जैन दर्शन में जीव का स्वरूप

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जैन दर्शन में जीव का स्वरूप 

जैन दर्शन में जीव का स्वरूप 

     जैन दर्शन में आत्मा शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। आत्मा के स्थान पर 'जीव' शब्द का प्रयोग किया गया है। यहाँ जीव, आत्मा का पर्यायवाची है। जैन दर्शन में जीव को एक चेतन द्रव्य माना गया है। चैतन्य जीव का मूल लक्षण है। यह जीव में सदैव विद्यमान रहता है। चैतन्य के अभाव में जीव की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जैन दर्शन में जीव को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि 'चेतना लक्षणो जीव:'

     जैन दार्शनिकों का जीव सम्बन्धी यह विचार न्याय-वैशेषिक के आत्मा विचार से भिन्न है, क्योंकि न्याय-वैशेषिक के अनुसार आत्मा स्वभावतः चैतन्य से रहित है। जब आत्मा का सम्पर्क पाँच इन्द्रियों तथा मन से होता है, तो आत्मा में चैतन्य का संचार होता है। अतः स्पष्ट है कि न्याय-वैशेषिक में चैतन्य को आत्मा का आगन्तुक गुण माना गया है, परन्तु जैन दर्शन में चैतन्य को आत्मा का स्वभाव माना गया है। चैतन्य जीव में सर्वदा अनुभूति रहने के कारण जीव को प्रकाशमान माना गया है तथा कहा गया है कि वह अपने आप को प्रकाशित करता है, साथ ही अन्य वस्तुओं को भी प्रकाशित करता है। जैन दार्शनिक जीव को नित्य मानते हैं, जबकि शरीर को नाशवान। जीव और शरीर की इस विभिन्नता के अतिरिक्त दूसरी विभिन्नता यह है कि जीव आकार विहीन है, जबकि शरीर आकार युक्त है।

     जैन दार्शनिकों के अनुसार जीव का अपना कोई आकार नहीं होता, किन्तु वह जिस शरीर को धारण करता है, उसी के अनुरूप आकार ग्रहण कर लेता है; जैसे प्रकाश का अपना कोई आकार नहीं होता, किन्तु जिस कमरे में वह प्रकाशित होता है, उसी कमरे का आकार ग्रहण कर लेता है।

शरीर के आकार में अन्तर होने के कारण जीव के भी भिन्न-भिन्न आकार हो जाते हैं। जैनों का यह मत कि आत्मा का विस्तार सम्भव है, अन्य दार्शनिकों को भी मान्य है। इस विचार को प्लेटो और अलेक्जेण्डर ने भी अपनाया है। उल्लेखनीय है कि जीव के विस्तार और जड़द्रव्य के विस्तार में भेद है। जीव का विस्तार शरीर को घेरता नहीं है, बल्कि यह शरीर के समस्त भाग में अनुभव होता है। इसके विपरीत जड़द्रव्य स्थान को घेरता है। जहाँ पर एक जड़द्रव्य का निवास है, वहाँ पर दूसरे जड़द्रव्य का प्रवेश पाना असम्भव है, परन्तु जिस स्थान में एक जीव है वहाँ दूसरे जीव का भी समावेश हो सकता है। ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार एक कमरे में दो प्रकाश प्रकाशित हो सकते हैं।

   जैन दार्शनिकों के अनुसार यह सारा संसार अनन्त जीवों से परिपूर्ण है। जीव का निवास केवल मनुष्यों, पशुओं और पेड़-पौधों में ही नहीं है, बल्कि छोटे-से-छोटे जीव-जन्तुओं, धातुओं, पत्थरों जैसे पदार्थों में भी होता है। जैन दर्शन में समस्त जीवों को दो श्रेणियों में बाँटा गया है-मुक्त जीव और बद्ध जीव।

मुक्त एवं बद्धजीव

    मुक्त जीव उन आत्माओं को कहा गया है, जिन्होंने मोक्ष को प्राप्त कर लिया है।बद्ध जीव' इसके विपरीत उन आत्माओं को कहा जाता है, जो बन्धनग्रस्त हैं। बद्ध जीव का विभाजन पुन: दो प्रकार के जीवों में किया गया है-'स्थावर' और त्रस'। स्थावर जीव, गतिहीन जीवों को कहा जाता है, ये पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि और वनस्पति में निवास करते हैं। इनके पास सिर्फ एक ही ज्ञानेन्द्रिय होती है-स्पर्श की। इसीलिए इन्हें एकेन्द्रिय जीव भी कहा जाता है। इन्हें केवल स्पर्श का ही ज्ञान होता है। त्रस जीव वे हैं, जो गतिशील होते है।

    विभिन्न प्रकार के जीव-जन्तु तथा मानव आदि इसी श्रेणी में आते हैं। ये निरन्तर विश्व में भटकते रहते हैं। जैन दार्शनिकों ने जितने भी जीवों की चर्चा की है, सभी चेतन हैं। परन्तु जहाँ तक चैतन्य की मात्रा का सम्बन्ध है, भिन्न-भिन्न कोटि के जीवों में चैतन्य की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। कुछ जीवों में चेतना कम विकसित होती है, तो कुछ जीवों में चेतना अधिक विकसित होती है। सबसे अधिक विकसित चेतना मुक्त जीवों की होती है। इन्हें एक छोर पर रखा जा सकता है। सबसे कम विकसित चेतना स्थावर जीवों में है, इसलिए इन्हें दूसरे छोर पर रखा जा सकता है।

जीव के अस्तित्व के लिए प्रमाण

जैन दर्शन में जीव के अस्तित्व के लिए निम्नलिखित प्रमाण प्रस्तुत किए गए हैं

    किसी भी वस्तु का ज्ञान उसके गुणों को देखकर होता है। इसी प्रकार हमें जीव के गुणों; जैसे-चेतना, सुख-दुःख, सन्देह, स्मृति इत्यादि की प्रत्यक्षानुभूति होती है। इनसे इन गुणों के आधार पर जीव का प्रत्यक्ष अनुभव हो जाता है। इस प्रकार जीव के गुणों को देखकर जीव के अस्तित्व का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाता है।

    शरीर को इच्छानुसार परिचालित किया जाता है। शरीर एक प्रकार की मशीन है। मशीन को चलायमान करने के लिए एक चालक की आवश्यकता होती है। इससे सिद्ध होता है कि शरीर का कोई--कोई चालक अवश्य होगा, वह जीव है।

    आँख, कान, नाक इत्यादि इन्द्रिय ज्ञान के विभिन्न साधन हैं। इन्द्रिय ज्ञान के साधन होने के फलस्वरूप अपने आप ज्ञान नहीं दे सकती हैं। इससे प्रमाणित होता है कि कोई--कोई सत्ता अवश्य है, जो विभिन्न इन्द्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करती है, वह सत्ता ही जीव है।

    प्रत्येक जड़द्रव्य के निर्माण के लिए उपादान कारण (सामग्री) के अतिरिक्त निमित्त कारण की भी आवश्यकता होती है। शरीर भी जड़द्रव्य के समूह से बना है। प्रत्येक शरीर के लिए विशेष प्रकार के पुद्गल कण की आवश्यकता होती है। ये पुद्गल कण शरीर के निर्माण के लिए पर्याप्त नहीं हैं, इनको रूप और आकार देने के लिए निमित्त कारण की आवश्यकता होती है। वह निमित्त कारण जीव ही है।

जीव की विशेषताएँ

जीव की अनेक विशेषताएँ हैं, जो निम्न हैं।

    जीव ज्ञाता है, वह भिन्न-भिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है, परन्तु स्वयं ज्ञान का विषय कभी नहीं होता।

    जीव कर्ता है, वह सांसारिक कर्मों में भाग लेता है। कर्म करने में वह पूर्णत: स्वतन्त्र है। वह शुभ और अशुभ कर्म से स्वयं अपने भाग्य का निर्माण कर सकता है। जैनों का जीव सम्बन्धी यह विचार सांख्य दर्शन के आत्मा सम्बन्धी विचार से विरोधात्मक सम्बन्ध रखता हुआ प्रतीत होता है। सांख्य दर्शन में आत्मा को अकर्ता कहा गया है। जैन दार्शनिकों के अनुसार इस संसार में अनन्त जीव विद्यमान हैं।

    जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त है अर्थात् जीव में अनन्त ज्ञान, आनन्द दर्शन, अनन्त शक्ति तथा अनन्त आनन्द विद्यमान है। अनन्तचतुष्ट्य मुक्त जीव का स्वरूप है, बन्धन की स्थिति में जीव का अनन्तचतुष्ट्य से युक्त स्वरूप बाधित हो जाता है।

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