यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप
यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप |
यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप
यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति 'यज्' धातु
में – यजयाचयतविच्छ प्रक्षरक्षो नङ (अष्टाध्यायी, 3.3.10 ) इस सूत्र से नङ प्रत्यय करने से होती है जिसका सामान्य अर्थ होता
है - देवपूजा । किन्तु यदि यज् धातु पर गम्भीरता से विचार करें तो इससे तीन अलग-अलग
अर्थ निर्गमित होते हैं । प्रथम देवपूजा, द्वितीय संगतिकरण
और तृतीय दान। सभी प्राणियों के कल्याणार्थ अग्नि, जल,
वायु आदि प्राकृतिक पदार्थों का यथोचित उपयोग करना देवपूजा है। ऐसे
विद्वानों का सत्संग करना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो, संगतिकरण कहलाता है। अपने द्वारा अर्जित विद्या, धन,
धर्म आदि का प्राणि मात्र के लिए प्रयुक्त करना दान है।
श्रौत्रसूत्र (1.2.2) में कहा गया है -देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यज्ञः -
अर्थात् देवता को उद्देश्य में रखकर किसी द्रव्य का त्याग करना यज्ञ कहलाता है।
संहिता, ब्राह्मण और धर्म सूत्रों में दो प्रकार के यज्ञों
की मुख्य रूप से चर्चा की गई है— श्रौत यज्ञ और स्मार्त यज्ञ।
जिनका विधान साक्षात् श्रुति में होता है उन्हें श्रौत यज्ञ कहते हैं एवं जिनका
विधान स्मृतियों में होता है उसे स्मार्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त दोनों
प्रकार के यज्ञों के पुनः तीन भेद किये गये हैं - नित्य, नैमित्तिका
और काम्य। इनके अतिरिक्त भी यज्ञ के अवान्तर एवं प्रकारान्तर भेद किए गये हैं। श्रीमद्भगवतगीता
में कहा गया है कि प्रजापति ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस
यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त हो यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनायें
देने वाला हो। इस यज्ञ द्वारा मनुष्य देवताओं की उन्नति करता है और देवता लोग
मनुष्य की उन्नति करते हैं। यज्ञ के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करते हुए गीता में कहा
गया है कि यज्ञ के परिणाम स्वरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगी जन परम ब्रह्म
परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक
नहीं है। गीता में सत्व, रज एवं तम भेद से यज्ञ तीन प्रकार
का माना गया है। जो यज्ञ शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य समझकर तथा फल को न चाहने वाले
पुरुषो द्वारा किया होता है, वह सात्विक यज्ञ कहलाता है। जो
यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिए तथा फल की कामना से किया जाता है उसे राजस यज्ञ कहते
हैं। शास्त्र विधि से हीन, अन्नदान से रहित, मंत्र हीन, दक्षिणा रहित एवं श्रद्धा रहित यज्ञ को
तामस यज्ञ कहा जाता है।
पंचमहायज्ञ – ये पाँच प्रकार के हैं - ब्रह्म यज्ञ, दैव
यज्ञ, पितृ यज्ञ, नृ यज्ञ, भूत यज्ञ।
'यज्ञ' यजमान के लाभ के लिए किया जाता है।
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