योग दर्शन की प्रमाण मीमांसा

भारतीय दर्शन

Home Page

Syllabus

Question Bank

Test Series

About the Writer

योग दर्शन की प्रमाण मीमांसा

योग दर्शन की प्रमाण मीमांसा

पतंजलि द्वारा प्रतिपादित प्रमाण का सिद्धान्त

पतंजलि ने अपने योग दर्शन में तीन प्रकार के प्रमाण की व्याख्या की है- 

  1. प्रत्यक्ष प्रमाण 
  2. अनुमान प्रमाण 
  3. आगम (शब्द) प्रमाण 

प्रत्यक्ष प्रमाण

     वस्तु के साथ इन्द्रिय संयोग होने से जो उसका ज्ञान होता है, उसी को प्रत्यक्ष कहते हैं। यह प्रमाण सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। यदि हमें सामने आग जलती हुई दिखाई दे अथवा हम उसके ताप का अनुभव करें, तो यह इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि आग जल रही है। इस ज्ञान में पदार्थ और इन्द्रिय का प्रत्यक्ष सम्बन्ध होना चाहिए। प्रत्यक्ष ज्ञान (प्रमाण) सन्देहरहित है। यह यथार्थ और निश्चित होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान को किसी अन्य ज्ञान के द्वारा प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं होती। इसका कारण यह है कि प्रत्यक्ष स्वयं निर्विवाद है, इसलिए कहा गया है कि "प्रत्यक्षे किं प्रमाणम्। " प्रत्यक्ष प्रमाण में विषयों का साक्षात्कार हो जाता है। प्रत्येक प्रत्यक्ष में बुद्धि की क्रिया समाविष्ट है। जब कोई वस्तु आँख से संयुक्त होती है, तब आँख पर विशेष प्रकार का प्रभाव पड़ता है, जिसके फलस्वरूप मन विश्लेषण एवं संश्लेषण करता है। इन्द्रिय और मन का व्यापार बुद्धि को प्रभावित करता है। बुद्धि में सत्व गुण की अधिकता रहने का कारण वह दर्पण की तरह पुरुष के चैतन्य को प्रतिबिम्बित करती है, जिसके फलस्वरूप बुद्धि की अचेतन वृत्ति प्रकाशित होकर प्रत्यक्ष ज्ञान के रूप में परिणत हो जाती है।

पतंजलि के अनुसार, प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है-

  1. निर्विकल्प प्रत्यक्ष और
  2. सविकल्प प्रत्यक्ष।

     निर्विकल्प प्रत्यक्ष में केवल वस्तुओं की प्रतीति मात्र होती है। इस प्रत्यक्ष में वस्तुओं की प्रकारता का ज्ञान नहीं रहता है। इस प्रत्यक्ष विश्लेषण और संश्लेषण के जो मानसिक कार्य हैं, पूर्व की अवस्था है। निर्विकल्प प्रत्यक्ष में अपनी अनुभूति को शब्दों के द्वारा प्रकाशित करना सम्भव नहीं है। जिस प्रकार शिशु अनुभूति को शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता है, उसी प्रकार निर्विकल्प प्रत्यक्ष को शब्दों में प्रकाशित करना सम्भव नहीं है। इसलिए निर्विकल्प प्रत्यक्ष को शिशु एवं गूंगे व्यक्ति के ज्ञान की तरह माना गया है। सविकल्प प्रत्यक्ष उस प्रत्यक्ष को कहा जाता है, जिसमें वस्तु का स्पष्ट और निश्चित ज्ञान होता है। इसमें वस्तु के गुण और प्रकार का भी ज्ञान होता है।

अनुमान प्रमाण

लक्षण देखकर जिस किसी वस्तु का ज्ञान होता है, उसे अनुमान कहते हैं। यहाँ अनुमान दो प्रकार के माने गए हैं

  1. वीत अनुमान
  2. अवीत अनुमान

वीत अनुमान

वीत अनुमान उसे कहते हैं, जो पूर्णव्यापी भावात्मक वाक्य पर अवलम्बित रहता है। वीत अनुमान के दो भेद माने गए हैं-

  1. पूर्ववत् अनुमान
  2. सामान्यतोदृष्ट अनुमान

पूर्ववत् अनुमान उसे कहते हैं, जो दो वस्तुओं के बीच व्याप्ति-सम्बन्ध पर आधारित है। धुआँ और आग दो ऐसी वस्तुएँ हैं, जिनके बीच व्याप्ति-सम्बन्ध निहित है। इसलिए धुआँ को देखकर आग का अनुमान किया जाता है।

सामान्यतोदृष्ट अनुमान वह अनुमान, जो हेतु और साध्य के बीच व्याप्ति-सम्बन्ध पर निर्भर नहीं करता है, सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता है। इस अनुमान का उदाहरण निम्नांकित है-

आत्मा के ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष किसी व्यक्ति को नहीं होता है, परन्तु हमें आत्मा के सुख, दुःख, इच्छा इत्यादि गुणों का प्रत्यक्षीकरण होता है। इन गुणों के प्रत्यक्षीकरण के आधार पर आत्मा का ज्ञान होता है। ये गुण अभौतिक हैं। अत: इन गुणों का आधार भी अभौतिक सत्ता होगी। वह अभौतिक सत्ता आत्मा ही है।

अवीत अनुमान

पतंजलि के प्रमाण सिद्धान्त के अन्तर्गत अनुमान प्रमाण का दूसरा प्रकार अवीत अनुमान है। अवीत अनुमान उस अनुमान को कहा जाता है, जोकि पूर्वव्यापी निषेधात्मक वाक्य पर आधारित रहता है। इस दर्शन में भी पंचावयव अनुमान की प्रधानता दी गई है।

आगम (शब्द) प्रमाण

    पतंजलि ने शब्द को तीसरा प्रमाण माना है। किसी विश्वसनीय व्यक्ति से प्राप्त ज्ञान को शब्द कहा जाता है। विश्वास योग्य व्यक्ति के कथनों को 'आप्त वचन' कहा जाता है। आप्त वचन ही शब्द है। शब्द दो प्रकार के होते हैं

  1. लौकिक शब्द
  2. वैदिक शब्द

    साधारण विश्वसनीय व्यक्तियों के आप्त वचन को लौकिक शब्द कहा जाता है। श्रुतियों वेद के वाक्य द्वारा प्राप्त ज्ञान को वैदिक शब्द कहा जाता है। लौकिक शब्दों को स्वतन्त्र प्रमाण नहीं माना जाता, क्योंकि वे प्रत्यक्ष और अनुमान पर आश्रित हैं। इसके विपरीत वैदिक शब्द अत्यधिक प्रामाणिक हैं, क्योंकि वे शाश्वत सत्यों का प्रकाशन करते हैं। वेद में जो कुछ भी कहा गया है, वह ऋषियों की अन्तर्दृष्टि पर आधारित है। वैदिक वाक्य स्वतः प्रमाणित है। वेद अपौरुषेय हैं। वे किसी व्यक्ति-विशेष की रचना नहीं हैं, जिसके फलस्वरूप वेद लौकिक शब्द के दोषों से मुक्त हैं। वैदिक शब्द सभी प्रकार के वाद-विवादों से मुक्त हैं। इस प्रकार, पतंजलि प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द को ज्ञान का साधन मानता है।

--------


Comments

Popular posts from this blog

वेदों का सामान्य परिचय General Introduction to the Vedas

वैदिक एवं उपनिषदिक विश्व दृष्टि

मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा