योग दर्शन में चित्त की अवधारणा
भारतीय दर्शन |
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योग दर्शन में चित्त की अवधारणा |
योग दर्शन में चित्त की अवधारणा
योग दर्शन का प्रतिपादन पतंजलि ने किया तथा अपने 'योगसूत्र' के दूसरे
सूत्र में कहा कि 'योगाश्चित्तवृत्ति निरोधः' अर्थात्
चित्त की वृत्तियों का निरोध ही योग है। अत: योग को ठीक प्रकार
से समझने के लिए चित्त तथा चित्तवृत्ति क्या है? तथा इन
चित्तवृत्तियों का निरोध कैसे होता है? यह जानना आवश्यक
है।
चित्त
योग दर्शन में चित्त का अर्थ 'अन्त:करण' माना
गया है। योग मतानुसार चित्त के अन्तर्गत महत् (बुद्धि), अहंकार
तथा मन तीनों ही आ जाते हैं अर्थात् बुद्धि, अहंकार तथा मन
को ही संयुक्त रूप से चित्त की संज्ञा दी गई है।
चित्त की विशेषताएँ
योग दर्शन में चित्त की निम्नलिखित विशेषताएँ बताई गई हैं-
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त्रिगुणात्मक प्रकृति से उत्पन्न होने के
कारण चित्त को भी त्रिगुणात्मक माना गया है, परन्तु इसमें
सत् गुण की प्रधानता होती है।
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प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण यह जड़
है,
किन्तु
चेतना पुरुष के प्रतिबिम्ब से यह चेतन की तरह प्रतीत होता है। चित्त के चेतनवत् प्रतीत
होने के कारण ही पुरुष इससे अपनी भिन्नता को नहीं जान पाता, परिणामस्वरूप
पुरुष में जीवभाव आ जाता है और वह बन्धन में पड़ जाता है।
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सांख्य दर्शन के समान योग दर्शन भी यह स्वीकार
करता है कि पुरुष अनेक हैं। योग की मान्यता है कि प्रत्येक पुरुष के साथ एक चित्त सम्बन्धित
होता है, इसलिए चित्त भी अनेक हैं।
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प्रत्येक चित्त के भीतर चित्तवृत्तियाँ
पाई जाती हैं। जब तक ये चित्तवृत्तियाँ हैं, तब तक चित्त का
भी अस्तित्व रहता है, किन्तु जैसे ही चित्त की समस्त वृत्तियों का निरोध होता है, चित्त
प्रकृति में विलीन हो जाता है।
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चित्त के विलीन होते ही पुरुष अपने स्वरूप
को जान लेता है तथा बन्धन से मुक्त होकर कैवल्य को प्राप्त कर लेता है। परिणामस्वरूप
समस्त दु:खों का अन्त हो जाता है। अत: चित्त
की चित्तवृत्तियों का निरोध करना ही योग का लक्ष्य है।
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