सांख्य दर्शन का पुरुष विचार
भारतीय दर्शन |
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सांख्य दर्शन का पुरुष विचार |
सांख्य दर्शन का पुरुष विचार
सांख्य दर्शन द्वैतवादी दर्शन है। सामान्यत: जिस सत्ता
को अधिकांशत: भारतीय दार्शनिकों ने आत्मा कहा है, उस सत्ता
को सांख्य दर्शन में पुरुष की संज्ञा दी गई है। सांख्य दर्शन का पुरुष चारित्रिक रूप
से भारत के अन्य दर्शन के आत्म तत्त्व से भिन्न है, क्योंकि
सांख्य दर्शन में चेतना को 'पुरुष' कहा गया
है। उल्लेखनीय है कि हम कभी यह नहीं कहते कि पुरुष वह है, जिसमें
चेतना होती है, बल्कि चेतना ही पुरुष है। यहाँ इस चेतन तत्त्व को ही पुरुष की संज्ञा
दी गई है।
पुरुष ज्ञानस्वरूप है। जब तक पुरुष अनादि अज्ञान के कारण अपने आप
को शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार आदि उपाधियों
से युक्त समझता है, तब तक इस पुरुष को सोपाधिक पुरुष कहते हैं। जब यह अनादि अज्ञान समाप्त
हो जाता है, तब सोपाधिक पुरुष अपने को जान पाता है कि मैं तो केवल चेतना हूँ।
मेरा मन, बुद्धि, शरीर आदि से कोई
सम्बन्ध नहीं है। मैं त्रिगुणातीत हूँ अर्थात् पुरुष सत्, रज, तम् आदि
गुणों से परे है। पुरुष अनुभवकर्ता नहीं है। पुरुष निष्क्रिय है, निर्लिप्त, दृष्टा
तथा नित्यमुक्त है, किन्तु जब पुरुष अपने आप को अज्ञानी, कर्ता, भोक्ता
आदि समझने लगता है, तब वह बन्धन में हो जाता है। अतः स्पष्ट है कि बन्धन में सोपाधिक
पुरुष रहता है न कि 'पुरुष'। यह सोपाधिक
पुरुष ही सत्, रज, तम् गुणों का अनुभवकर्ता, सक्रिय तथा संसार
की वस्तुओं में लिप्त रहता है।
अहंकार के तीन भेद होते हैं-
- सात्विक (वैचारिक) इसमें
सत् गुण की आपेक्षिक प्रधानता है। इस अहंकार से ज्ञानेन्द्रियों व कर्मेन्द्रियों
तथा प्रज्ञा एवं आन्तरिक इन्द्रिय मन का विकास होता है।
- राजस
इसमें रजोगुण की प्रधानता होती है। यह सात्विक एवं तामसिक दोनों अहंकारों में
सहायक होता है। राजस दोनों को शक्ति प्रदान करता है।
- तामस
तामस अहंकार से सर्वप्रथम पंचतन्मात्रों रूप, रस,
गन्ध, स्पर्श व
शब्द की उत्पत्ति होती है। सूक्ष्म होने के कारण 'तन्मात्र'
तथा दिखाई न देने के कारण ‘अविशेष'
कहलाते हैं। इन्हीं पाँच तन्मात्रों से पाँच महाभूत-पृथ्वी,
अग्नि, जल,
वायु व आकाश की उत्पत्ति होती है।
पुरुष के अस्तित्व सिद्धि हेतु तर्क या युक्तियाँ
सांख्य दर्शन में पुरुष की स्वतन्त्र सत्ता (अस्तित्व) सिद्ध
करने के लिए निम्नांकित उक्ति दी गई है-
“संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादि विपर्ययादधिष्ठनात्।
पुरुषोस्ति भोक्तृभावात कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च। ”
इस उक्ति के निहितार्थ को निम्नांकित बिन्दुओं में समझा जा सकता
है-
संघातपरार्थत्वात् सभी जड़ वस्तुएँ किसी अन्य के लिए
हैं,
स्वयं
अपने लिए नहीं हैं और वह अन्य कोई चेतना ही हो सकती है। इस चेतना को ही सांख्य में
पुरुष कहा गया है।
त्रिगुणादि विपर्ययात् त्रिगुणात्मक
प्रकृति के अस्तित्व से तर्कत: सिद्ध होता है
कि कोई त्रिगुणातीत सत्ता भी है। उस त्रिगुणातीत सत्ता को ही पुरुष कहते हैं।
अधिष्ठानात् हमारा समस्त लौकिक ज्ञान तथा सुख, दुःख, उदासीनता
आदि का अनुभव ज्ञाता की ओर संकेत करता है। इस लौकिक ज्ञान और अनुभव का आधार कोई चेतन
तत्त्व ही हो सकता है और वह चेतन तत्त्व 'पुरुष' है।
भोक्तृभावात सभी जड़ वस्तुएँ भोग्य हैं, सुखानुभूति
तथा दुःखानुभूति के लिए। अत: कोई भोक्ता अवश्य
है जो चैतन्य है और वह चैतन्य ही पुरुष है।
कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च अनेक व्यक्तियों
में इच्छा होती है इस संसार से मुक्त होने की, क्योंकि
सांख्य के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य कैवल्य है। इसकी प्राप्ति की प्रवृत्ति या इच्छा
चेतन तत्त्वों में ही हो सकती है और वह चेतन तत्त्व पुरुष है। अत: उपरोक्त
तर्कों के आधार पर पुरुष के अस्तित्व की सिद्धि होती है।
पुरुष की बहुलता (अनेकता) के लिए युक्तियाँ
सांख्य दर्शन पुरुष की अनेकता के प्रमाण प्रस्तुत करता है, जिससे यह अन्ततः पुरुष बहुत्ववाद या अनेकात्मवाद में परिणत हो जाता है। सांख्य दर्शन जब यह कहता है कि पुरुष अनेक हैं, तो इससे सोपाधिक पुरुष की अनेकता सिद्ध होती है। इस अनेकता को सिद्ध करने हेतु निम्नांकित उक्ति प्रस्तुत करता है
“जननमरणकरणानां प्रतिनियमात्युगपत
प्रवृत्तेश्च।
पुरुष बहुत्व सिद्ध त्रैगुण्यविवर्ययाच्चैव।।
"
इस उक्ति के निहितार्थ को निम्नांकित बिन्दुओं में समझा जा सकता
है-
जनन विभिन्न पुरुषों का जनन अलग-अलग होता
है,
अत: 'पुरुष' की अनेकता
सिद्ध होती है।
मरण विभिन्न पुरुषों की मृत्यु अलग-अलग होती
है,
अत: पुरुष
अनेक हैं, क्योंकि यदि पुरुष को अनेक न माना जाए, तो फिर
एक पुरुष की मृत्यु से बाकी समस्त मनुष्यों की मृत्यु को स्वीकार करना पड़ेगा, किन्तु
ऐसा नहीं होता।
करणानां विभिन्न पुरुषों का व्यक्तित्व अलग-अलग होता
है। अत: पुरुष अनेक हैं; जैसे--कोई बहरा
है,
कोई
लंगड़ा है, कोई तेज बुद्धि वाला है आदि। इससे सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक हैं।।
अयुगपत प्रवृत्तेश्च विभिन्न पुरुषों की प्रवृत्तियाँ/ क्रियाएँ अलग-अलग होती हैं। ये क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं-शारीरिक तथा मानसिक; जैसे-कोई रो रहा है, हँस रहा है, गा रहा है, क्रोध में है आदि। इससे सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक हैं। अत: स्पष्ट है कि सांख्य दर्शन में जगत् के विकास के लिए पुरुष का औचित्य है, क्योंकि पुरुष ही विकास को निर्देशित करता है। यद्यपि समस्त विकास प्रकृति से होता है, परन्तु उसके लिए पुरुष का सहयोग अनिवार्य है, इसलिए पुरुष अनिवार्य सहयोगी की भूमिका में है, क्योंकि वह विकास के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है।
पुरुष की अनेकता की आलोचना
पुरुष की अनेकता की आलोचना निम्नलिखित तरीकों से की जा सकती है-
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सांख्य दर्शन में आध्यात्मिक पुरुष की विशेषताएँ
बताई गई हैं, परन्तु उसकी अनेकता के सन्दर्भ में लौकिक पुरुष को स्वीकार किया
गया है।
●
सांख्य का पुरुष विचार कर्म-नियम
की अवधारणा से संगति स्थापित करने में सफल नहीं हो सका। यहाँ पुरुष निष्क्रिय होने
के कारण अकर्ता माना गया है और ऐसी स्थिति में उसे भोक्ता नहीं मान सकते।
●
पुरुष को चेतन मानने के साथ-साथ निष्क्रिय
मानना असंगत है।
●
यदि पुरुष स्वतन्त्र, नित्य
एवं शुद्ध चैतन्य स्वरूप, साथ ही पूर्ण
ज्ञान स्वरूप है, तो कभी अज्ञान से ग्रसित नहीं हो सकता तथा बन्धन में नहीं पड़ सकता।
●
सांख्य दर्शन में जीवों के गुण, क्रिया, जन्म-मरण और
आकृति-प्रकृति के भेद से पुरुषों का अनेकत्व सिद्ध किया गया है, परन्तु
ये सभी तो शरीर के धर्म हैं, पुरुष के नहीं, क्योंकि
पुरुष तो अकर्ता, नित्य, अभोक्ता है, फिर उसके
बल पर पुरुष बहु-तत्त्ववाद की स्थापना कैसे की जा सकती है? अतः पुरुष
को अनेक बना देना सांख्य दर्शन की गम्भीर त्रुटि है।
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