विवेकानन्द के धर्मिक अनुभव

विवेकानन्द के धर्मिक अनुभव 

विवेकानन्द के धर्मिक अनुभव 

     अधिकांश दार्शनिकों के अनुसार धर्मपरायण शक्तियों को किसी अलौकिक सत्ता को जो विशेष प्रकार का अनुभव प्राप्त होता है, उसे 'धार्मिक अनुभव' कहा जाता है । किसी अतीन्द्रिय सत्ता में विश्वास धर्म का अनिवार्य तत्त्व है और प्रत्येक उपासक या धर्मपरायण व्यक्ति किसी-न-किसी रूप में इस सत्ता का अनिवार्य रूप से अनुभव करता है, जिसकी अभिव्यक्ति प्रार्थना, जप-तप, पूजा-पाठ आदि धार्मिक कर्मकाण्ड के माध्यम से होती है। अतीन्द्रिय सत्ता से सम्बन्धित उसके इसी अनुभव को धार्मिक अनुभव कहा जाता है।

     अलौकिक सत्ता धार्मिक अनुभव का अनिवार्य तत्त्व है, जो इसे अन्य प्रकार के अनुभवों से पृथक् करता है। धर्मपरायण शक्ति अनिवार्य रूप से किसी अतीन्द्रिय सत्ता को ही अपना आराध्य मानती है। वह अत्यन्त निष्ठापूर्वक इस सत्ता की उपासना करती है और अपने आप को इसी पर पूर्णतः निर्भर मानती है। विवेकानन्द के अनुसार, मानव के भाग्य को दिशा-निर्देश देने वाली शक्तियों में शायद सबसे अधिक प्रभाव धर्म का ही रहता है। धर्म जीवन का एक अनिवार्य पक्ष है। विवेकानन्द के अनुसार, धार्मिकता धर्मबोध एवं धार्मिक चेतना है। यह वह विशेष प्रकार का आन्तरिक अनुभव है, जिसकी प्रत्येक प्रकार की अभिव्यक्ति 'धर्म' का स्वरूप स्पष्ट करती है। धार्मिक अनुभव के विश्लेषण में उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि की झलक मिलती है। इस अनुभव का विवरण पूर्णतया मनोवैज्ञानिक प्रतीत होता है। धर्म की अनिवार्यता को स्वीकारने के अनुरूप के यह कहते हैं कि धार्मिक अनुभव एवं धार्मिक चेतना सार्वभौमिक है, जो प्रत्येक व्यक्ति में है। उनके अनुसार जो अपने को नास्तिक कहते हैं, उनमें भी धार्मिक अनुभव विद्यमान होता है। धार्मिक अनुभव में मानसिकता के तीनों अंश विद्यमान हैं। ये तीन अंश हैं - ज्ञानात्मक, भावनात्मक तथा क्रियात्मक। ये तीनों प्रत्येक धार्मिक मानसिकता में समान मात्रा में विद्यमान नहीं रहते हैं। जिसमें धर्म के जिस अंश की प्रधानता होती है, उस धर्म को उसी के अनुरूप चित्रित किया जाता है।

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