योग दर्शन में ईश्वर विचार

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योग दर्शन में ईश्वर विचार 

योग दर्शन में ईश्वर विचार 

 ईश्वर विचार (योग में ईश्वर की भूमिका)

     योग दर्शन में प्रकृति और पुरुष से भिन्न एक स्वतन्त्र नित्य तत्त्व के रूप में ईश्वर की सत्ता को स्वीकार किया गया है। यही कारण है कि योग दर्शन को 'सेश्वर-सांख्य' भी कहा जाता है। ईश्वर के सम्बन्ध में पतंजलि ने अपने योगसूत्र में कहा है कि जो क्लेश, कर्म, आसक्ति और वासना इन चारों से असम्बन्धित हो, वही ईश्वर है। यहाँ ईश्वर के सम्बन्ध में निम्न बातें स्पष्ट होती है-

    ईश्वर, अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश, इन पाँचों क्लेशों से रहित है।

     ईश्वर पाप-पुण्य और इन कर्मों से उत्पन्न फल तथा उनसे उत्पन्न वासनाओं (आशय) से असम्बन्धित है।

    ईश्वर को एक विशेष पुरुष की संज्ञा दी गई है, जो दुःख कर्म विपाक से अछूता रहता है। परन्तु ईश्वर न कभी बन्धन में था, न कभी होगा, क्योंकि वह नित्य मुक्त है।

    योगमतानुसार ईश्वर एक नित्य, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, पूर्ण, अनन्त तथा त्रिगुणातीत सत्ता है। वह ऐश्वर्य तथा ज्ञान की पराकाष्ठा है। वही वेदशास्त्रों का प्रथम उपदेशक है। प्रणव ध्वनि (ओंकार) ईश्वर का वाचक है। योग दर्शन में ईश्वर का व्यावहारिक महत्त्व है। पतंजलि ने लिखा है कि 'ईश्वर प्राणिधान' (ध्यान और समर्पण) से चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध हो जाता है, इसलिए ईश्वर को ध्यान का सर्वश्रेष्ठ विषय बताया गया है। ईश्वर प्राणिधान से समाधि की सिद्धि अतिशीघ्र हो जाती है, क्योंकि ईश्वर योग मार्ग में आने वाली रुकावटों को दूर कर कैवल्य प्राप्ति का रास्ता प्रशस्त करता है।

     योग दर्शन में ईश्वर को प्रकृति और पुरुष का संयोजक और वियोजक का कार्य करने वाला बताया गया है। चूँकि पुरुष और प्रकृति दोनों परस्पर भिन्न और विरुद्ध कोटि के हैं, इसलिए इन दोनों में सम्बन्ध स्थापना हेतु ईश्वर को स्वीकार किया गया है।

ईश्वर के अस्तित्व सिद्धि के प्रमाण

ईश्वर के अस्तित्व सिद्धि के प्रमाण निम्न हैं-

    श्रुति प्रमाण वेद, उपनिषद् और अन्य शास्त्र ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं, इसलिए ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध होता है, क्योंकि श्रुतिय प्रामाणिक ज्ञान है।

    ज्ञान और शक्ति की पराकाष्ठा के रूप में संसार में जितनी वस्तएँ हैं. उनकी एक विरोधी वस्तु विद्यमान है। इसी प्रकार ज्ञान एवं शक्ति की अल्पता के विपरीत एक ऐसी सत्ता अवश्य होनी चाहिए, जो सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान हो, यही परम पुरुष ईश्वर है।

    प्रकृति एवं पुरुष में संयोग एवं वियोगकर्ता के रूप में चूँकि प्रकृति और पुरुष परस्पर विरोधी स्वभाव के हैं, इसलिए इनमें स्वतः सम्पर्क स्थापित नहीं हो सकता है। इसके लिए असीम, बुद्धिमान, सर्वज्ञ तथा सर्वशक्तिमान सत्ता का होना आवश्यक है, जो इनके बीच सम्बन्ध स्थापित करती है और यही सत्ता ईश्वर है।

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