ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा 

ऋत ( Ṛta ) की अवधारणा 

    वेदों में आचार सम्बन्धी सिद्धान्तों का विवेचन 'ऋत की अवधारणा' के रूप में हुआ है। वेदो में देवताओं के वर्णन में 'ऋतस्य गोप्ता' (ऋत के परिरक्षक) और ऋतायु (ऋत का अभ्यास करने वाला) शब्दों का प्रयोग बार-बार हुआ है । 'ऋत' विश्वव्यवस्था के अतिरिक्त नैतिक व्यवस्था के अर्थ में प्रयुक्त हुआ हैं।  ऋग्वेद में वर्णित ऋत वह नियम है जो संसार में सर्वत्र व्याप्त है एवं सभी मनुष्य एवं देवता उसका पालन करते है। अतः ऋत सत्यं च धर्माः अर्थात ऋत सत्य और धर्म हैं। ऋत का संरक्षक (रक्षा करने वाला)वरूण को कहा जाता है।

    ऋत् की अवधारणा के समान ही देवी आदिति की अवधारणा में भी नैतिक व्यवस्था का आधार प्राप्त होता है। आदिति संज्ञा शब्द है और इसका अर्थ बन्धन शहित्य है। इस शब्द का स्वतंत्रता मुक्ति और निसीमता के अर्थ में प्रयोग हुआ है। आदिति को आदित्यों की माता कहा गया है। इसी तरह देवताओं के लिए ऋत जात शब्द का प्रयोग किया गया है।

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