चार्वाक दर्शन एक परिचय An Introduction to Charvaka Philosophy
चार्वाकदर्शन - लोकायतदर्शन
इस मत का प्रवर्तक बृहस्पति हुआ है । बृहस्पति का
विश्वास था, कि जो कुछ है, यही लोक
है, इसलिये इसी की चिन्ता करनी चाहिये, और इसी को सुखदायी बनाना चाहिये, परलोक के लिये
व्यर्थ व्यय और व्यर्थ परिश्रम नहीं उठाना चाहिये । इस विश्वास को लेकर उसने अर्थ
और काम को ही पुरुषार्थ मानकर धर्म और मोक्ष के विषयों का खण्डन किया है ।
प्रमाण निर्णय
प्रत्यक्ष ही एक प्रमाण है, क्योंकि यथार्थज्ञान के साधन केवल इन्द्रिय ही हैं । इन्द्रिय पांच बाहर
हैं, और एक अन्दर । नेत्र, श्रोत्र,
घ्राण, रसना और त्वचा बाह्य इन्द्रिय हैं,
और मन अन्तरिन्द्रिय है । बाह्य इन्द्रियों से बाहर का अनुभव होता
है, और अन्तरिन्द्रिय से अन्दर का । नेत्र से रूप, श्रोत्र से शब्द, घ्राण से गन्ध, रसना से रस और त्वचा से स्पर्श का अनुभव होता है और मन से सुख दुःख का वा
इच्छा, द्वेष, प्रयत्न और ज्ञान का । बस इतना ही अनुभव है, यहां
तक ही हमारे इन्द्रियों का साक्षात् सम्बन्ध है, इसी को
प्रत्यक्ष कहते हैं, यही प्रमाण है । जिस ज्ञान में इन दोनों
प्रकार के इन्द्रियों में से किसी का भी साक्षात सम्बन्ध नहीं, वह प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि सीधा सम्बन्ध न होने के कारण वह एक
सम्भावनामात्र है न कि निश्चित यथार्थज्ञान, अतएव वह प्रमाण
नहीं ।
अनुमान का सारा निर्भर इस बात पर है, कि हम जिन दो पदार्थों को एकसाथ देखते रहते हैं , उनमें
से एक को देखकर दूसरे का उसके साथ होना निश्चय कर लेते हैं, जैसे
धूम को देखकर अग्नि का निश्चय कर लेते हैं । पर यह निर्भर कैसा सच्चा है, भला जब अग्नि एक अलग पदार्थ है, और धूम एक अलग,
तो फिर यह नियम कैसे हो सकता है, कि जहां धूम
है, वहां अग्नि अवश्य होगी । जिन पदार्थों के मेल से घूम बना
है, वह यदि बिना अग्नि के उसी भान्ति किसी तरह मिल जाएं वा
मिला दिये जाएं, तो बिना अग्नि के धूम उत्पन्न होजाएगा ।
अथवा अग्निजन्य धूम की ही बन्द करके वहां लेजाकर छोड़दें, जहां
अग्नि नहीं, तो वह धूम बिना अग्नि के होगा । लो हम तुम को एक
सुगम रीति बतलाते हैं - धूम को एक बड़ी मशक में भरलो, और
अधिक सर्दी गर्मी से बचाने का उपाय करके उसका मुंह ऊपर रखकर एक तालाब में उतार दो,
और मुंह खोल दो, धूम वहां से ज्यों का त्यों
निकलने लगेगा । अब उस धूम को देखकर जो अग्नि का अनुमान करके वहां पहुंचेगा,
वह ऐसी जगह पहुंचेगा, जहां यही नहीं, कि अग्नि है नहीं, बल्कि यदि वहां दूसरी जगह से लाकर
भी रखी जाए, तौभी न रहे, और यदि वह
अग्नि तापने के लिये गया हो, तो और भी ठिठुर जाए । अब बताओ
उसको तुम्हारा अनुमान प्रमाण होगा, वा नहीं । देखो, यहां भी जो अंश प्रत्यक्ष का है वह यथार्थ है और जो अनुमान का है, वही अयथार्थ है, क्योंकि धूम तो है, और अग्नि नहीं है । यही दशा सारे अनुमानों की है और युक्ति इसमें यह है,
कि अनुमान मन से होता है, न कि किसी बाह्य
इन्द्रिय से । अग्नि का अनुमान नेत्र से नहीं होता, मन से
होता है । अब मन बाह्यज्ञान में सदा बाह्य इन्द्रियों के अधीन होता है । मन अग्नि
को इसलिये जानता है, कि नेत्र ने उसे दिखलाई है, यदि नेत्र न दिखलाता, तो मन कभी न जानता । क्योंकि “
परतन्त्रं बहिर्मनः " मन बाहर ( बाहर के विषयों में ) परतन्त्र है । सो मन जब
कि बाहर परतन्त्र है, तो नेत्र के अधीन ही अग्नि को देख सकता
है, और अब जबकि नेत्र अग्नि को नहीं दिखला रहा, मन का अग्नि को जानना चालाक मन की चालाकी मात्र है, जो
कभी-कभी पकड़ी भी जाती है । पर यह चालाकी ही है, प्रमाण नहीं
बन सकती है, इसलिये अनुमान कोई प्रमाण नहीं । अनुमान की तरह
शब्द भी प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि शब्द प्रमाण दूसरे के
यथार्थज्ञान और यथार्थ कथन पर निर्भर करता है । यदि कहने वाले ने ठीक जाना है,
और ठीक कहा है, तो उस से दूसरे को भी
यथार्थज्ञान हो सकता है, पर इसमें क्या प्रमाण है, कि उसने यथार्थ ही जाना है, और यथार्थ ही कहा है ।
यह हो सकता है, कि उसने ठीक न जाना हो, वा जानकर भी अयथार्थ कहा हो । यद्यपि उसने पहले कभी अयथार्थ न कहा हो,
तथापि यह निश्चय कैसे हो सकता है ? कि वह अब
भी यथार्थ ही कह रहा है । इसलिये शब्द भी प्रमाण नहीं हो सकता है । उपमानादि और
जितने प्रमाण वादियों से माने गए हैं , वह अनुमान और शब्द के
अन्तर्गत हो जाते हैं, और यदि अलग भी मान लिये जाएं, तो भी उनका निर्भर इन्हीं पर है, जब यही प्रमाण नहीं,
तो वह कैसे हो सकते हैं ।
इसलिये प्रसक्ष ही एक प्रमाण है ।
प्रमेय निर्णय
पृथिवी, जल, तेज और वायु, यह चार तत्व हैं, इन्हीं के मेल से पृथिव्यादि लोक बने हैं, और इन्हीं
के मेल से तृण घास वृक्ष और देह उत्पन्न होते हैं । जो कुछ है, सब इन्हीं के मेल से बना है । जैसे परिणामविशेष से जौ आदि से मदशक्ति
उत्पन्न हो जाती है, इसी प्रकार देह के आकार में परिणत इन तत्वों में चेतनता
उत्पन्न हो जाती है, और उनके नाश होने पर नाश हो जाती है ।
सो चैतन्यावशिष्ट देह ही आत्मा है, अतएव " मैं मोटा हूं
, मैं दुबला है " इत्यादि प्रतीति होती है, क्योंकि मोटा होना, दुबला होना, देह का धर्म है, इसलिये वही आत्मा है, अतिरिक्त नहीं । देह से अतिरिक्त आत्मा में कोई प्रमाण नहीं, क्योंकि
प्रयक्ष ही केवल प्रमाण है, प्रत्यक्ष से देह ही सिद्ध होता
है, देहातिरिक्त कोई सिद्ध नहीं होता, और
अनुमानादि प्रमाण ही नहीं । जब देह ही आत्मा हुआ, तो वह मर
कर न कहीं जाता है, न आता है, यहीं
भस्म हो जाता है, फिर परलोक कैसा ? कर्मों
का साक्षी और फलदाता कोई ईश्वर नहीं । यदि कोई दण्ड दण्ड देने वाला है, तो वह राजा ही है, तुम्हारा ईश्वर तो किसी को दण्ड
देता कभी किसी ने देखा नहीं । सो यदि राजा को ईश्वर कहो, तब
तो ठीक है, पर उसके सिवाय कोई ईश्वर नहीं, क्योंकि उसमें कोई प्रमाण नहीं हो सकता है । परलोक के विषय में बृहस्पति
ने कहा है –
न
स्वर्गो नापवर्गों वा नैवात्मा पारलौकिकः ।
नैव
वर्णाश्रमादीनां क्रियाश्चफलदायिकाः ॥ १ ॥
अग्निहोत्रं
त्रयो वेदास्त्रिदण्डं भस्मगुण्ठनम् ।
बुद्धिपौरुषहीनांनां
जीविकाधातृनिर्मिता ॥ २ ॥
पशुश्चेनिहतः
स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति ।
स्व
पिता यजमानेन तत्र कस्मान्नहिंस्यते ॥ ३ ॥
मृतानामपि
जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम् ।
गच्छतामिह
जन्तूनां व्यर्थ पाथेयकल्पनम् ॥ ४ ॥
स्वर्गस्थिता
यदा तृप्ति गच्छे युस्तत्रदानतः ।
प्रासादस्योपरिस्थानामत्र
कस्मान्न दीयते ॥ ५ ॥
यावज्जीवत्सुखं
जीवेणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मी
भूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ ६ ॥
यदि
गच्छेत् परं लोकं देहादेष विनिर्गतः ।
कस्माद्भूयोन
चायाति बन्धुस्नेह समाकुलः ॥ ७ ॥
ततश्चजीवनोपायो
ब्रह्मणैर्विहित स्त्विह ।
मृतानां
प्रेतकार्याणि नत्वन्यविद्यते कचित् ॥ ८ ॥
अर्थ- न स्वर्ग है, न मोक्ष है, न ही आत्मा परलोक में जानेवाला है और न
ही वर्ण और आश्रम आदिकों के कर्मफलदायक हैं ॥ १ ॥ अग्निहोत्र, तीनों वेद, त्रिदण्डधारण, और
भस्मलेपन, यह ब्रह्मा ने, बुद्धि और
पुरुपार्थ से हीन लोगों की जीविका बनाई है ॥ २ ॥ ज्योतिष्टोम में मारा हुआ पशु यदि
स्वर्ग को जाता है, तो यजमान अपने पिता को ही उसमें क्यों
नहीं मार देता ॥ ३ ॥ मरे हुए प्राणियों का श्राद्ध यदि उनके लिये तृप्तिकारक हो,
तो परदेश जाने वालों के लिये तोशा तय्यार करना व्यर्थ है ॥ ४ ॥ यदि
स्वर्ग में स्थित पितर यहां दान से तृप्त होजाते हैं, तो महल
पर बैठे हुओं के लिये यहां क्यों नहीं देते हो ॥ ५ ॥ सो जब तक जीवे, सुखी जीवे, ऋण लेकर भी घी पीवे, भस्म हुए देह का फिर आना कहां ॥ ६ ॥ यदि यह देह से निकलकर परलोक को जाए,
तो फिर वह बन्धुओं के स्नेह से घबराया हुआ वापिस क्यों नहीं आ जाता है
॥ ७ ॥ इसलिये मरे हुए के लिये प्रेतकर्म करना ब्राह्मणों ने अपने जीवन का उपाय
बनाया है, इसके सिवाय और कुछ नहीं है ॥ ८ ॥
यहां जो, कोई राजा कोई
रंक है, कोई रोगी कोई नीरोग है, न कोई
दुर्बल कोई बलवान है, कोई बुद्धिहीन कोई बद्धिमान है. और कोई
पशु कोई मनुष्य है, इत्यादि विचित्रता है, इसमें प्राणियों
के अदृष्ट कारण नहीं, किन्तु यह सारी विचित्रता खभाव से ही
है - " अग्निरुष्णो जलं शीतं शीतस्पर्शस्तथा ऽनिलः केनेदं चित्रितं तस्मात्
स्वभावात्तदयवस्थितिः " अग्नि गर्म है, जल ठण्डा है,
और वायु शीतस्पर्शवाला है, यह किसने विचित्रता
की है ? किसी ने नहीं इसलिये स्वभाव से इनकी यह व्यवस्था है
।
जब देह ही आत्मा है, और उसके
लिये यही लोक है । तो यहां का सुख ही हमारा उद्देश्य होना चाहिये । इसलिये -
" यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्तिमृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं
कुतः " जब तक जिये, सुख से जिये, मृत्यु
से तो बचाव नहीं, और जब देह भस्म हो गया, तो फिर आना कहां । सो ऐहिकसुख को पुरुपार्थ मानकर उसी के बढ़ाने में यत्न करना
चाहिये । यह नहीं समझ बैठना चाहिये, कि यहां का सुख दुःख से
मिला हुआ है, इसलिये यह ग्रहण करने योग्य ही नहीं, किन्तु, दुःख का परिहार करके सुख का ग्रहण करते जाना
चाहिये, न कि दुःख के भय से सुख को ही छोड़ देना चाहिये।
क्या कभी ऐसा होता है, कि हरिण हैं, इस
डर से कोई धान ही न बोए, वा भिखारी हैं, इस डर से भोजन ही न बनाए । इसी प्रकार दुःख के डर से सुख का परित्याग नहीं
कर देना चाहिये, जैसाकि कहा है - " त्याज्यं सुखं
विषयसङ्गमजन्म पुंसां दुःखोपसृष्टमिति मूर्खविचारणैषा । ब्रीहीन जिहासति
सितोत्तमतण्डलाढ्यान् को नाम भोस्तुषकणोपहितान् हितार्थी " विषयों के संग से
उत्पन्न होने वाला सुख, दुःख से मिला हुआ होता है, इसलिये वह त्याग के योग्य है, ऐसा विचार मूर्खों का
है । भला कौन अपना हित चाहने वाला पुरुष श्वेत उत्तम चावलों से भरे हुए धान को इस
डर से छोड़ना चाहता है, कि वह तुषों से ढपे हुए हैं । जैसे
तुषों को अलग करके चावल खाए जाते हैं, वैसे दुःखों को हटाकर
सुखों का उपभोग करना चाहिये यही बुद्धिमत्ता है । सो यहां ही स्वर्ग, यहां ही नरक और यहां ही मोक्ष है । ऐश्वर्य ही स्वर्ग है, कांटे आदि से उत्पन्न होने वाला
दुःख ही नरक है । देह का नाश ही मोक्ष है । जो कुछ है बस यही है । न कोई
परलोक है, न उसके लिये कोई धर्म है । धर्म की बातें लोगों ने
अपनी जीविका के लिये बनाली हैं । इस मिथ्या अध्यास को छोड़ो और लोक के मुख से वंचित
मत रहो । अर्थशास्त्र के अनुसार कमाओ, कामशास्त्र के अनुसार
भोगो, और नीतिशास्त्र के अनुसार बर्ताव करो । इसी में
तुम्हारा कल्याण है । यही परमपुरुपार्थ है । और सच तो यह है, कि कहने में चाहे कुछ ही कहो, पर करने में तो हमारा
ही मत फैला हुआ है । देखलो लोगों को, वह डरते किस से हैं,
राजा से, वा ईश्वर से । और किस की चिंता में
लगे रहते हैं. लोक की वा परलोक की । और अपना आप किस को समझते हैं, शरीर को वा अलग किसी आत्मा को । बस कथन में चाहे आत्मा, परलोक और ईश्वर की पुकार मचालो, पर करने में तुम भी
हमारे साथ ही मिल जाते हो, अतएव हमारा मत लोकायत अर्थात लोक
में फैला हुआ है ।
चार्वाक दर्शन का प्रसिद्ध सूत्र
"यावज्जीवेत
सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत् ।
भस्मीभूतस्य
देहस्य पुनरागमनं कुतः ।।"
चार्वाक दर्शन के प्रमुख सिद्धांत
· 'पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति
तत्वानि' अर्थात पृथ्वी, जल तेज, वायु- ये चार तत्व है।
·
'भूतान्येव चेतयन्ते' अर्थात
भूत ही चैतन्य उत्पन्न करने का कार्य करता है।
·
'चैतन्यविशिष्टः कायः पुरुषः'
अर्थात चैतन्य-युक्त स्थूल शरीर ही आत्मा है।
·
'मरणमेवापवर्गः' अर्थात
मरण ही मोक्ष है।
·
अर्थकामौ पुरुषार्थौ' अर्थात
अर्थ और काम ये दोनों पुरुषार्थ है।
·
'प्रत्यक्षमेव प्रमाणम्'
अर्थात प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है।
चार्वाक दर्शन
चार्वाक दर्शन को नास्तिक दर्शन माना गया है, क्योंकि वह न तो वेदों को मानता है, न परलोक को और
न ही ईश्वर में विश्वास करता है। उक्त
नास्तिक दर्शन का संस्थापक बृहस्पति नाम के आचार्य को माना जाता है। कुछ विद्वान
बृहस्पति के शिष्य चार्वाक के द्वारा प्रचारित होने के कारण इसे चार्वाक दर्शन के
नाम से पुकारते है। कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार चार्वाक नाम इसलिए पड़ा कि इसके
मानने वालों के वचन बड़े मीठे होते थे। ‘चारु’ अर्थात सुन्दर ‘वाक’ होने के
कारण चार्वाक कहलाए। जहाँ तक इसके साहित्य का प्रश्न है, कुछ
गिने-चुने बार्हस्पत्य सूत्र इस दर्शन के सर्वस्व है। इस दर्शन का सबसे प्राचीन
नाम ‘लोकायत’ है,
क्योंकि यह लोक अर्थात जगत में आयत अर्थात फैला हुआ था। इसे बार्हस्पत्यशास्त्र भी
कहा जाता है, क्योंकि यह आचार्य बृहस्पति के सूत्रों पर
आधारित है। इसे जड़वाद अथवा भौतिकवाद भी कहा जाता है, क्योंकि
यह जड़ अथवा भौतिक तत्वों को प्रधान मानता है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन को
बार्हस्पत्यशास्त्र, लोकायतमत, जड़वाद
या भौतिकवाद, नास्तिकवाद आदि नामों से पुकारा जाता है। ये
सभी सिद्धान्त स्वेछाचारित, स्वतन्त्रवाद, संयमवाद अथवा भोगवाद के पोषक है जो चार्वाक दर्शन की विचारधारा के अनुकूल
है।
प्रत्यक्ष एक मात्र प्रमाण
भारतीय दर्शन का मूलाधार प्रमाण-विचार अथवा
ज्ञान-मीमांसा है। ज्ञान-मीमांसा ज्ञान की उत्पत्ति, उसके
स्वरूप तथा ज्ञान की प्राप्ति के साधनों का विवेचन करती है। भारतीय दर्शन में कुल
मिलाकर छः प्रमाण- प्रत्यक्ष, अनुमान,
शब्द, उपमान, अर्थापत्ति एवं अनुपलब्धि
माने गए है। चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष को ही एक मात्र प्रमाण मानता है। अनुमान, शब्दादि प्रमाणों
को यह विश्वसनीय नहीं मानता। प्रत्यक्ष प्रमाण के अनुसार,
केवल इंद्रियों के द्वारा ही विश्वास योग्य ज्ञान प्राप्त हो सकता है। इंद्रिय एवं
वस्तु के संसर्ग से उत्पन्न ज्ञान ही प्रत्यक्ष है। समस्त प्रमेय अर्थात दृश्यमान
जगत का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा होता है। अतः चार्वाक की दृष्टि में, इंद्रिय ज्ञान ही एक मात्र यथार्थ ज्ञान है। विस्तृत अर्थ में प्रत्यक्ष
ज्ञान वह है जो इंद्रियों से प्राप्त होता है। इंद्रियों की संख्या पाँच है-आँख, कान, नाक, त्वचा और जीभ। आँख
से रूप का, कान से शब्द का, नाक से गन्ध
का, त्वचा से स्पर्श का व जीभ से स्वाद का ज्ञान प्राप्त
होता है। इन्हीं पाँच इंद्रियों से प्राप्त ज्ञान ही प्रत्यक्ष कहलाता है। प्रत्यक्ष ज्ञान निश्चित एवं सन्देह रहित होता
है। इसलिए कहा गया है-‘प्रत्यक्षम् किं प्रमाणम्’। प्रत्यक्ष
को एकमात्र प्रमाण मानने के कारण चार्वाक दर्शन अन्य प्रमाणों, विशेषकर अनुमान एवं शब्द का
खण्डन करता है।
अनुमान तथा शब्द की समीक्षा
चार्वाक दर्शन के अनुसार, अनुमान निश्चयात्मक नहीं होता अर्थात उसके द्वारा पूर्ण निश्चयात्मक
ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो पाती, क्योंकि अनुमान का मूल आधार
‘व्याप्ति’ है और व्याप्ति ज्ञान सम्भव
नहीं हो सकता। व्याप्ति दो वस्तुओं के बीच नित्य सम्बन्ध का नाम है। हेतु और साध्य
के बीच में जो व्यापक सम्बन्ध होता है, उसे व्याप्ति कहते
है- जैसे अग्नि और धूम का सम्बन्ध। यहाँ चार्वाक का कहना है कि व्याप्ति का निश्चयात्मक
न प्रत्यक्ष से हो सकता है, न अनुमान से, न शब्द से और न ही उपमान के द्वारा। जब यह कहा जाता है कि पर्वत अग्निमान
है, क्योंकि वहाँ धूम है तब हम प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष पर
चले जाते है।
चार्वाक कि दृष्टि में व्याप्ति-ज्ञान सम्भव
नहीं है। केवल प्रत्यक्ष ही यथार्थ ज्ञान का आधार है। प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता
है-बाह्य तथा आभ्यांतर। बाह्य प्रत्यक्ष, इंद्रियों एवं
वस्तुओं के संसर्ग पर आश्रित है। व्याप्ति में साध्य (अग्नि) और साधन (धूम) का
नित्य-साहचर्य होता है। बाह्य-इंद्रियों का सम्बन्ध केवल वर्तमान काल की वस्तुओं
से होता है। अतः जो वस्तुएँ अति दूर है, भूत या भविष्यकालीन
है, वे प्रत्यक्ष से परे है, और
व्याप्ति सम्बन्ध तभी बनता है जब उसका सभी अवस्थाओं से सम्बन्ध हो। इस प्रकार
बाह्य-इंद्रियों से व्याप्ति-ज्ञान सम्भव नहीं है।
चार्वाक मतानुसार शब्द प्रमाण से भी व्याप्ति
सिद्धि सम्भव नहीं है। आप्त पुरुष के वचन को शब्द प्रमाण कहा गया है, लेकिन चार्वाक की दृष्टि से कोई आप्त पुरुष नहीं है। इस प्रकार शब्द
प्रमाण द्वारा भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं है। उपमान के द्वारा भी व्याप्ति
ज्ञान सम्भव नहीं है, क्योंकि उपमान संज्ञा-संज्ञि (गवय एवं
गोसदृश) के सम्बन्ध का ज्ञान करता है जो सोपाधिक है। अतः उपमान के लिए उपाधि रहित
सम्बन्ध का ज्ञान कराना सम्भव नहीं है।
अनुमान प्रमाण इतना व्यापक है कि हम सब उसके
आधार पर निःशंक अपना कार्य करते है। लेकिन चार्वाक मानता है कि हम बिना विचारे
अनुमान की सत्यता मान लेते है। फलतः अनेक भ्रान्तिपूर्ण धारणाओं पर कार्य करते
रहते है। कभी-कभी अनुमान संयोगवश सही निकल आते है, पर वे
बार-बार गलत भी पाये जाते है। अतः यह कहना उचित होगा कि अनुमान निश्चयात्मक नहीं
होता। संक्षेप में, अनुमान का प्रामाणिक होना स्वाभाविक गुण
नहीं है।
चार्वाक शब्द प्रमाण को भी नहीं मानता है, क्योंकि शब्द अनुमान की भाँति ही संदिग्ध होते है। आप्त पुरुष के वचन को
शब्द प्रमाण कहा जाता है। चार्वाक के अनुसार, शब्दों पर
आधारित ज्ञान दो प्रत्यक्षों का ही परिणाम है। विश्वनीय व्यक्ति का वचन श्रवण से
श्रुत होने के कारण प्रत्यक्ष का विषय है। अतः उसके लिए शब्द प्रमाण की आवश्यकता
ही नहीं है। अर्थात आप्तपुरुषों से ज्ञान शब्दों के रूप में मिलता है, और शब्दों का सुनना तो प्रत्यक्ष होता है। इस प्रकार शब्द-ज्ञान दो
प्रत्यक्षों के द्वारा होता है। ऐसे शब्द ज्ञान को प्रामाणिक माना जा सकता है।
लेकिन चार्वाक की मुख्य आपत्ति यह है कि ऐसे
आप्तवचन जो हमें अप्रत्यक्ष वस्तुओं के बारे में विश्वास दिलवाने का प्रयास करते
है, बिल्कुल अविश्वासनीय है। अनेक व्यक्तियों को वेदादि में पूर्ण विश्वास है
और वेदों के शब्दों को वे आप्तवचन मानते है अर्थात उनमें जो कुछ लिखा है वही सत्य
है, किन्तु चार्वाकों का मानना है कि वेदों को तो
धूर्त-पुरोहितों ने रचा है। इन पण्डितों ने झूठी आशाओं के द्वारा मनुष्यों को
वैदिक कर्मों के अनुसार चलने को कहा है। चार्वाक का कहना है कि वेद विरोध पूर्ण
युक्तियों से भरा पड़ा है जो द्विअर्थक, असपष्ट एवं असंगत है।
उपर्युक्त दृष्टिकोण के अलावा, चार्वाक कहता है कि जब हम किसी एक आप्तपुरुष के वचनों पर विश्वास करते है
तो हम सहज ही यह अनुमान कर लेते है कि ‘सभी आप्त पुरुषों के
वचन मान्य है’ यह आप्तपुरुष का वचन है,
अतः उनका वचन मान्य है’। इस प्रकार शब्द प्रमाण की सत्यता
अनुमान पर आश्रित हो जाती है, किन्तु जब अनुमान सिद्ध ही
संदिग्ध है तो शब्द प्रमाण की सिद्धि भी संदिग्ध है। कभी-कभी अनुमान अथवा शब्द
संयोगवश सही निकल जाते है, पर अनेक बार वे असत्य भी निकलते
है। इस प्रकार शब्द को ज्ञान प्राप्ति का यथार्थ साधन नहीं माना जा सकता है।
अभौतिक पदार्थों का निराकरण
चार्वाक केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है
और उन्हीं वस्तुओं की सत्ता में विश्वास करता है जो प्रत्यक्ष अर्थात दृष्टिगोचर
है। अतः वह आत्मा, ईश्वर, नरक-स्वर्ग आदि अदृष्ट विषयों में आस्था नहीं रखता। चार्वाक तत्वमीमांसा के
अन्तर्गत निम्नलिखित विचार आते है-
जगत-
चार्वाक
दर्शन में, जड़ ही एकमात्र सत्ता है। जड़ तत्व चार प्रकार
के होते है- पृथ्वी, जल, तेज और वायु।
ये ही चार तत्व जगत के उपदान कारण है अर्थात यह जगत इन्हीं प्रत्यक्ष-भूतों से
निर्मित एवं विकसित है। इन्हीं निर्जीव तत्वों पर आश्रित होने के कारण, जगत का स्वरूप भौतिक है। इसलिए चार्वाक दर्शन भौतिकवादी है। भारतीय दर्शन
में पंच महाभूत- पृथ्वी, जल, तेज, वायु एवं आकाश को स्वीकार किया गया है। चार्वाक आकाश तत्व को इसलिए
स्वीकार नहीं करता क्योंकि आकाश का प्रत्यक्ष नहीं होता। आकाश का ज्ञान अनुमान के
द्वारा सिद्ध किया जाता है जो चार्वाक को मान्य नहीं है। अतः आकाश तत्व का
अस्तित्व संदिग्ध है।
आत्मा-
चार्वाक
यह मानते है कि जड़-तत्वों से केवल निर्जीव पदार्थों की उत्पत्ति नहीं हुई है, अपितु आत्मादि सजीव द्रव्य भी इन्हीं से उत्पन्न हुये है। भारतीय दर्शन
में आत्मा को एक नित्य द्रव्य, अमर,
चैतन्य आदि माना गया है। किन्तु वे उसे नहीं मानते। किसी स्थायी आत्मा या चैतन्य
का अस्तित्व नहीं है, और न ही चैतन्य किसी अभौतिक तत्व
अर्थात आत्मा का गुण है। नित्य आत्मा का कोई प्रत्यक्ष नहीं होता। अतः उसका कोई
अस्तित्व नहीं है। चार्वाक मत में चैतन्य की उस सत्ता को माना गया है जो जड़-तत्वों
के संयोग से उत्पन्न होता है। चैतन्य और देह का मिश्रण ही प्राणियों का आधार है।
जड़-तत्वों से बनी देह का ही प्रत्यक्ष होता है। चैतन्य देह के अन्तर्गत है। इसलिए
चैतन्य को देह का ही गुण मानना चाहिए। चैतन्य देह को ही आत्मा कहना उचित होगा
अर्थात ‘चैतन्यविशिष्टों देहः एवं आत्मा’। यह देह पृथ्वी, जल, तेज और
वायु का संघात है, और इन्हीं के मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न
होता है। चैतन्य (आत्मा) शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर से भिन्न आत्मा का कोई
अस्तित्व नहीं है। अतः अभौतिक अमर-नित्य आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है। मृत्यु के
पश्चात शरीर के नष्ट हो जाने से चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। यही जीवन का अन्त
है।
ईश्वर-
चार्वाक
मत नित्य आत्मा के समान, ईश्वर के अस्तित्व को भी नहीं
मानता, क्योंकि ईश्वर का कोई प्रत्यक्ष नहीं होता। स्पष्टतः
चार्वाक अनीश्वरवादी है। चूंकि ईश्वर का प्रत्यक्ष नहीं होता, इसलिए प्रत्यक्षवादी चार्वाक ईश्वर की सत्ता अस्वीकार करते है। ईश्वर जगत
का सृष्टा नहीं है। जड़-तत्वों के सम्मिश्रण से संसार की उत्पत्ति हुई है अर्थात
चार्वाक के मतानुसार, जड़-तत्वों का स्वयं अपना-अपना स्वभाव
है। अपने-अपने स्वभाव के अनुकूल वे संयुक्त होते है और उनके स्वतः सम्मिश्रण से
जगत की उत्पत्ति होती है। इसलिए चार्वाक मत ‘स्वभाववाद’ कहलाता है जिसके अनुसार जगत की उत्पत्ति के लिए,
किसी ईश्वर अथवा सर्वशक्तिमान स्रष्टा की अवश्यकता नहीं है।
कर्म एवं पुनर्जन्म-
वेद, उपनिषद, गीता-दर्शनों में
कर्म-सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना की गई है। जिसके अनुसार प्राणी जैसा कर्म करता है
वैसा ही फल प्राप्त करता है अर्थात प्रत्येक मानव प्राणी को शुभ-कर्मों का फल सुख
और अशुभ-कर्मों का फल दुःख के रूप में मिलता है। कभी-कभी फल संचित होता रहता है जो
कालान्तर में फलदायक होता है। लेकिन चार्वाक मत प्रत्यक्षवादी एवं अपरलोकवादी होने
के कारण ऐसे इंद्रियातीत कर्म-सिद्धान्त को नहीं मानता। वह कर्मफल को स्वीकारता है, पर वह इसी वर्तमान जीवन का व्यापार है, क्योंकि
भविष्य-जीवन नहीं होता। मृत्यु समस्त कर्मों का अन्त है।
धर्म तथा मोक्ष का निराकरण
वैदिक परंपरा में चार पुरुषार्थ –अर्थ, काम, धर्म एवं मोक्ष माने गए है। चार्वाक धर्म और
मोक्ष को नहीं मानता, क्योंकि जगत में धर्म नाम की कोई चीज
नहीं है। संसार में न धर्म है, न पुण्य है और न पाप है।
चार्वाक के अनुसार, वर्तमान सुखों को त्याग कर परलौकिक सुख
की आशा करना नितान्त मूर्खता है। धार्मिक कृत्यों को पुरोहित-वर्ग ने स्थापित किया
है ताकि पाखण्डियों के स्वार्थों की सिद्धि होती रहे। चार्वाक का कहना है यदि
धार्मिक अनुष्ठान तथा यज्ञ में की गई पशुबलि से स्वर्ग की प्राप्ति सम्भव है तो
यज्ञमान अपने माता-पिता की बलि क्यों नहीं दे देता ताकि वह स्वर्ग जा सके। इसलिए
स्वर्ग-नरग अथवा मोक्ष की प्राप्ति के लिए, वैदिक
क्रिया-कर्म व्यर्थ है। स्वर्ग पाने के लिए, और नरग से बचने
के लिए, अथवा प्रेतात्माओं की तृप्ति के लिए वैदिक यज्ञ, बलि, श्राद्ध आदि किए जाते है। चार्वाक इन विचारों
को नहीं मानते। चार्वाक के अनुसार, दुःखो से मुक्ति पाना
सम्भव नहीं है, क्योंकि जब तक देह है,
तब तक दुःखों का होना स्वाभाविक है। यह जीवन सुख-दुःख का संगम है। दुःख को कम किया
जा सकता है, और सुखों की वृद्धि की जा सकती है। चूंकि
चार्वाक धर्म-मोक्ष को जीवन का लक्ष्य नहीं मानते, इसलिए वे
केवाल अर्थ-काम को ही जीवन का परम लक्ष्य स्वीकार करते है। बुद्धिमान व्यक्तियों
को अर्थ और काम के लिए प्रयत्न करते रहना चाहिए, क्योंकि वे
ही सुख वृद्धि के लिए आवश्यक है। इन दोनों में भी केवल काम ही परम लक्ष्य है, क्योंकि अन्तिम लक्ष्य अर्थ नहीं हो सकता, वह तो
केवल काम का साधन मात्र है। इस प्रकार चार्वाक स्वर्ग-नरक,
धर्म-मोक्ष, पाप-पुण्य, धर्माधर्म, परलोकादि को नहीं मानता।
चार्वाक जीवन का परम उद्देश्य सुख को ही स्वीकार
करता है। इसलिए इसके मत को सुखवादी कहा जाता है। शुभ जीवन वहीं है जिसमें अधिकतम
सुख मिले। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को वही कर्म करना चाहिए जिससे अधिकतम सुख की
प्राप्ति हो। चूंकि व्यक्ति का अस्तित्व इसी जीवन एवं काल तक ही सीमित है, अतः इसे वर्तमान जीवन में अधिकाधिक सुख प्राप्त करने का प्रयास करना
चाहिए, साथ ही साथ वही मनुष्य का एकमात्र लक्ष्य होना चाहिए।
चार्वाक-ज्ञान मीमांसा
चार्वाक दर्शन के अनुसार, यथार्थ ज्ञान का स्वरूप मात्र प्रत्यक्षात्मक या साक्षात प्रतीति है।
फलतः इसका साधन या प्रमाण एकमात्र प्रत्यक्ष है। चार्वाक प्रत्यक्ष ज्ञान को ही
यथार्थ ज्ञान का साधन मानता है। चार्वाकों ने इंद्रियों के द्वारा प्रत्यक्षीकृत
जगत को ही सत्य माना है और उससे भिन्न पदार्थों को असत् कहा है। जैसे
त्वगिन्द्रियों के द्वारा कोमल, कठोर,
गर्म या ठण्डा या समशीतोषण आदि भावों का बोध होता है। रसनेन्द्रियों अर्थात जीभ से
कटु अर्थात कड़वा, कषाय अर्थात कसैला,
अम्ल अर्थात खट्टा, एवं मधुरादि रसों का ग्रहण होता है। इसी
तरह घ्राणेंद्रियों अर्थात नाक से सुगन्ध और दुर्गन्ध का बोध होता है।
चक्षुरिंद्रियों अर्थात आँखों से धरती, आकाश, मनुष्य, पशु, जड़-चेतन, नदी, पहाड़ आदि के ज्ञान हमें प्राप्त होते है।
श्रोत्रेंद्रियों अर्थात कानों से गीत, नाद, प्रिय-अप्रिय ध्वनि का बोध होता है। यही पाँच प्रकार की अनुभूत वस्तुएं
चार्वकों की दृष्टि में प्रमाणभूत मानी जाती है। इनकी दृष्टि में अनछुए, अनचखे, अनसुने, अनदेखे और
अनसूंघे पदार्थों की सत्ता किसी भी प्रकार से मान्य नहीं है।
अनुमान की प्रामाणिकता-
न्याय, वैशेषिक, मीमांसा-प्रभृति वैदिक दर्शन तथा जैन एवं
बौद्ध आदि अवैदिक दर्शन अनुमान की प्रामाणिकता मानते है। प्रत्यक्ष के द्वारा
समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता सिद्ध नहीं की जा सकती और न समस्त लोकव्यवहार की
उत्पत्ति ही सिद्ध हो सकती है। अगत्या इन दर्शनिकों को अनुमान को भी प्रमाण के रूप
में मानना ही पड़ता है। किन्तु चार्वाक किसी भी स्थिति में अनुमान को प्रमाण के रूप
में मानने को तैयार नहीं है- ‘नानुमानं प्रमाणम्’ (बार्हस्पत्यसूत्र)। इस विषय में चार्वाकों की तर्क-प्रणाली बड़ी ही स्फीत, चुटीली और मर्मस्पर्शिनी है। उनका कहना है कि असंदिग्ध व्याप्तिज्ञान में
ही निश्चयात्मक ज्ञान की सम्भावना बनती है, किन्तु किसी भी
व्याप्ति का निश्चयात्मक ज्ञान न तो प्रत्यक्ष से हो सकता है, न अनुमान से, न शब्द से और न ही उपमान से।
अनुमान का आधार व्याप्ति-ज्ञान माना गया है।
व्याप्ति किसी पदार्थ के साहचर्य या स्वाभाविक सम्बन्ध को कहा जाता है। धूम और
अग्नि में साहचर्य या स्वाभाविक सम्बन्ध है। जैसे- इस पहाड़ में आग लगी है- ‘पर्वतों अयं वह्वीमान’,
क्योंकि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ आग होती है-‘यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्विः’। इस तर्क से यह
सिद्ध होता है कि साहचर्य या स्वाभाविक सम्बन्ध इस तर्क का आधार है। पर यहाँ धूम
एवं आग में स्वाभाविक सहचार की मात्र कल्पना है, किन्तु ऐसी
कल्पना का स्वरूप एक जैसा नहीं होता, जो आज है, कल भी वैसा था या भविष्य में भी वैसा ही रहेगा- यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा
जा सकता।
सामान्य के आधार पर भी व्याप्ति-ज्ञान सम्भव
नहीं है, क्योंकि दो व्यक्तियों के बीच अविनाभाव या साहचर्य सम्बन्ध नहीं होता, क्योंकि यह निश्चित नहीं है कि जाति में व्याप्त सभी गुण व्यक्ति में भी
हो। इसी तरह आभ्यंतर प्रत्यक्ष से भी व्याप्ति ज्ञान सम्भव नहीं हो सकता, क्योंकि अन्तःकरण बाह्य इंद्रियों पर आधारित है। अतः बाह्य वस्तुओं पर
इसकी स्वतंत्र प्रकृति नहीं हो सकती।
स्वभाववाद-
स्वभाव
का अभाव तो कहीं नहीं दिखता। अतः सर्वत्र सर्वदा रहने वाले स्वाभाविक
सम्बन्ध को त्रेकालिक सम्बन्ध चार्वाक मानते है। लेकिन हम यदि किन्हीं दो वस्तुओं
के स्वाभाविक साहचर्य को भूत और वर्तमान में मान भी ले तो भविष्य में नहीं मान
सकते, क्योंकि भविष्य का ज्ञान हमें वर्तमान में नहीं हो सकता। अतः त्रेकालिक
होने के आधार पर कोई सम्बन्ध स्वाभाविक नहीं स्वीकार किया जा सकता। भूतकाल में
हमने जहाँ तक देखा है, तथा वर्तमान काल में हम जो देख रहें
है, इसी आधार पर ही हम कुछ कह सकते है,
किन्तु इसी भूत और वर्तमान के आधार पर भविष्य की निश्चयात्मक व्याख्या तो हम नहीं
कर सकते। भविष्य में स्वरूप-परिवर्तन या घटना-क्रम का बदलाव स्वाभाविक होता है।
अतः जब भविष्य अनिश्चित है तो दोनों में स्वाभाविक सम्बन्ध की मात्र कोरी कल्पना
ही है। इसी तरह जगत की उत्पत्ति और विनष्टि का कारण भी चार्वाक उनके स्वभाव को ही
मानते है। इस सन्दर्भ में चार्वकों की मान्यता है कि आग का गर्म होना, पानी का ठण्डा होना, हवा का शीतल बहाना तो उनका स्वभाव
ही है। सुखी मनुष्य को देखकर धर्म की कल्पना तथा दुःखी मनुष्य को देखकर अधर्म की
कल्पना औचित्य की परिधि से बाहर है। यहाँ मनुष्य के सुख का कारण न तो धर्म है और न
ही दुःख का कारण अधर्म है। मनुष्य स्वभाव से ही सुखी अथवा स्वभाव से ही दुःखी होता
है। चार्वाक का यह सिद्धान्त दार्शनिकों के बीच स्वभाववाद के नाम से ख्यात है।
कार्य-कारण नियम-
कुछ
दार्शनिक कार्य-कारण नियम को ‘क्षित्युंकुरादि-कतृजन्यं
कार्यत्वात्’ के आधार पर व्याप्ति सिद्ध करते है तथा
व्याप्ति के आधार पर अनुमान करते है कि कारण के बिना कोई कार्य नहीं हो सकता और
कारण बिना कार्य का फल भी नहीं होता। इस तरह कारण-कार्य का सम्बन्ध नियत या
अनिवार्य है, किन्तु चार्वाक को कारण-कार्य का सिद्धान्त
मान्य नहीं है। उनकी दृष्टि में कारण-कार्य का सम्बन्ध अनियत और आकस्मिक है, क्योंकि बिना कारण के भी कहीं कार्य होता है, और
कारण रहने पर भी कार्य नहीं होता। फलतः कार्य-कारणभाव के लिए उपाधियों का होना भी
आवश्यक शर्त है। किसी भी कार्य की उत्पत्ति के सभी समय सभी उपाधियों का प्रत्यक्ष
दर्शन असम्भव है, अतः उनके बिना कार्य-कारण भी नहीं हो सकता।
इस तरह कार्य-कारणभाव सम्बन्ध को या इस आधार पर अनुमान प्रमाण की सिद्धि नहीं
होती। इस परिस्थिति में चार्वाक का कहना है कि यह तो मणि,
मन्त्र और औषधि की तरह अनियत और आकस्मिक है, अनिवार्य नहीं।
कभी-कभार अचानक मणि की प्राप्ति हो जाती है, मन्त्र भी
निष्फल हो जाते है एवं औषधि-सेवन भी कुछ रोगियों को रोगमुक्त करने में विफल हो
जाता है। इन उदाहरणों में केवल सम्भावना दीख पड़ती है और सम्भावना जहाँ है वहाँ
अनिवार्य नहीं है। यही कारण है कि चार्वाक कार्य-कारणभाव को मानने के लिए तैयार
नहीं है। ऐसी स्थिति में वे अहेतुक वस्तु के सदभाव अर्थात अकस्मातभूति को अंगीकार
करते है। इन्हीं कारणों से बाध्य होकर चार्वाक लोक अनुमान को प्रमाण नहीं मानते
है। साथ ही शब्द प्रमाण को भी स्वीकार नहीं करते है।
शब्द प्रमाण की अमान्यता-
भारतीय
दर्शन में ईश्वर के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए शब्द को दार्शनिकों ने तीसरा
प्रमाण कहा है, किन्तु चार्वाक ने इसे स्वतंत्र प्रमाण
मानने से इन्कार कर दिया है। उनका मानना है कि शब्द प्रमाण से भी व्याप्ति की
सिद्धि नहीं की जा सकती, क्योंकि कुछ वैशेषिकों ने इसे
अनुमान में ही अन्तर्भूत कर दिया है। न तो शब्द प्रमाण से व्याप्ति सम्भव है और न
ही उपमान के द्वारा यह उपलब्ध है। चार्वाक के अनुसार, शब्द
स्वतंत्र प्रमाण नहीं है। शब्द से अर्थ का अनुमान ही होता है। जब अनुमान ही
प्रामाणिक नहीं तो शब्द भी अप्रामाणिक ही है। चार्वाक शब्द को अप्रामाणिक सिद्ध
करने के लिए कई सशक्त तर्क उपस्थित करते है। उनका कहना है कि न्यायशास्त्र के
अनुसार, ‘तसमाद प्रमाणम्
शब्दःअनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः’ इतना ही नहीं शब्द को
परिभाषित करते हुये लिखा है-‘आप्तोपदेशः शब्द’। आप्त पुरुष कौन है? धर्म का साक्षात्कार करने वाले
परम पूज्य पुरुष तो कहीं भी दिखाई नहीं पड़ते। अगर इनकी सत्ता स्वीकार भी करे तो
लोककल्याणकारी वचन दुर्लभ हो जाते है। यही कारण है कि वेदों की प्रामाणिकता भी
चार्वाकों को अमान्य है। वेद वाक्यों में परस्पर विरोध से,
अनर्थक शब्दों के प्रयोग से, अप्रत्यक्ष पदार्थों की कल्पना
से प्रमाणग्राह्यता नहीं है। अश्वमेघ यज्ञ में गर्हित कार्य-कलाप के वर्णन करने से, जर्फरी-तुर्फरी जैसे अनर्थक शब्दों के प्रयोग से,
यज्ञों में पशुबलि विधान से, मांसभक्षण जैसे अप्रासंगिक
प्रथा से यह प्रतीत होता है कि वेद बनाने वाले भण्ड, धूर्त
या निश्चय ही निशाचर थे। वेदों की जितनी निन्दा, कुत्सा या
गर्हित आलोचना चार्वाकों ने की है, उतना शायद ही किसी ने
किया हो।
वैदिक मंत्रों में
मुख्यतः तीन दोषों की परिगणना इन्होंने कि- अनृत,
व्याघात और पुरुक्ति (तसमाद प्रमाणम् शब्दःअनृतव्याघातपुनरुक्तदोषेभ्यः)। कुछ
वैदिक मन्त्र झूठे एवं काल्पनिक स्वर्ग-नरग जैसे विषयों का प्रतिपादन करते है तो
कुछ मंत्रों में व्याघात-जैसे दोष है, अर्थात एक स्थान पर
किसी विषय के लिए एक मन्त्र है तो ठीक उसी विषय के लिए दूसरी जगह ठीक विपरीत दूसरा
मन्त्र उपलब्ध है। इसी तरह पुनरुक्त दोष-एक ही मन्त्र का कई देवताओं के लिए कई
स्थानों पर प्रयोग मिलता है। इसी तरह कई मंत्रों की अनेक बार आवृति भी है।
इसके अतिरिक्त चार्वाकों की दृष्टि में अतीन्द्रिय एवं अलौकिक विषयों को सिद्ध करना शब्द प्रमाण का सबसे बड़ा दोष है। आत्मा-परमात्मा, लोक-परलोक, स्वर्ग-नरग, प्रभृति केवल शब्द प्रमाण से सिद्ध होता है। इसका प्रत्यक्ष ज्ञान तो हो ही नहीं सकता। जो शब्द प्रमाण को मानते है, उन्हें ही इसमें विश्वास, भय या बचाव की भावना होती है। चार्वाक शब्द प्रमाण को ही नहीं मानते तो फिर उन उक्त विषयों में विश्वास का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी तरह चार्वाक उपमानों का भी प्रामाण्य नहीं मानते, क्योंकि इससे किसी विशेष ज्ञान की उपलब्धि नहीं होती है।
📁वस्तुनिष्ठ प्रश्न
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