Wednesday, July 20, 2022

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार // Prama and Aprama Thoughts in Nyaya Philosophy

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार // Prama and Aprama Thoughts in Nyaya Philosophy

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार

प्रमा / Prama

       “प्रमियते अनेन इति प्रमा” अर्थात प्रमा अवस्थाओं का यथार्थ ज्ञान है। इसमें वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है, जैसे - घट को घट के रूप में जानना प्रमा है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति अनुसार ‘प्रमा उस वस्तु की अभिव्यक्ति है जिससे किसी प्रयोजन की सिद्धि होती है’। यह विचार पाश्चात्य दर्शन के व्यवहारवादी सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। मीमांसकों के अनुसार – ‘अनधिगत ज्ञान प्रमा है’। पार्थसारथी मिश्र ने शास्त्रदीपिका में कहा हैं – “यथार्थमगृहीत ग्राही ज्ञानम् प्रमा इति” अर्थात् अग्रहीत ज्ञान का ग्रहण प्रमा है। नैयायिकों के अनुसार – ‘प्रमा किसी वस्तु का असंदिग्ध ज्ञान है’। गंगेश उपाध्याय के अनुसार – “यत्रयदस्ति तत्र तस्यानुभव: प्रम”। अन्नंभट्ट के अनुसार – “तद्वति तत्प्रकारका रकानुभवो यथार्थ:”। अद्वैत वेदान्त में प्रमा को नवीन एवं अबाधित माना गया है। इस संदर्भ में धर्मराजाध्वरीन्द्र ने वेदान्त परिभाषा में कहा है – “अनधिगताबाधितार्थ विषयक ज्ञानत्वम् प्रमात्वम्"। यहां पर ध्यातव्य यह है कि जहाँ मीमांसक प्रमा को अनधिगत मात्र मानते हैं वहीं दूसरी ओर वेदान्ती अनधिगत के साथ अबाधित लक्षण भी प्रमा में स्वीकार करते हैं। अद्वैत वेदान्तियों द्वारा अबाधित ज्ञान को प्रमा कहने का मात्र कारण यह है कि अनधिगत ज्ञान के अधार पर प्रमा का विश्लेषण करने के बाद विरोधी अनुभवों के उपस्थित होने पर प्रमा अप्रमा हो जाने की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्रमा और अयथार्थ ज्ञान को अप्रमा कहा जाता है। 

         न्याय दर्शन में प्रमेय विचार - प्रमाण के द्वारा हम जिन पदार्थों के ज्ञान की प्राप्ति करते हैं, उन्हें प्रमेय कहा जाता है। न्याय सूत्र में प्रमेय 12 बताये गये हैं - आत्मा-शरीर-इन्द्रिय अर्थ-बुद्धि-मन-प्रवृत्ति दोष-प्रेत्यभाव-फल-दुःख अपवर्गास्तु प्रमेयम्'। इनमें आत्मा प्रथम है। तर्कभाषा में आत्मा का लक्षण "आत्मत्वसामान्यवानात्मा” दिया गया है, जिसका अर्थ है - आत्मत्व नामक सामान्य (जाति) जिस पर रहता है उसे आत्मा कहा गया है। इसके अतिरिक्त आत्मा को शरीर से भिन्न, अनेक एवं विभु कहा गया है। आत्मा के भोग का आश्रय 'शरीर' कहलाता है। शरीरसंयुक्त अतीन्द्रिय ज्ञानकरण को 'इन्द्रिय' कहते हैं। 'अर्थ' पदार्थ का बोधक है जिनकी संख्या 6 है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष समवाय। “अर्थप्रकाशो बुद्धिः” अर्थविषयक प्रकाश को ‘बुद्धि' कहते हैं। सुख-दुःखादि की उपलब्धि का साधनभूत अन्तरिन्द्रिय 'मन' कहलाता है। शास्त्रविहित एवं शास्त्रनिषिद्ध कर्मों के आचरण से उत्पन्न होने वाले अदृष्ट (धर्म-अधर्म) को प्रवृत्ति कहते हैं। राग, द्वेष एवं मोह संयुक्त रूप से 'दोष' कहलाते हैं। पुनरुत्पत्ति (मरण के पश्चात् पुनर्जन्म का होना) को 'प्रेत्यभाव' कहते हैं। सुख-दुःख के अनुभवरूप भोग को 'फल' कहा जाता है। पीड़ा (जो सभी को प्रतिकूलवेदनीय हो) को 'दुःख' कहते हैं। 21 प्रकार के दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति 'अपवर्ग' कहलाती है । 

      अन्य पदार्थ विचार - एक धर्मी में परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मों का बोध 'संशय' कहलाता है। जिस अर्थ को अधिकृत करके मनुष्य किसी कर्म में प्रवृत्त होता है उसे ‘प्रयोजन' कहते हैं। जिस विषय में वादी प्रतिवादी दोनों एकमत हों, वह 'दृष्टान्त' कहलाता है। किसी दर्शन द्वारा प्रामाणिक रूप से स्वीकृत अर्थ को ‘सिद्धान्त' कहते हैं। अनुमान वाक्य के अंश (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन) अवयव कहलाते हैं। व्याप्य के आरोप से व्यापक का आरोप 'तर्क' कहलाता है। निश्चयात्मक ज्ञान को 'निर्णय' कहते हैं। तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा से होने वाली कथा 'वाद' कहलाती है। विजय की इच्छा से की जाने वाली कथा 'जल्प' होती है। जल्प कथा में जब कोई पक्ष अपने अभिमत की स्थापना न करके केवल प्रतिपक्ष का खण्डन ही करता है तो वह ‘वितण्डा' कहलाती है। असद हेतु को 'हेत्वाभास' कहते हैं। वक्ता द्वारा किसी भिन्न अभिप्राय से कहे गए वाक्य को सुनकर श्रोता द्वारा उसका भिन्न अर्थ मानकर दोष प्रदर्शन को 'छल' कहते हैं। असंगत उत्तर को 'जाति' कहते हैं। पराजय के निमित्त को ‘निग्रहस्थान’ कहते हैं । 

          मोक्ष - न्याय दर्शन में मोक्ष को अपवर्ग तथा निःश्रेयस भी कहा गया है। प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है। 

'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजन- दृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थाना नां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः 

(न्यायसूत्र, 1.1.1) 



Tuesday, July 19, 2022

न्याय दर्शन // Nyaya

न्याय दर्शन // Nyaya

 न्याय दर्शन का परिचय 

       ‘नीयते अनेन इति न्यायः' अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा परमतत्त्व की ओर ले जाया जाए वह 'न्याय' है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार “प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः" अर्थात् प्रमाणों की सहायता से वस्तु-तत्त्व का परीक्षण करने की प्रणाली ही न्याय कहलाती है। न्याय की इस विचार प्रक्रिया का मूल कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चरकसंहिता तथा सुश्रुतसंहिता में उपलब्ध होता है जहाँ इसे ‘आन्वीक्षिकी’ के रूप में विवेचित किया गया है। अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं का प्रकाशक, समस्त कर्मों का साधक तथा समग्र धर्मों का आश्रय कहा गया है  - 

प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।

आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।। (अर्थशास्त्र, 1.1.1) 

उचित निष्कर्ष पर पहुँचना तर्क के द्वारा सम्भव है, मुख्यतः यह दर्शन तर्क विद्या का प्रतिपादन करता है, इसलिए यह तर्कशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन को प्रमाणशास्त्र, हेतु-विद्या, आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन को उसके प्रमाण शास्त्र के कारण अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अन्य भारतीय दर्शन परम्पराओं को 'वादविधि की प्रक्रिया' का ख्यापन न्यायशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अवदान है। 

       न्याय दर्शन का इतिहास लगभग 2000 वर्षों में समाविष्ट है। इस विशाल दर्शन को विद्वानों ने तीन भागों में विभक्त किया है - प्राचीन न्याय, मध्य न्याय तथा नव्य-न्याय। दूसरी शताब्दी ई.पू. से छठी शताब्दी ई. का समय प्राचीनन्याय का है। मध्यन्याय का समय 6-12वीं शताब्दी तक है। बारहवीं शताब्दी एवं उसके बाद का दर्शन नव्य-न्याय में रखा जाता है। बारहवीं शती के गंगेश उपाध्याय ने नव्य-न्याय की आधारशिला रखी थी। अन्य दर्शनों की भाँति न्याय दर्शन का भी मुख्य उद्देश्य दुःखों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना ही है। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति तत्त्वज्ञान से अर्थात् द्वादश प्रमेयों के ज्ञान से प्राप्त होती है। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नष्ट होता है, जिससे दोष अर्थात् राग-द्वेष नष्ट होते हैं तथा मुक्ति मिलती है। 

न्याय दर्शन का साहित्य 

न्याय दर्शन के साहित्य को 3 भागों में देखा जा सकता है - 

1- प्राचीन न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक

  • गौतम - तर्क विद्या प्राचीन काल से ही भारत में विद्यमान रही है। उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु न्याय दर्शन को व्यवस्थित रूप में , एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय महर्षि गौतम को जाता है जिनका 'न्यायसूत्र' इस मूल ग्रन्थ माना जाता है। इसमें 5 अध्याय 10 आह्निक, 84 प्रकरण तथा 528 सूत्र हैं। 
  • वात्स्यायन - न्यायसूत्र पर सर्वप्रथम भाष्य वात्स्यायन ने लगभग चतुर्थ शताब्दी ई. में लिखा जो 'वात्स्यायन भाष्य' या 'न्यायभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। 

 2. मध्य न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • उद्योतकार - वात्स्यायन भाष्य पर न्यायवार्तिक नाम की टीका लिखी, इनका समय लगभग 650 ई. कश्मीर में माना जाता है। 
  • वाचस्पतिमिश्र - इनका समय 841 ई में माना जाता है। ये मिथिला के निवासी थे तथा इन्हें षड्दर्शनीवल्लभ की उपाधि से जाना जाता है। इन्होंने न्यायवार्तिक पर तात्पर्यटीका लिखी जो ‘न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका’ के नाम से प्रसिद्ध है। 
  • जयन्तभट्ट - 9 वीं शताब्दी में जयन्तभट्ट ने न्यायशास्त्र पर एक विशाल ग्रन्थ लिखा जो न्यायमञ्जरी के नाम से प्रसिद्ध है, इसमें आह्निकों की संख्या 84 है।
  • उदयन - इनका समय 984 ई0 माना जाता है। इन्होंने तात्पर्यटीका पर एक उपटीका लिखी, जो 'न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि' नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'न्यायकुसुमांजलि' एवं 'आत्मतत्त्वविवेक’ उनके दो अन्य प्रसिद्ध न्यायग्रन्थ हैं । 

3- नव्य-न्याय (प्रमाण प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • गंगेश उपाध्याय - नव्यन्याय के प्रवर्तक के रूप में विख्यात गंगेश उपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि’ नाम से ग्रन्थ लिखा, जो 4 खण्डों मे विभाजित है, जिसमें इन्होंने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द की विशद् व्याख्या की है। 'तत्वचिन्तामणि' की व्याख्या परम्परा में वर्धमान ने 'प्रकाश', पक्षधर मिश्र ने 'आलोक', शंकरमिश्र ने 'मयूख' रघुनाथ शिरोमणि ने 'दीधिति', मथुरानाथतर्कवागीश ने 'रहस्य', जगदीश तर्कालंकार ने दीधितिप्रकाश (जागदीशी), हरिराम तर्कवागीश ने ‘तत्त्वचिन्तामणिविचार' तथा गदाधर भट्टाचार्य ने 'दीधितिप्रकाशिका' नाम से विस्तृत एवं प्रौढ़ टीकाग्रन्थों की रचना की है। 

न्याय दर्शन के अन्य प्रमुख प्रवर्तक 

  • भासर्वज्ञ - 10 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में आचार्य भासर्वज्ञ ने 'न्यायसार' नामक प्रमाणाधारित प्रकरण ग्रन्थ की रचना की है जो कि अपनी मौलिक एवं नवीन उद्भावनाओं के लिए प्रसिद्ध है। 
  • वरदराज - इनके ग्रन्थ का नाम ‘तार्किकरक्षा' है तथा इनका समय 1150 ई. का है। यह वैशेषिकपदार्थसमावेष्टा न्याय का प्रकरण ग्रन्थ है। 
  • केशव मिश्र - मिथिला के इस प्रसिद्ध नैयायिक ने 13 वीं शताब्दी में 'तर्कभाषा' की रचना की है जिसे न्यायदर्शन में प्रवेश का द्वार माना जाता है। 

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