भ्रम के सिद्धान्त (ख्यातिवाद)
भारतीय दर्शन |
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भ्रम के सिद्धान्त (ख्यातिवाद) |
भ्रम के सिद्धान्त (ख्यातिवाद)
ख्याति का शाब्दिक अर्थ है-भ्रम।
भ्रम की समस्या अनिवार्यतः वस्तुवाद से सम्बन्धित है। सभी वस्तुवादी इस समस्या को हल
करने का प्रयास करते हैं, क्योंकि यह वस्तुवाद
के मूल पर ही कुठाराघात करता है। क्योंकि वस्तुवादियों की मान्यता है कि ज्ञाता से
स्वतन्त्र तथा पृथक् बाह्य जगत् में वस्तुओं का अस्तित्व है। जिनका इन्द्रियानुभव के
द्वारा साक्षात् ज्ञान प्राप्त किया जाता है अर्थात् वस्तु के अनुरूप ही वस्तु का ज्ञान
प्राप्त होता है। किन्तु वस्तुवादियों के लिए
समस्या यह है कि इन्द्रियानुभव के द्वारा हमें कभी-कभी अयथार्थ ज्ञान (अप्रमा) की प्राप्ति हो जाती है, परिणामस्वरूप भ्रम की स्थिति उभरती है। इस समस्या को ही ख्यातिवाद के नाम से जाना जाता है। विभिन्न वस्तुवादी दार्शनिकों ने इस समस्या का समाधान करने का प्रयास किया है, किन्तु कोई भी इस समस्या का समुचित समाधान प्रस्तुत नहीं कर सका। भ्रम से सम्बन्धित विभिन्न सिद्धान्त जो भिन्न-भिन्न वस्तवादी दार्शनिक सम्प्रदायों द्वारा प्रस्तुत किए गए, उनका उल्लेख निम्नलिखित है-
आत्मख्यातिवाद
यह विज्ञानवादी बौद्धों का सिद्धान्त है। इस दर्शन के अनुसार जिसे
हम बाह्य जगत् कहते हैं और जिसे हम भौतिक रूप में अस्तित्ववान मानते हैं, वह वास्तव
में भौतिक रूप में अस्तित्व नहीं रखता। बाह्य संसार खरगोश के सींग एवं आकाश कुसुम के
समान असत् है। यह स्वप्न के समान है; जैसे-स्वप्न
में हमें कई प्रकार के पदार्थों का जगत् दिखता है पर वे सब पदार्थ हमारे भीतर ही होते
हैं। इस प्रकार, विज्ञानवादी बाह्य का अस्तित्व नहीं मानते, अब जब
सब कुछ आत्म स्थित है तब भ्रम के विषय जैसे साँप भी हमारे मन के प्रत्यय ही हैं। मन
के भीतर के प्रत्यय को ही हम बाह्य जगत् में प्रक्षेपित करते हैं। इस प्रकार बाहरी
जगत् में सर्प के न होते हुए भी हमें सर्प दिखाई देता है।
आत्मख्यातिवाद की आलोचना
यहाँ भ्रम के लिए कोई निमित्त नहीं है, जबकि बिना निमित्त के मिथ्या विकल्प की सिद्धि होना सम्भव नहीं है। आधुनिक मनोविज्ञान भी यही कहता है कि बिना अधिष्ठान के भ्रम सम्भव नहीं है फिर यदि भ्रम का सर्प एवं वास्तविक सर्प एक ही है तो दोनों को समान यथार्थता क्यों नहीं प्रदान की जाती? फिर भ्रम की अलग एवं सत्य की अलग श्रेणियाँ भी नहीं माननी चाहिए, परन्तु हम सब ऐसा करते हैं।
असख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन शून्यवादी बौद्ध दार्शनिकों द्वारा
किया गया। शून्यवादियों के अनुसार, रस्सी तथा साँप
दोनों असत् हैं। क्योंकि रस्सी और साँप के बारे में बुद्धि की किसी भी कोटि के द्वारा
कुछ भी नहीं कहा जा सकता है, परिणामस्वरूप
भ्रम के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता अतः भ्रम शून्य है।
सख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन विशिष्टाद्वैत के प्रतिपादक रामानुज द्वारा किया गया। इनके अनुसार भ्रम का विषय सत् है, क्योंकि ब्रह्म सत् है। जितने भी भ्रम के विषय हैं वे समस्त ब्रह्म ही हैं, अत: सत् है। रामानुज के अनुसार 'त्रिवृत्तिकरण' के कारण भ्रम पैदा होता है। त्रिवृत्तिकरण से तात्पर्य है कि संसार की समस्त वस्तुएँ सत्, रज् तथा तम् गुणों से युक्त हैं, इसलिए प्रत्येक वस्तु में प्रत्येक अन्य वस्तु के न्यूनाधिक गुण विद्यमान रहते हैं: जैसे-रस्सी के स्थान पर साँप का भ्रम इसलिए उत्पन्न होता है, क्योंकि रस्सी में सर्प के तत्त्व विद्यमान हैं; जैसे-लम्बाई, टेढ़ा-मेढ़ा होना तथा गोल होना आदि।
अन्यथाख्यातिवाद
भ्रम के इस सिद्धान्त का प्रतिपादन नैयायिकों द्वारा किया गया था। नैयायिकों के अनुसार समस्त ज्ञान यथार्थ है। नैयायिकों के अनुसार भ्रम का विषय वास्तविक है, किन्तु वह वहाँ नहीं है, जहाँ अनुभूत हो रहा है। अतः भ्रम का विषय साँप यहाँ नहीं अन्यथा है। नैयायिक इस भ्रम का कारण स्मृति को मानते हैं।
अनिर्वचनीय ख्यातिवाद
इस सिद्धान्त के प्रतिपादक शंकराचार्य हैं। अनिर्वचनीय का आशय होता
है,
जिसका
निर्वचन न हो सके अर्थात् जिसके वचन विन्यास के द्वारा स्पष्टत: कुछ कहा
न जा सके एवं जो अभिव्यक्ति से परे हो। इनके अनुसार भ्रम का विषय न सत् है न असत्।
सत् नहीं है, क्योंकि वह साँप नहीं है, रस्सी है तथा
असत् भी नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्षतः साँप की अनुभूति हो रही है। चूंकि वचन हमेशा
दो ही प्रकार के होते हैं या तो कोई वचन सत् होगा या असत् होगा। चूँकि साँप न तो सत्
है और न ही असत् है, इसलिए यह अनिर्वचनीय है।
भ्रम का कारण अविद्या है जो दो रूपों-आवरण
एवं विक्षेप में अपना कार्य करती है। आवरण रूप के अनुसार रज्जु-सर्प
भ्रम में अविद्या पहले रस्सी पर साँप का आरोप कर उसकी प्रतीति हमें साँप के रूप में
कराती है। यह रस्सी का सर्प के रूप में अन्यथाज्ञान या मिथ्या ज्ञान है अथवा सर्प का
अध्यारोप है। इस तरह विक्षेप का कार्य है सत्य के स्थान पर मिथ्या वस्तु को प्रस्तुत
करना।
इस सिद्धान्त के अनुसार शंकर दर्शन में कहा गया है कि माया ब्रह्म
के वास्तविक स्वरूप पर अज्ञान का आवरण डाल देती है और विक्षेप शक्ति द्वारा ब्रह्म
के स्थान पर आकाशादि प्रपंच को प्रस्तुत करती है। जगत् की प्रस्तुति के सम्बन्ध में
यही शंकर का विवर्तवाद है।
शंकराचार्य का अनिर्वचनीय ख्यातिवाद वस्तुतः उनके मायावाद को सिद्ध
करने का प्रयास है। शंकर का सिद्धान्त अन्य ख्यातिवादों से अन्तर रखता है। यह अख्यातिवाद
और असत् ख्यातिवाद से भिन्न इसलिए है, क्योंकि इनके
समान यह नहीं कहता कि भ्रम का विषय असत् है या उसका ग्रहण नहीं होता। यह अन्यथा ख्यातिवाद
से इसलिए भिन्न है, क्योंकि इसमें किसी का अन्यथा ग्रहण भी नहीं है। यह नवीन अनुभव है, स्मृति
नहीं। यह आत्म ख्यातिवाद से भी पृथक् है, क्योंकि इसके
अनुसार यहाँ सर्प का अथवा चाँदी का अध्यास या मिथ्या ग्रहण न होकर सत्ता का ग्रहण है।
अनिर्वचनीय ख्यातिवाद की आलोचना
यह सिद्धान्त भ्रम के लिए सत् और असत् से परे अनिर्वचनीय शब्द का
प्रयोग करता है, परन्तु व्यवहार में हम सत् और असत् दोनों ही कोटियों का प्रयोग करते
हैं। शंकर एक ओर भ्रम को अनिर्वचनीय कहते हैं, तो दूसरी
ओर इसकी व्याख्या भी करते हैं, परन्तु जो अनिर्वचनीय
है,
उसकी
व्याख्या कैसे हो सकती है।
उपरोक्त आलोचना के बावजूद भी तार्किक दृष्टि से यह सिद्धान्त बुद्धि
को अधिक सन्तुष्ट करता है। यद्यपि दर्शन में कोई भी सिद्धान्त पूर्णत: निर्दोष
नहीं है, परन्तु यह सिद्धान्त अधिक तर्कसंगत है।
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