जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांस / Epistemology of Jain Philosophy

    जैन दर्शन ज्ञान के दो भेद मानते हैं - परोक्ष ज्ञान तथा अपरोक्ष ज्ञान। इंद्रियों को मन के द्वारा जो बाह्य एवं अभ्यंतर विषयों का ज्ञान होता है वह अनुमान की अपेक्षा अवश्य अपरोक्ष होता है। किंतु ऐसे ज्ञान को पूर्णतया अपरोक्ष नहीं माना जा सकता है क्योंकि यह भी इंद्रिय या मन के द्वारा होता है। इस व्यवहारिक अपरोक्ष ज्ञान के अतिरिक्त पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान भी हो सकता है जिसकी प्राप्ति कर्म बंधन के नष्ट होने पर ही होती है। परमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान के तीन भेद हैं - अवधि, मनः पर्याय तथा केवल।

  1. अवधि ज्ञान - इंद्रिय द्वारा अदृष्ट दूर स्थित पदार्थों का ज्ञान अवधि ज्ञान कहलाता है। यह अतींद्रिय है। काल से सीमित होने के कारण ही यह अवधि ज्ञान कहलाता।
  2. मनः पर्याय - जब मनुष्य राग, द्वेष आदि मानसिक बाधाओं पर विजय प्राप्त कर लेता है तब अन्य व्यक्तियों के वर्तमान तथा भूत विचारों को जान सकता है1 ऐसे ज्ञान को मनः पर्याय ज्ञान कहते हैं। अवधि और मनः पर्याय दोनों ज्ञान सीमित हैं।
  3. केवल ज्ञान - केवल ज्ञान का अर्थ है - शुद्ध सर्वज्ञ ज्ञान। जब आत्मा के समस्त आवरणीय कर्मों का आत्यंतिक नाश हो जाता है तब आत्मा अपने शुद्ध सर्वज्ञ रूप में प्रकाशित होता है। इसे 'केवल ज्ञान' कहते हैं। यही शुद्ध अपरोक्ष ज्ञान है जिसे हेमचंद्राचार्य ने आत्मा के ‘स्वरूप आविर्भाव' की संज्ञा दी है और जिसे आचार्य गुणरत्न ने ‘पारमार्थिक प्रत्यक्ष’ कहा है। यह मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है।

लौकिक ज्ञान 

मति और श्रुत - साधारणतः मतिज्ञान उसे कहते हैं जो इंद्रिय तथा मन के द्वारा प्राप्त होता है। इस प्रकार मति के अंतर्गत व्यवहारिक अपरोक्ष ज्ञान (बाह्य) तथा आंतर (प्रत्यक्ष, स्मृति), प्रत्यभिज्ञा, अनुमान सभी आ जाते हैं। श्रुत ‘शब्द ज्ञान' को कहते हैं। जैन तीर्थंकरों के उद्देश्यों एवं जैन आगमों से प्राप्त ज्ञान श्रुत ज्ञान है। यह शास्त्रनिबद्ध ज्ञान है अर्थात आप्त पुरुषों द्वारा रचित शास्त्रों से जो मतिपूर्वक ज्ञान प्राप्त होता है वह श्रुत ज्ञान है। इसमें मति कारण रूप में होता है और शुद्ध ज्ञान कार्य रूप में क्योंकि शब्द श्रवण रूप व्यापार मति ज्ञान है और तदनंतर उत्पन्न होने वाला ज्ञान और श्रुत ज्ञान है ।

प्रत्यक्ष प्रमाण 

जैन दर्शन में वास्तविक प्रत्यक्ष परमार्थिक प्रत्यक्ष है जिसकी प्राप्ति हेतु किसी साधन की आवश्यकता नहीं होती। इसमें विषय का सीधा प्रत्यक्ष होता है। यह कर्म जन्य बाधाओं के दूर होने पर संभव होता है। हेतु एक व्यापक साधना पद्धति विकसित की गई है। जैन दर्शन में एक अन्य प्रत्यक्ष की भी चर्चा की गई है। वह व्यवहारिक प्रत्यक्ष ज्ञान है एवं अन्य विषय के साथ होने पर प्राप्त होता है। उसमें से साधक को गुजरना पड़ता है जो इस प्रकार हैं –

  1. अवग्रह - इंद्रिय और विषय का संघर्ष होने पर नाम आदि की विशेष कल्पना से रहित सामान्य मात्रा का ज्ञान व ग्रह है जैसे नेत्र का पुष्प से संघर्ष होने पर प्रतीत होना कि कोई वस्तु है, किंतु यह ज्ञात ना हो ना कि वह क्या है अवग्रह है। अवग्रह के भी भेद होते हैं - व्यंजनावग्रह और अर्थावग्रह । व्यंजनावग्रह अर्थ और इंद्रियों के संयोग के पूर्व का अव्यक्त ज्ञान है। इसमें चेतनावर्धक विषय का प्रभाव इंद्रियों की परिधिस्थ उपान्तों पर पड़ता है जिससे विषयी विषय के संपर्क में आता है । अर्थावग्रह में चेतना को उत्तेजना मिलती है और एक संवेदना का अनुभव होता है। इससे व्यक्ति को विषय का ज्ञान मात्र होता है ।
  2. ईहा - अवगृहीतार्थ को विशेष रूप से जानने की इच्छा 'ईहा' है। इसमें मन प्रमेय विषय का विवरण जानने की इच्छा करता है। वह अन्य विषयों के साथ उसका सादृश्य एवं विभेद जानना चाहता है, गुणों को जानने की इच्छा होना 'ईहा' है। जैसे मन में पुष्प के गुणों को जानने की इच्छा ‘ईहा’ है। 
  3. अवाय - ईहितार्थ का विशेष निर्णय 'अवाय' है। इस अवस्था में दृश्य विषय के गुणों का निश्चायक एवं निर्णायक ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे - यह रक्त कमल है, दृश्य विषय का यह निश्चायक अज्ञान 'आवाय' है।
  4. धारणा - इस अवस्था में दृश्य विषय का पूर्ण ज्ञान हो जाता है और इसका संस्कार जीव के अंतःकरण में अंकित हो जाता है। कालांतर में इसी से स्मृति उत्पन्न होती है। अतः जैन दार्शनिक स्मृति के हेतु के रूप में धारणा की व्याख्या करते हैं।

उपर्युक्त चारों अवस्थाओं से संक्रमित होने के उपरांत प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त होता है।

अनुमान प्रमाण 

    जैन दार्शनिक अनुमान को भी यथार्थ ज्ञान का प्रमाण मानते हैं। वे सर्वप्रथम चार्वाक दार्शनिकों की अनुमान प्रमाण खण्डन वृत्ति की आलोचना करते हैं और यथार्थ ज्ञान के प्रमाण के रूप में अनुमान के प्रमाणत्व को स्थापित करते हैं। जैन दार्शनिकों ने दिखाया कि चार्वाक विचारक व्याप्ति का निराकरण कर के अनुमान का खंडन करना चाहते हैं किंतु ‘प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है अनुमान प्रमाण नहीं है' उनके ये कथन उनकी इस आस्था की ओर संकेत करते हैं कि कतिपय दृष्टांतों में व्याप्ति संभव है। इस प्रकार चार्वाकों द्वारा व्याप्ति का निराकरण तथा उसके आधार पर अनुमान के प्रमाण पत्र का निषेध अनुचित है।

    अनुमान एक परोक्ष ज्ञान है जिसमें हेतु के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त होता है। जैसे पर्वत पर धुएं को देखकर वहाँ का ज्ञान प्राप्त करना अनुमान से ही संभव है। जैन दार्शनिक भी अनुमान के दो भेद स्वीकार करते हैं - स्वार्थ और परार्थ। अपने संशय को दूर करने के लिए किया गया अनुमान स्वार्थ अनुमान और दूसरों की संशय निवृत्ति के लिए व्यवस्थित तरीके से व्यक्त किया गया अनुमान परार्थानुमान है। जहाँ जैन तर्कशास्त्री सिद्धसेन दिवाकर न्याय दार्शनिकों के समान ही अनुमान में 5 अवयव स्वीकार करते हैं - प्रतिज्ञा, हेतु, दृष्टांत, उपनय और निगमन। भद्रबाहु अनुमान में दशावयव मानते हैं प्रतिज्ञा, प्रतिज्ञा विभक्ति, हेतु, हेतु विभक्ति, विपक्ष, विपक्ष प्रतिषेध, दृष्टांत, आशंका, आशंका प्रतिषेध और निगमन।

शब्द प्रमाण 

    शब्द प्रमाण भी जैन दर्शन में एक परोक्ष प्रमाण है। ज्ञान शब्द प्रमाण से ही प्राप्त होता है जो ज्ञान शब्द के द्वारा प्राप्त हो किंतु प्रत्यक्ष के विरुद्ध हो वह शब्द प्रमाण है। जैन दर्शन में शब्द प्रमाण के दो भेद किए जाते हैं - लौकिक और शास्त्र । विश्वसनीय व्यक्तियों के शब्दों एवं वचनों से प्राप्त ज्ञान और शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त ज्ञान को जैन दार्शनिक शास्त्रज ज्ञान कहते है।

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