अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा
अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा |
अपूर्व ( Apoorva ) की अवधारणा
अपूर्व – अपूर्व का सामान्य अर्थ होता है जो पहले
न किया गया हो। मीमांसा दर्शन में अपूर्व उस अदृष्ट शक्ति का नाम है जो कर्म और
उसके फल को जोड़ने का कार्य करता है। वार्त्तिककार कुमारिल ने अपूर्व का लक्षण इस
प्रकार किया है –
कर्मस्यः प्रागयोग्यस्य कर्मणः
पुरुषस्यवा ।
योग्यताः शास्त्रगम्या या परा
साऽपूर्वमुच्यते ॥ (त० वा०, पृ० 324)
आशय यह कि कर्म करने के पहले पुरुष स्वर्गादि प्राप्ति के
अयोग्य होते हैं। यज्ञ और स्वर्ग आदि कर्म में अयोग्य होते हैं। यही पुरुषगत या
ऋतुगत योग्यता अपूर्व द्वारा उत्पन्न की जाती है। यहाँ ज्ञातव्य यह है कि कुमारिल
और प्रभाकर अपूर्व के स्वरूप के संबंध में एक-दूसरे से अलग विचार रखते हैं।
कुमारिल अपूर्व को कर्त्ता की योग्यता मानते हैं जबकि प्रभाकर अपूर्व को कर्म में
स्थिर मानते हैं।
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