप्ति अनुमान का प्राण है। व्याप्ति के अभाव में अनुमान का ज्ञान सम्भव नहीं है। अनुमान की प्रणाली में व्याप्ति महत्त्वपूर्ण है। व्याप्ति से तात्पर्य है-हेतु एवं साध्य का व्यापक सम्बन्ध। यह हेतु एवं साध्य का अनौपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध है; जैसे-

जहाँ-जहाँ धुआँ है,

वहाँ-वहाँ आग होती है।

    उपरोक्त कथन एक व्याप्ति वाक्य है। यह वाक्य धुएँ (हेतु) एवं आग (साध्य) के मध्य साहचर्य सम्बन्ध को व्यक्त करता है। इस प्रकार हेतु एवं साध्य में जो स्वाभाविक अविच्छेद्य एवं व्यापक सम्बन्ध होता है, उसे व्याप्ति कहते हैं। व्याप्ति से सम्बन्धित पदों में एक व्याप्य होता है एवं दूसरा व्यापक। अत: व्याप्ति व्याप्य एवं व्यापक का स्वाभाविक सम्बन्ध है; जैसे-धुएँ एवं आग की व्याप्ति में धुआँ, व्याप्य एवं आग व्यापक है, क्योंकि जहाँ धुआँ होगा, वहाँ आग अवश्य होगी। संसार में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है जहाँ धुएँ के साथ अग्नि न हो, परन्तु यह अवश्य सम्भव है कि अग्नि तो हो, परन्तु धुआँ न हो। उदाहरण के लिए तपा हुआ आग का गोला। हेतु एवं साध्य में व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एवं नियत साहचर्य सम्बन्ध ही व्याप्ति है।

     व्याप्ति उपाधिरहित नियत साहचर्य सम्बन्ध है; जैसे- जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है, इसमें व्याप्ति अनौपाधिक है, क्योंकि साध्य (आग) बिना किसी उपाधि या शर्त के हेतु (धुएँ) का अनुगामी है, परन्तु आग एवं धुएँ का सम्बन्ध सोपाधिक है, क्योंकि आग धुएँ का अनुगामी तभी होगा, जब जलावन आर्द्र होगा। अत: यथार्थ व्याप्ति के लिए हेतु एवं साध्य के मध्य का सम्बन्ध अनौपाधिक होना चाहिए।

व्याप्ति के प्रकार

व्याप्ति के दो प्रकार होते हैं-

  1. सम व्याप्ति
  2. विषम व्याप्ति

सम व्याप्ति - जब समान विस्तार वाले दो पदों में व्याप्ति सम्बन्ध होता है अर्थात् व्याप्य से व्यापक का अनुमान सम्भव हो तथा व्यापक से व्याप्य का भी अनुमान सम्भव हो तभी दोनों पदों में व्याप्ति सम व्याप्ति कहलाती है; जैसे-अभिधेय और प्रमेय, जो अभिधेय है, वह प्रमेय है और जो प्रमेय है, वह अभिधेय है।

विषम व्याप्ति - न्यूनाधिक विस्तार वाले दो पदों में जब व्याप्ति का सम्बन्ध होता है तो उसे विषम व्याप्ति या असम व्याप्ति कहते हैं; जैसे-धुएँ एवं आग में। जहाँ धुआँ है, वहाँ आग हैयह सामान्य कथन सत्य है, परन्तु जहाँ आग है, वहाँ धुंआ हैयह कथन सत्य नहीं है। अत: यदि व्याप्य एवं व्यापक न्यूनाधिक विस्तार वाले हों, व्याप्य से व्यापक का अनुमान किया जा सके, परन्तु व्यापक से व्याप्य का अनुमान न किया जा सके तो दोनों में व्याप्ति विषम व्याप्ति होती है। व्याप्ति के विषय में सर्वव्यापी निर्णयों पर आगमनात्मक सम्बन्धों की उपलब्धि पर चार्वाक कहते हैं कि व्याप्ति अनुभव के दौरान हमारे मन में स्थापित हो जाने वाले साहचर्यों का फल है। इस प्रकार व्याप्ति-ग्रहण विशुद्ध मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसमें तार्किक अनिवार्यता का होना आवश्यक नहीं है। बौद्ध दार्शनिक अनुमान को ज्ञान का प्रमाण स्वीकार करते हैं तथा व्याप्ति को अनुमान का आधार मानते हैं।

व्याप्तिग्रहोपाय

न्याय दर्शन में एक विशिष्ट पद्धति से व्याप्ति ज्ञान की सम्भावना स्वीकार की जाती है। इस पद्धति में निम्नलिखित सोपान हैं

    अन्वय विधि,

    व्यतिरेक विधि,

    अन्वय एवं व्यतिरेक की संयुक्त विधि,

    व्यभिचाराग्रह,

    उपाधिनिरास,

    तर्क एवं

    सामान्य लक्षण प्रत्यक्षा

इनकी चर्चा इस प्रकार है-

अन्वय विधि - न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति ज्ञान का मुख्य साधन अतीत में दो पदार्थों का बार-बार एक साथ अनुभव किया जाना है जिसका कभी भी व्यभिचार न हो; जैसे-जब रसोईघर आदि स्थानों में धुएँ के साथ आग का प्रत्यक्ष बिना किसी अपवाद के अनेक बार होता है, तब हमारे मन में यह धारणा बन जाती है कि धुएँ एवं आग में सहचर सम्बन्ध है। यह प्रक्रिया अन्वय विधि है।

व्यतिरेक विधि - न्याय दर्शन के अनुसार व्याप्ति निश्चय के लिए अन्वय विधि के साथ व्यतिरेक विधि भी उपयोगी है। साध्य एवं हेतु का अभाव विषयक सहचर व्यतिरेक विधि कहलाती है।

अन्वय-व्यतिरेक की संयुक्त विधि - न्याय दर्शन अन्वय एवं व्यतिरेक की संयुक्त विधि का उपयोग व्याप्ति-ग्रहण में करता है। यह अन्वय विधि से धुएँ के साथ आग के साहचर्य की प्रकल्पना पर पहुँचता है। जब आग के अभाव में धुएँ का भी अभाव दिखाई देता है, तब अन्वय विधि से जिस प्रकल्पना की प्राप्ति होती है, वह व्यतिरेक विधि से प्रामाणिक सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार के अनुमान का आधार अन्वय एवं व्यतिरेक दोनों व्याप्तियाँ हैं। इसमें हेतु के उपस्थित रहने पर साध्य भी उपस्थित रहता है और साध्य के अनुपस्थित रहने पर हेतु भी अनुपस्थित रहता है; जैसे-

    जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है।

           पर्वत पर धुआँ है।

          अतः पर्वत पर आग है।

    जहाँ आग नहीं है, वहाँ धुआँ नहीं।

           पर्वत पर धुआँ है।

          अतः पर्वत पर आग है।

यह अन्वय व्यतिरेकी अनुमान है, क्योंकि इसका आधार अन्वय-व्याप्ति भी है और व्यतिरेकी व्याप्ति भी है।

व्यभिचाराग्रह - न्याय दार्शनिक अन्वय एवं व्यतिरेक विधि द्वारा स्थापित निष्कर्ष को पुष्ट करने के लिए 'व्यभिचाराग्रह' पर बल देते हैं। नैयायिकों के अनुसार सहचर दर्शन के साथ व्यभिचार का अदर्शन भी आवश्यक है। यद्यपि अन्वय एवं व्यतिरेक से यह ज्ञात हो जाता है कि जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है और जहाँ आग नहीं है, वहाँ धुआँ नहीं है। तथापि न्याय दार्शनिक इस बात पर भी बल देते हैं कि धुएँ और आग के सहचर का व्यभिचार भी किसी को ज्ञात नहीं होना चाहिए।

उपाधि निरास - चूँकि व्याप्ति हेतु एवं साध्य का अनौपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध है, इसलिए न्याय दार्शनिक व्याप्ति की यथार्थता हेतु उपाधि-निरास पर भी बल देते हैं। जो धर्म साध्य का व्यापक हो तथा हेतु का अव्यापक हो उसे उपाधि कहते हैं; जैसे-यदि कोई व्यक्ति कहता है कि लोहे का गोला धूम्रवान है, क्योंकि उसमें आग है तो यह अनुमान अप्रामाणिक होगा। अत: व्याप्ति के विषय में यह निश्चय कर लेना आवश्यक है कि कहीं स्थापित व्याप्ति में कोई उपाधि तो नहीं है।

तर्क - परवर्ती न्याय दर्शन में निषेधात्मक दृष्टान्तों पर बल देते हुए तर्क या अप्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा भी व्याप्ति को पुष्ट करने का प्रयास किया गया है; जैसे-जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है। यदि यह व्याप्ति वाक्य सत्य नहीं है तो उसका विरोधी वाक्य, कभी-कभी धुएँ के साथ आग नहीं रहती है; अवश्य सत्य होना चाहिए, परन्तु यह वाक्य सामान्य अनुभव के विरुद्ध है, क्योंकि इसका खण्डन कारण-कार्य नियम से हो जाता है। अत: जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ आग है यह कथन सत्य होगा। इस प्रकार नैयायिक विचारक तर्क द्वारा व्याप्ति की सत्यता को स्थापित करते हैं।

सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष

     अन्त में नैयायिक व्याप्ति ज्ञान के लिए सामान्य लक्षण प्रत्यक्ष का आश्रय लेते हैं। उनके अनुसार उपरोक्त सोपानों के अन्तर्गत केवल व्यक्तिगत घटनाओं का प्रत्यक्ष होता है अर्थात् हम यह जानते हैं कि केवल स्थल विशेषों पर ही धुएँ के साथ आग दिखाई देती है, सब स्थलों पर नहीं, परन्तु विशेष दृष्टान्तों के प्रत्यक्ष से सामान्य तर्कवाक्य, जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है, कैसे स्थापित हो सकता है?

    नैयायिक कहते हैं कि जिस समय नेत्र एवं धुएँ का सम्पर्क होने पर धुएँ का प्रत्यक्ष होता है, उसी समय संयुक्त समवाय सम्बन्ध से हमें धूम्रत्व का भी प्रत्यक्ष हो जाता है। चूँकि धूम्रत्व जाति नित्य है, धुएँ से कभी उसका वियोग नहीं हो सकता अत: एक ही स्थान पर धुआँ और धूम्रत्व तथा अग्नि एवं अग्नित्व को देखकर सभी अविद्यमान धूम्रों एवं अग्नियों का भी प्रत्यक्ष हो जाता है और हम जान लेते हैं कि जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है।

उपमान प्रमाण

     सादृश्यता के प्रत्यक्ष से नाम (संज्ञा) और नामी (संज्ञी) के सम्बन्ध का ज्ञान कराने वाले प्रमाण को उपमान कहते हैं। उदाहरणार्थ-हमें नाम का ज्ञान हो गया या तो कहीं पढ़ने से या सुनने से। माना हमें नीलगाय का ज्ञान हो गया कि नीलगाय वह पशु है जो गाय जैसी होती है, किन्तु अभी हमें नीलगाय का प्रत्यक्ष रूप में ज्ञान नहीं है कि वह कैसी होती है। हमने अभी सिर्फ उसके बारे में सुन रखा है कि वह गाय जैसी होती है। हम जंगल में गए वहाँ हमें गाय की तरह एक पशु दिखाई दिया और हमें ज्ञान हो गया कि यह नीलगाय है अर्थात् अब हमें नाम और नामी का ज्ञान हो गया। यह ज्ञान कैसे हुआ? हमने नीलगाय और गाय में सादृश्यता या समानता का प्रत्यक्ष किया फलतः हमें ज्ञात हो गया कि वह गाय की तरह दिखने वाला पशु नीलगाय है।

शब्द प्रमाण

    यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में शब्द एक महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। न्याय दर्शन में शब्द को प्रत्यक्ष, अनुमान एवं उपमान के बाद चौथा प्रमाण स्वीकार किया गया है। नैयायिकों के अनुसार, पद और वाक्य का अर्थ जानने से जो ज्ञान प्राप्त होता है, ज्ञान के उस प्रमाण कोशब्द प्रमाण' कहते हैं।

    न्याय दर्शन में पद को शक्त कहा गया है अर्थात् किसी विशेष पद से कोई विशेष अर्थ ही व्यक्त होता है। नैयायिकों की मान्यता है कि पदों में यह शक्ति ईश्वर द्वारा प्रदत्त है। नैयायिकों ने पदों के दो वर्गीकरण प्रस्तुत किए। प्रथम वर्गीकरण ज्ञान के स्रोत के आधार पर प्रस्तुत किया गया, जिसके अन्तर्गत वैदिक पद तथा लौकिक पदों को सम्मिलित किया गया तथा द्वितीय वर्गीकरण में ज्ञान के विषय के आधार पर दो पदों दृष्टा तथा अदृष्टा पदों को प्रस्तुत किया गया-

वैदिक पद- वेदों में उल्लिखित जो पद और वाक्य हैं, नैयायिकों के अनुसार इनकी रचना वैदिक मानव/ अलौकिक मानव/ ईश्वर द्वारा की गई है, इसलिए वेदों में उल्लिखित जो भी ज्ञान है, उसकी प्रामाणिकता पर सन्देह नहीं किया जा सकता। वेद ईश्वर के वचन हैं। अत: उनकी प्रामाणिकता पूर्ण, निश्चित एवं असंदिग्ध है।

लौकिक पद- नैयायिकों के अनुसार जिन लौकिक वाक्यों की रचना उनके विशेषज्ञों ने की है, केवल उन वाक्यों को ही प्रामाणिक माना जा सकता है। इन विशेषज्ञों को नैयायिकों ने 'आप्त पुरुष' की संज्ञा दी है; जैसेरोग, रोगों के कारण तथा रोगों के उपचार के बारे में जो धन्वन्तरि ने कहा है वह सत्य माना जाएगा, क्योंकि धनवन्तरि विशेषज्ञ थे, आप्त पुरुष थे। इसी प्रकार ज्योतिष के बारे में जो भी पराशर तथा जैमिनी आदि ने कहा है वह सत्य है, क्योंकि वे भी ज्योतिष के विशेषज्ञ अर्थात् आप्त पुरुष थे। नैयायिकों के अनुसार ये आप्त पुरुष परमात्मा एवं जीवात्मा दोनों का संयुक्त रूप हैं।

दृष्टा पद- यदि पदों या वाक्यों से प्राप्त होने वाले ज्ञान का प्रत्यक्ष किया जा सकता है, तो ऐसे पदों को दृष्टा पद कहते हैं; जैसे-इलाहाबाद में संगम है।

अदृष्टा पद- यदि शब्दों से (पदों से) प्राप्त होने वाले ज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं हो सकता हो तो ऐसे पदों को अदृष्टा पद कहते हैं। इसके अन्तर्गत पाप-पुण्य, नैतिक-अनैतिक, धर्म-अधर्म आदि से सम्बन्धित पदों को सम्मिलित किया जाता है; जैसेईश्वर सर्वशक्तिमान है, गरीबों की सहायता करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है आदि।

   नैयायिकों के अनुसार, शब्द अनित्य हैं, क्योंकि ये उत्पन्न तथा नष्ट होते हैं। शब्दों के अर्थ देने की जो योग्यता है उसे शब्द शक्ति कहते हैं। नैयायिकों के अनुसार शब्द शक्ति ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करती है, क्योंकि शब्द शक्ति ईश्वर द्वारा निश्चित की गई है। अगली सृष्टि में (प्रलय के बाद) हो सकता है कि ईश्वर किसी शब्द का दूसरा अर्थ निश्चित कर दे, अत: शब्द और अर्थ का सम्बन्ध अनित्य है, क्योंकि यह ईश्वर की इच्छा पर निर्भर करता है।

शब्द प्रमाण की आलोचना

    अनीश्वरवादियों के अनुसार शब्द उत्पन्न व नष्ट नहीं होते, बल्कि आवाज उत्पन्न और नष्ट होती है। अत: शब्द नित्य हैं, साथ ही शब्दों के अर्थ भी नित्य हैं। क्योंकि हम यह स्वीकार नहीं करते हैं कि ईश्वर जैसी कोई चीज है और वह चाहे तो शब्दों के अर्थ में परिवर्तन कर सकता है। शब्दों के अर्थ एक लम्बे समय तक भाषीय व्यवहार के प्रचलन के कारण निश्चित हुए हैं। इसलिए शब्दों के अर्थ परिवर्तित नहीं होते अर्थात् नित्य हैं।

शब्द बोध के आवश्यक घटक

    न्याय दर्शन के अनुसार, शब्द अक्षरों से बनता है जिससे अभिधा या लक्षणा से किसी पदार्थ का संकेत मिलता है। प्रत्येक शब्द का कुछ अर्थ होता है। अर्थ ही शब्द तथा उस पदार्थ के मध्य, जिसे यह धोतित करता है, सम्बन्ध बताता है। सार्थक शब्द को अथवा जिस शब्द में किसी अर्थ को व्यक्त करने की शक्ति होती है, पद कहते हैं। हम जैसे ही पद के अन्तिम अक्षर को सुनते हैं, हमें उसके अर्थ का ज्ञान हो जाता है। नैयायिकों के अनुसार पद से व्यक्ति, उसकी आकृति और उसकी जाति तीनों की अलग-अलग मात्रा में जानकारी मिलती है। प्रत्येक अर्थपूर्ण वाक्य का अर्थ समझने के लिए निम्नलिखित चार शर्तों का पूरा होना जरूरी है

  1. आकांक्षा
  2. योग्यता
  3. सन्निधि
  4. तात्पर्य ज्ञान

आकांक्षा - पदों की परस्पर अपेक्षा को 'आकांक्षा' कहते हैं। यदि दूसरे पद का उच्चारण किए बिना किसी पद का अर्थ ज्ञान न हो तो इन दोनों पदों क परस्पर सम्बन्ध को परस्पर अपेक्षा कहते हैं; जैसे-दरवाजा खुला है तात्पर्य है कि अन्दर आ जाओ से सार्थक बन जाता है एवं आकांक्षा पूरी हो जाती है।

योग्यता - पदों के सामंजस्य को योग्यता कहते हैं अर्थात् वाक्य के पदों द्वारा जिन वस्तुओं का अर्थबोध होता है, उनके विरोध के अभाव को योग्यता कहते हैं; जैसे-'पानी से कपड़े सुखा लो', इन पदों में योग्यता का अभाव है, क्योंकि कपड़े धूप या हवा से सुखाते हैं, पानी से नहीं।

सन्निधि - वाक्य का अर्थबोध कराने की तीसरी शर्त सन्निधि है, पदों का व्यवधान रहित पूर्वापद क्रम से उच्चारण सन्निधि है। यदि किसी वाक्य के विभिन्न पदों के उच्चारण में काफी समय का अन्तराल होगा या उन्हें पर्याप्त विलम्ब के साथ बोला जाएगा तो बुद्धि द्वारा इन पदों के पारस्परिक सम्बन्ध को ग्रहण करना, परिणामस्वरूप उनका अर्थबोध असम्भव होगा; 'एक गाय लाओ' इन तीनों शब्दों को अलग-अलग लिखने से वाक्य अर्थपूर्ण नहीं होगा।

तात्पर्य ज्ञान - नव्य न्याय दर्शन में शब्द बोध के लिए 'तात्पर्य ज्ञान' भी आवश्यक माना गया है। वक्ता के अभिप्राय को समझना तात्पर्य ज्ञान है। कुछ पद अनेकार्थक होते हैं। किसी पद का किस समय कौन-सा अर्थ अभीष्ट है? यह केवल उस प्रसंग के ज्ञान से ज्ञात होता है जिसमें वह पद बोला जाता है। वाक्य के अर्थ निर्धारण में वक्ता के तात्पर्य को समझना आवश्यक है। इन शर्तों के पूरा न होने पर शब्दबोध सम्भव नहीं होगा।

हेत्वाभास

    न्याय दर्शन में अनुमान को यथार्थ ज्ञान की प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। इसके अन्तर्गत हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्य, सार्वभौम तथा शर्तरहित सम्बन्ध के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त कर लिया जाता है। किन्तु कभी-कभी जब दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में जो दोष पैदा हो जाते हैं, तो अनुमान के दोष को 'हेत्वाभास' कहते हैं। हेत्वाभास का अर्थ होता है कि वस्तु देखने में तो हेतु के समान है, परन्तु वास्तव में हेतु नहीं है। भारतीय दर्शन में अनुमान का सम्बन्ध वास्तविकता से है, क्योंकि इसके मूल में प्रत्यक्ष होता है अत: यहाँ अनुमान में जो दोष पाया जाता है, वह भी वास्तविक है। नैयायिकों ने दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में दोष दिखाने के लिए तर्क की जो विधि अपनाई है, वह तो सही है, किन्तु तथ्य सही नहीं है। परिणामस्वरूप अनुमान में जो दोष उत्पन्न होते हैं, वे वास्तविक हैं न कि आकारिक। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य दर्शन में निगमनात्मक अनुमान के दोष आकारिक हैं, क्योंकि निगमन का सम्बन्ध तर्कवाक्यों की सत्यता या असत्यता से न होकर विधि की सत्यता या असत्यता से है। यदि आधार वाक्यों से निष्कर्ष तर्कत: निगमित हो रहे हैं तो विधि सत्य है अन्यथा असत्य। जबकि भारतीय दर्शन में नैयायिकों के अनुमान के समस्त दोष तथ्यात्मक वस्तुपरक असत्यता से उत्पन्न होते हैं, अत: अनुमान के समस्त दोष वस्तुपरक हैं न कि आकारिक। नैयायिकों के अनुसार दुष्ट हेतु के कारण अनुमान में पाँच प्रकार के वास्तविक दोष उत्पन्न होते हैं-

  1. सव्यभिचार
  2. विरुद्ध
  3. सत्प्रतिपक्ष
  4. असिद्ध (साध्य सम)
  5. बाधित

सव्यभिचार - यह दोष अनुमान में तब आता है, जब हेतु व्यभिचारी (अपवाद) हो। व्यभिचारी हेतु उसे कहते हैं, जिस हेतु का व्याप्ति के साथ सम्बन्ध नहीं है। उदाहरणार्थ '

सभी द्विपद बुद्धिमान होते हैं।

हंस द्विपद है।

अतः हंस बुद्धिमान है (अनुमान में दोष)

विरुद्ध - यदि हेतु साध्य का खण्डन करने वाला है तो अनुमान में जो दोष आ जाता है. ऐसे दोष को विरुद्ध कहते हैं। उदाहरणार्थ

'जो-जो उत्पन्न होते हैं, वे नित्य होते हैं। '

शब्द उत्पन्न होते हैं

अतः शब्द नित्य हैं (अनुमान का दोष)

उपरोक्त तथ्यजो-जो उत्पन्न होते हैं, वे नित्य होते हैं' दोषपूर्ण है, क्योंकि उत्पन्न होना नित्यता का खण्डन करता है। अतः यहाँ हेतु साध्य का खण्डन करने वाला है। परिणामस्वरूप इस तथ्य के आधार पर किया गया यह अनुमान किशब्द नित्य है' दोषपूर्ण हो गया।

सत्प्रतिपक्ष - जिस अनुमान के हेतु दोष को हम किसी अन्य अनुमान द्वारा दिखा सकते हैं तो ऐसे दुष्ट अनुमान के दोष को सत्प्रतिपक्ष कहते हैं। उदाहरणार्थ इस दोष को समझने के लिए दो अनुमान लेने पड़ेंगे

    प्रथम अनुमान

'सभी अदृश्य पदार्थ नित्य होते हैं। '

शब्द अदृश्य हैं

अतः शब्द नित्य हैं।

    द्वितीय अनुमान

'जो-जो उत्पन्न होता है वह अनित्य होता है। '

शब्द उत्पन्न होते हैं

अत: शब्द अनित्य हैं (सही अनुमान)

यहाँ द्वितीय अनुमान दिखाकर हमने प्रथम वाले अनुमान को गलत सिद्ध कर दिया।

असिद्ध (साध्य सम) - यदि हेतु वास्तविक ही न हो तब उस हेतु के आधार पर जो अनुमान किया जाता है तो ऐसा अनुमान दोषपूर्ण हो जाता है, अत: अनुमान के इस दोष को असिद्ध कहा जाता है। उदाहरणार्थ

'आकाश कमल कमल है। '

सभी कमल सुगन्धित होते हैं

अत: आकाश कमल सुगन्धित है।

उपरोक्त उदाहरण में हेतु (आकाश कमल) वास्तविक नहीं है, अत: इस हेतु के आधार पर किया गया अनुमान दोषपूर्ण है।

बाधित - यदि किसी अनुमान के दोष को अन्य प्रमाण द्वारा दिखा सकें तो ऐसे अनुमान के दोष को बाधित कहते हैं। उदाहरणार्थ

'सभी द्रव्य ठण्डे होते हैं। '

अग्नि द्रव्य है।

अतः अग्नि ठण्डी होती है।

इन अनुमान के दोष को हम प्रत्यक्ष द्वारा दिखा सकते हैं कि सभी द्रव्य ठण्डे नहीं होते हैं।

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