सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi )
सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi ) |
सन्त कवि भीमा भोई ( Bhima Bhoi )
उड़ीसा के एक प्रतिभाशाली काँधा आदिवासी कवि और समाज सुधारक
सन्त कवि भीमा भोई जी के जीवन के संबंध में ऐतिहासिक सामग्री बहुत कम उपलब्ध है । इनका
जीवन कष्ट और निर्धनता में बीता और अपने जीवन में इन्होंने बहुत अपमान और शारीरिक
यातना सही । महिमा धर्म के प्रवर्तक महिमा गोसाई से इनकी मुलाकात हुई और इन्होंने इस
धर्म की दीक्षा ली । यह मुलाकात कुछ वैसी ही कही जा सकती है, जिस
तरह रामकृष्ण परमहंस से नरेंद्रनाथ दत्त ( विवेकानंद ) की हुई थी । भीमा भोई स्कूल
जाने का अवसर न पाकर अशिक्षित थे, पर उनमें एक स्वतःस्फूर्त
विवेक था । दयानंद सरस्वती की ही तरह मूर्ति पूजा के विरोधी, पर वेद को भी नहीं मानते थे । ये जातिवाद के प्रचंड विरोधी थे । इनकी
दृष्टि में परम ब्रह्म एक है, वह अलख, निरंजन
और निराकार है । इनके अनुसार, शून्य से ओम, ओम से शब्द,
रूप, प्रकाश, जल और
दुनिया की उत्पत्ति हुई है । इन्होंने बोलनगीर जिले के खलियापालि में एक आश्रम की
स्थापना की और बौद्ध शून्यवाद और हिंदू धर्म की ब्रह्म की अवधारणा के बीच सामंजस्य
स्थापित किया । इन्होंने महिमा धर्म में गृहस्थी और स्त्री को बराबर की मान्यता
दिलाई । बाह्याडंबर, चंदन लेप, जप,
तिलक, कंठी, जनेऊ,
तीर्थयात्रा, हवन, एकादशी
व्रत और अन्य धार्मिक रूढ़ियों का इन्होंने पुरजोर विरोध किया । ये पुरी के
जगन्नाथ मंदिर को अंधविश्वास का स्रोत मानते थे । महिमा धर्म के लोग वर्ण व्यवस्था
के विरोधी थे । भीमा भोई ने इस संघर्ष को आगे बढ़ाया । उड़िया साहित्य-संस्कृति पर
पंच सखाओं का गहरा प्रभाव है यह प्रभाव भीमा पर भी । इसलिए इन्होंने पुरोहितवाद का
प्रबल विरोध किया । इनकी प्रमुख रचनाएँ - स्तुति चिंतामणि और भजनमाला है । 1971
में भीमा भोई ग्रंथावली प्रकाशित हुई । आज भी भीमा भोई के भजन आदिवासी क्षेत्रों
में तन्मयता से गाए जाते हैं । उड़ीसा की आत्मा की परिचायक उनकी ये दो पंक्तियाँ
बहुत लोकप्रिय हुई - संसार के उद्धार के लिए मुझे नरक में भी रहना पड़े तो मुझे
स्वीकार है ।'
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