Sunday, November 19, 2023

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत्। भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमन् कुतः॥” अर्थात् जब तक जियो सुख से जियो ऋण लेकर भी घी पियो। एक बार शरीर भस्म हो जाए तो फिर कौन लौटकर आता है।

आज प्रत्येक युवा पीढ़ी इसी दर्शन को फॉलो कर रही है। उन्हें सुखवाद को लेकर एक अजीब सा जनून पैदा हो गया है। हर कोई यह चाहता है कि मुझे बस सुख मिल जाए चाहे उसके लिए वह कितना भी आध्यात्मिक पतन क्यों न कर ले। वह अपने सुख की कामना केवल आर्थिक संसासधनों में खोजने लगा है और अपनी आर्थिक उन्नति के लिए समाज के नैतिक मूल्यों को बेशर्मी के साथ सोशल प्लेटफ़ॉर्म पर परोस रहा है। नित रोज नैतिक मूल्यों का जो अवमूल्यन इन सोशल प्लेटफॉर्म्स पर हो रहा है उसके पीछे केवल और केवल सुख की चाहा है। इस सुख की चाहा चार्वाक दर्शन भी करता है इसलिए तो चार्वाक दर्शन को सुखवादी दर्शन कहते है। परन्तु नैतिक अवमूल्यन की जो पराकाष्ठा आज देखने को मिल रही है इतनी तो शायद चार्वाक सम्प्रदायों में भी नहीं थी। वे भी अपना एक प्रकार का दर्शन रखते थे। उनकी भी कुछ परम्पराएं-मान्यतायें थी। जिनको आज विश्व के प्रत्येक व्यक्ति जो जानना चाहिए।

चार्वाक दर्शन की प्रमुख मान्यताएं

1-    जड़वादी परम्परा का अनुसरण – भारतीय जड़वाद के लिए प्रायः चार्वाक शब्द का प्रयोग किया जाता है। चार्वाक शब्द के मूल अर्थ के विषय में विद्वानों में प्रायः मतभेद देखने को मिलता है। कुछ विद्वानों चार्वाक को इस सम्प्रदाय का संस्थापक मानते है जिसके कारण ही यह सम्प्रदाय चार्वाक कहलाया। अन्य कुछ विद्वानों का मानना है कि चार्वाक शब्द ‘चर्व’ धातु से बना है जो कि चबाना या भोजन के अर्थ में प्रयुक्त होती है। इस मत का मानना था कि ‘पिव, खाद च वर लोचने’ अर्थात खाने-पीने पर अधिक ध्यान दो। अन्य कुछ विद्वानों का मानना है कि चारु+वाक् अर्थात् मीठी-वाणी बोलने के करण इस सम्प्रदाय को चार्वाक कहा गया। अन्य कुछ विद्वानों का यह भी मानना है कि गुरु बृहस्पति ने इस निराभौतिकवादी दर्शन का प्रचार दैत्यों के विनाश के लिए किया था। इस दर्शन को लोकायत भी कहा जाता है क्योंकि इस मत का प्रचार संसार के अधिकांश लोग स्वतः ही करते हैं और मानते भी हैं।  

2-    केवल प्रत्यक्ष प्रमाण की स्वीकार्यता – लोगों को अक्सर एक कहावत सुनते देखा होगा “प्रत्यक्षमेकं प्रमाणम्” अर्थात् प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। यह उक्ति चार्वाक दर्शन सम्प्रदाय में बृहस्पति-सूत्र से ली गई है। इस प्रकार इस दर्शन सम्प्रदाय के लोग केवल प्रत्यक्ष को ही प्रमाण के रूप में स्वीकार करते हैं। चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष प्रमाण में इन्द्रिय और विषय के सन्निकर्ष से उत्पन्न ज्ञान को ही ज्ञान अर्थात् प्रमा मानता है।

3-    अनुमान प्रमाण का खण्डन – चार्वाक सम्प्रदाय के लोग अनुमान ज्ञान को निश्चयात्मक नहीं मानते हैं, क्योंकि अनुमान व्याप्ति पर निर्भर है और व्याप्ति प्रत्यक्ष ज्ञान से सम्भव नहीं है। व्याप्ति क्यों सम्भव नहीं ? इसका उत्तर चार्वाक सम्प्रदाय में इस प्रकार दिया गया है – चार्वाकों का मानना है कि अनुमान तभी युक्तिपूर्ण तथा निश्चयात्मक हो सकता है जब व्याप्ति सर्वथा निःसंदेह हो, क्योंकि व्याप्ति उसे कहते है जिसमें लिंग (साधन) और लिंगी (साध्य) का अनिवार्य सम्बन्ध सथापित हो। हम ‘सभी मनुष्य मरणशील हैं’ को निश्चयात्मक मानते हैं परन्तु हमने सभी मनुष्यों को मरते हुए तो नहीं देखा और न ही सभी मनुष्यों के मारने का प्रत्यक्ष सम्भव है, तो हम कैसे इस वाक्य को निश्चयात्मक मान सकते हैं। अतः प्रत्यक्ष के द्वारा व्याप्ति सम्भव नहीं है।

4-    शब्द प्रमाण का खण्डन – चार्वाक सम्प्रदाय शब्द प्रमाण का भी खण्डन करता है और कहता है कि अप्रत्यक्ष वस्तुओं के सम्बन्ध में शब्द विश्वसनीय नहीं है। शब्द प्रमाण में जो आप्त व्यक्ति है उसकी भावना संदिग्ध हो सकती है क्या पता वह अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए आप्त वाक्यों की रचना कर रहा हो। इसलिए चार्वाक सम्प्रदाय के लोगों ने वैदिक वाक्यों को धूर्त पुरोहितों की रचना माना है और कहा है कि इन्होंने अपने व्यावसायिक लाभ के लिए यह मायाजाल फैलाया है।

5-    चार महाभूतों को मान्यता – चार्वाक पंचभूतों में से केवल चार भूत – पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि को ही सत्ता रूप में स्वीकार किया है। आकाश को चार्वाकों ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि इसका प्रत्यक्ष सम्भव नहीं, यह केवल अनुमानगम्य है। चार्वाक इन्हीं चार भूतों से सृष्टि की उत्पत्ति स्वाभाविक रूप में मानते है।

6-    चेतना विशिष्ट शरीर के रूप में आत्मा की मान्यता – चार्वाक दर्शन में कहा गया है – ‘चैतन्य विशिष्ट देह एवं आत्मा’ अर्थात् चेतन से युक्त यह विशिष्ट शरीर ही आत्मा है। यह चेतन शरीर चार जड़ भूतों से ही उत्पन्न होता है। इसके लिए चार्वाक उदाहरण देता है कि ‘किण्वन प्रक्रिया से अन्न आदि पदार्थों में मादकता का गुण आ जाता है ठीक उसी प्रकार जड़ तत्त्वों के विशेष प्रकार के मिश्रण से उनमें चेतनत्व आ जाता है।

7-    चरम पुरुषार्थ में काम की स्वीकार्यता – चार्वाक भारतीय दर्शनों में वर्णित चार पुरुषार्थों – धर्म अर्थ, काम और मोक्ष में से अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ के रूप में स्वीकार करता है। चार्वाक दर्शन में कहा गया है – “मरणं एव अपवर्गः” अर्थात् मृत्यु ही मोक्ष है। अतः जीवन में सुख प्राप्त करना ही मानव जीवन का अन्तिम लक्ष्य है। स्त्री सुख को चार्वाक काम के रूप में मनुष्य का चरम पुरुषार्थ स्वीकार करता है।

8-    ईश्वर के अस्तित्व का खण्डन – चार्वाक दर्शन ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करता है और ईश्वर का तीन प्रकार से खण्डन करता है –

·        ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं।  
·        ईश्वर न्यायाधीश भी नहीं। 
·        ईश्वर के लिए भी सृष्टि नहीं।

             उपरोक्त विवरण से यह तो स्पष्ट है कि चार्वाक दर्शन एक नास्तिक, जड़वादी और सुखवादी दर्शन है। इस दर्शन में मनुष्यों का चरम लक्ष्य केवल भौतिक सुख को प्राप्त करना है। इस दर्शन में मनुष्यों के लिए उपदेश है कि “भविष्य के सुख के लिए वर्तमान का सुख त्यागना मूर्खता है साथ ही ईश्वर आदि देवों के भय से भी भौतिक सुख का त्याग करना मूर्खता है।”

आज वर्तमान में भी आपको ये वाक्य अक्सर लोगों से सुनने को मिलते होंगे परन्तु जो लोग इन वाक्यों को कहते है अपने देखा होगा वे सभी स्वार्थी, कपटी व लालची किस्म के लोग है। सोचो अगर इस तरह के लोगों की संख्या समाज में अधिक हो जाए तो क्या होगा ? इसलिए आज के इस दौर में भी चार्वाकी लोग बहुत है जिनको एक आदर्श समाज का अग्रणी दूत नहीं माना जा सकता। यह चार्वाकी समाज स्वतः एक किसान के खेत में उगने वाला वह खतपतवार है जिसकी किसान समय-समय पर निराई-गुड़ाई करता रहता है। अतः सभ्य लोगों का दायित्व है कि इन लोगों के दर्शन को समझे और समाज को उन्नति और शान्ति की और अग्रसर करने के लिए चार्वाकी को भारतीय दर्शन परम्परा में पूर्व पक्ष मानकर उनका ज्ञान के द्वारा शुद्धिकरण करें।


Monday, November 13, 2023

भारतीय दर्शन की वस्तुनिष्ठ तैयारी कैसे करें ?

 भारतीय दर्शन की वस्तुनिष्ठ तैयारी करने के लिए आपको निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए:

भारतीय दर्शन के विभिन्न स्कूलों, उनके प्रमुख विचारकों, उनके सिद्धांतों और उनके आपसी सम्बन्धों का अच्छी तरह से अध्ययन करें।

भारतीय दर्शन के संबंध में विभिन्न प्रश्नोत्तरी, टेस्ट सीरीज, नोट्स और अन्य सामग्री का उपयोग करें। आप इन्हें इंटरनेट पर आसानी से ढूंढ सकते हैं।

भारतीय दर्शन के संबंध में निम्नलिखित वेबसाइटों पर जाएं और उनकी सामग्री को पढ़ें और समझें।

इनके साथ-साथ इन लिक्स के द्वारा आप स्वयं के ज्ञान की जाँच कर सकते है -

भारतीय दर्शन
वस्तुनिष्ठ प्रश्न संग्रह
test your own knowledge

1-          वैदिक एवं औपनिषदिक दर्शन

2-          चार्वाक दर्शन

3-          जैन दर्शन

4-          बौद्ध दर्शन

5-          न्याय दर्शन

6-          वैशेषिक दर्शन

7-          सांख्य दर्शन

8-          योग दर्शन

9-          मीमांसा दर्शन

10-     वेदान्त दर्शन

आशा है कि यह जानकारी आपके लिए उपयोगी होगी।  😊

Saturday, August 6, 2022

न्याय दर्शन में प्रमाण के सिद्धान्त // Principles of Proof in Philosophy of Justice

न्याय दर्शन में प्रमाण के सिद्धान्त // Principles of Proof in Philosophy of Justice

न्याय दर्शन में प्रमाण के सिद्धान्त // Principles of Proof in Philosophy of Justice

प्रमाण विचार न्याय दर्शन में 16 पदार्थों के तत्त्वज्ञान द्वारा मोक्ष की प्राप्ति मानी जाती है । 

'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्क निर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः। (न्यायसूत्र, 1.1.1) 

अर्थात प्रमाणादि षोडश पदार्थों के तत्त्वज्ञान से अपवर्ग (मोक्ष) की प्राप्ति होती है। 

       प्रायः सभी भारतीय दर्शन तत्त्व विचार करने के पूर्व तत्त्व को जानने के साधन पर विचार करते हैं। ये साधन ही प्रमाण कहे जाते हैं। प्रमा ( यथार्थ ज्ञान ) की प्राप्ति के साधन को प्रमाण कहते हैं 'प्रमीयते अनेन इति प्रमाणम्, तथा 'प्रमाकरणं प्रमाणम्’। प्रमाण के चार प्रकार हैं - 

1. प्रत्यक्ष प्रमाण 

महर्षि गौतम ने न्यायसूत्र में कहा है – 

इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानम्। 

अव्यपदेशमव्यभिचारिव्यवसायात्मक प्रत्यक्षम् ।। (न्यायसूत्र)

        इसका अभिप्राय इन्द्रिय और अर्थ (वस्तु) के सन्निकर्ष (समीपता) से उत्पन्न ऐसा ज्ञान, जो भाषा पर आधारित न हो, जो भ्रामक न हो तथा जो अनिश्चित न हो, वह प्रत्यक्ष ज्ञान है। प्रत्यक्ष के दो भेद हैं - लौकिक प्रत्यक्ष तथा अलौकिक प्रत्यक्ष। इन्द्रियों का वस्तु से सम्पर्क होने पर जिस ज्ञान की उपलब्धि होती है उसे लौकिक प्रत्यक्ष कहते है। यह दो प्रकार का होता है – बाह्य प्रत्यक्ष और मानस प्रत्यक्ष। पाँच ज्ञानेन्द्रियों से मिलने वाला ज्ञान बाह्य प्रत्यक्ष होता है जो कि पाँच प्रकार का है – चाक्षुष प्रत्यक्ष, श्रौत प्रत्यक्ष, घ्राण प्रत्यक्ष, स्पर्शज प्रत्यक्ष और रासज प्रत्यक्ष। मन के द्वारा सुख-दुःख आदि का ज्ञान मानस प्रत्यक्ष कहलाता है। 

        एक अन्य दृष्टि से लौकिक प्रत्यक्ष के तीन भेद है – निर्विकल्पक प्रत्यक्ष, सविकल्पक प्रत्यक्ष और प्रत्यभिज्ञा। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में केवल यह ज्ञान होता है कि कोई अमुक वस्तु है। सविकल्पक प्रत्यक्ष में वस्तु के ज्ञान में इन्द्रिय ज्ञान निहित हो जाता है और हम वस्तु की सही-सही जानकारी ले लेते है। प्रत्यभिज्ञा ज्ञान में वस्तु से जुड़े सभी पूर्व संस्कार भी समाहित हो जाते है। 

       अलौकिक प्रत्यक्ष के अन्तर्गत उस ज्ञान की उपलब्धि होती है जो बिना इन्द्रियों के सन्निकर्ष से प्राप्त होता है। इसके भी तीन भेद होते है – समान्य लक्षणा प्रत्यक्ष, ज्ञान लक्षणा प्रत्यक्ष और योगज प्रत्यक्ष। सामान्य ज्ञान की उपलब्धि सामान्य लक्षणा प्रत्यक्ष के कारण होती है। जैसे – मनुष्य को देखकर मनुष्य जाति का ज्ञान या मनुष्यत्व का ज्ञान। जब किसी एक ज्ञानेन्द्रिय प्रत्यक्ष से दूसरी ज्ञानेन्द्रिय का भी ज्ञान हो जाता है तो इसे ज्ञान लक्षणा प्रत्यक्ष कहते है। जैसे हरी-हरी घास को देख कर उसकी कोमलता का ज्ञान भी हो जाना। योग सिद्धि के द्वारा योगियों को होने वाला ज्ञान योगज प्रत्यक्ष कहलाता है। 

2. अनुमान प्रमाण 

       अनुमान दो शब्दों से बना है - अनु तथा मान। अनु का अर्थ पश्चात् तथा मान का अर्थ है ज्ञान, इसका तात्पर्य हुआ- पूर्वज्ञान के पश्चात् होने वाला ज्ञान ‘अनुमान' है। न्यायदर्शन में सामान्यतः अनुमिति के करण को अनुमान प्रमाण कहा जाता है। अनुमान प्रमाण के दो भेद किये गये हैं - स्वार्थानुमान एवं परार्थानुमान। स्वार्थानुमान का प्रयोग व्यक्ति स्वयं के लिए करता है। जब किसी अन्य व्यक्ति को समझाने के लिए अनुमान प्रमाण का प्रयोग किया जाता है, तब उसे परार्थानुमान कहते हैं । यथा- पर्वत में अग्नि है (प्रतिज्ञा), क्योंकि वहाँ धुआँ है (हेतु), जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है, जैसे- रसोईघर में (उदाहरण), पर्वत में धुआँ है (उपनय), इसलिए पर्वत में अग्नि है (निगमन)। इस प्रकार से पाँच वाक्यों द्वारा अनुमान की प्रक्रिया पूर्ण होती है। 

अनुमान के भेद – अनुमान के तीन आधार पर भेद किए गए है –

  1. पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट – यह भेद प्राचीन न्याय के अनुसार है। 
  2. केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी और अन्वयव्यतिरेकी – यह भेद नव्य-न्याय के अनुसार है। 
  3. स्वार्थानुमान और परार्थानुमान – यह भेद मनोवैज्ञानिक दृष्टि के अनुसार है। 

स्वार्थानुमान – जब अनुमान की प्रक्रिया स्वयं के ज्ञान के लिए पूर्ण की जाती है तो इस विधि स्वार्थानुमान कहते है। इस अनुमान में तीन वाक्यों अर्थात अवयवों का प्रयोग किया जाता है–

  • प्रतिज्ञा – पर्वत पर आग है। 
  • चन्ह या हेतु – क्योंकि पर्वत पर धुआँ है। 
  • उदाहरण – जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है। 

परार्थानुमान – जब दूसरों को समझाने के लिए अनुमान प्रमाण का प्रयोग किया जाता है तो इसे परार्थानुमान कहते है। इसमें पंचावयवों का प्रयोग किया जाता है – 

  • प्रतिज्ञा – पर्वत पर आग है। 
  • चिन्ह या हेतु – क्योंकि पर्वत पर धुआँ है। 
  • उदाहरण – जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ आग होती है।
  • उपनयन – पर्वत में धुआँ है। 
  • निगमन – इसलिए पर्वत में आग है। 

पूर्ववत् अनुमान – कारण को देखकर कार्य का अनुमान पूर्ववत् अनुमान होता है। जैसे – काले बादलों को देखकर वर्षा का ज्ञान होना। 

शेषवत् अनुमान – कार्य को देखकर कारण का अनुमान शेषवत् अनुमान है। जैसे – सड़क को गीली देखकर वर्षा का ज्ञान। 

सामान्यतोदृष्ट अनुमान – सामान्य को देखकर विशेष का ज्ञान सामान्यतोदृष्ट अनुमान है। जैसे – सिंग वाले पशु को देखकर पुंछ का ज्ञान। 

केवलान्वयी अनुमान – जब केवल भावात्मक उदाहरणों के आधार पर व्याप्ति की स्थापना होती है। अभावात्मक उदाहरण मिलते है नहीं, तो उसे केवलान्वयी अनुमान कहते है। जैसे- "जिन्हें नाम दिया जा सकता है, उनका ज्ञान सम्भव है।" इस सामान्य वाक्य के आधार पर हम निम्नलिखित अनुमान उपस्थित कर सकते हैं –

सभी ज्ञेय पदार्थ नामधारी (अभिधेय) है। 

घट नामधारी हैं। 

अतः घट ज्ञेय है। 

     इसे हमने केवलान्वयी अनुमान इसलिए कहा क्योंकि ऐसी व्याप्ति में अभावात्मक उदाहरण नहीं मिलते जैसे कि हम यहाँ पर यह नहीं कह सकते कि जो नामधारी (अभिधेय) नहीं है वह अज्ञेय है क्योंकि हम ऐसी कोई भी वस्तु नहीं बता सकते जिसका नाम न रखा जा सकता हो। 

केवलव्यतिरेकी - कभी-कभी व्यापित स्थापना के लिए केवल भावात्मक उदाहरण मिलते हैं, अभावात्मक नहीं, जैसे- “यह पर्वत हिमालय है, क्योंकि यह सबसे ऊँचा है।" उक्त अनुमान की पुष्टि के लिए हमें कोई भावात्मक उदाहरण नहीं मिलते, क्योंकि हम यह नहीं कह सकते कि 'क' सबसे ऊँचा है, अतः वह हिमालय है अथवा 'ग' सबसे ऊँचा है, अतः वह हिमालय है, तो यहाँ केवल अभावात्मक उदाहरण देते हुए कह सकते हैं । "जो हिमालय नहीं है वह सबसे ऊँचा नहीं है, जैसे सिहावा पर्वत।" इस प्रकार केवल अभावात्मक उदाहरण द्वारा पुष्टि होने के कारण यह अनुमान केवलव्यतिरेकी अनुमान हुआ। 

अन्वयव्यतिरेकी - जहाँ भावात्मक और अभावात्मक दोनों प्रकार के उदाहरण दिये जा सकते हों, उसे अन्वयव्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। जैसे - "पर्वत में आग है, क्योंकि वहाँ धुआँ है" इस उदाहरण के व्यापित सम्बन्ध (जहाँ-जहाँ धुआँ होता है वहाँ-वहाँ आग होती है) को हम भावात्मक एवं अभावात्मक दोनों प्रकार के उदाहरण द्वारा पुष्ट कर सकते हैं, जैसे- इसका भावात्मक उदाहरण है- 'रसोईघर, गौशाला आदि (क्योंकि यहाँ धुएँ के संग बराबर आग रहती है) तथा इसका अभावात्मक उदाहरण हैं 'कमरा' जहाँ आग नहीं तो धुआँ भी नहीं है। इस तरह दोनों प्रकार के उदाहरण दिये जा सकने वाला अनुमान अन्वव्यतिरेकी अनुमान हुआ। 

3. उपमान प्रमाण 

        सादृश्यता के आधार पर प्राप्त ज्ञान ही उपमान कहलाता है। न्याय सूत्र के अनुसार- “प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्” अर्थात् प्रसिद्ध पदार्थों के समान धर्म से साध्य के साधन को उपमान कहा जाता है। 

4. शब्द प्रमाण 

        गौतम के अनुसार “आप्तोपदेशः शब्दः” कहा गया है अर्थात् आप्त का उपदेश (कथन) ही शब्द प्रमाण है। इनके अनुसार शब्द तभी प्रमाण बन्ते हैं जब यथार्थ, वास्तविक एवं विश्वास के योग्य हों। ऐसे वचनों को व्यक्त करने वाला आप्त कहा गया है। 

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Wednesday, July 20, 2022

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार // Prama and Aprama Thoughts in Nyaya Philosophy

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार // Prama and Aprama Thoughts in Nyaya Philosophy

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार

प्रमा / Prama

       “प्रमियते अनेन इति प्रमा” अर्थात प्रमा अवस्थाओं का यथार्थ ज्ञान है। इसमें वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है, जैसे - घट को घट के रूप में जानना प्रमा है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति अनुसार ‘प्रमा उस वस्तु की अभिव्यक्ति है जिससे किसी प्रयोजन की सिद्धि होती है’। यह विचार पाश्चात्य दर्शन के व्यवहारवादी सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। मीमांसकों के अनुसार – ‘अनधिगत ज्ञान प्रमा है’। पार्थसारथी मिश्र ने शास्त्रदीपिका में कहा हैं – “यथार्थमगृहीत ग्राही ज्ञानम् प्रमा इति” अर्थात् अग्रहीत ज्ञान का ग्रहण प्रमा है। नैयायिकों के अनुसार – ‘प्रमा किसी वस्तु का असंदिग्ध ज्ञान है’। गंगेश उपाध्याय के अनुसार – “यत्रयदस्ति तत्र तस्यानुभव: प्रम”। अन्नंभट्ट के अनुसार – “तद्वति तत्प्रकारका रकानुभवो यथार्थ:”। अद्वैत वेदान्त में प्रमा को नवीन एवं अबाधित माना गया है। इस संदर्भ में धर्मराजाध्वरीन्द्र ने वेदान्त परिभाषा में कहा है – “अनधिगताबाधितार्थ विषयक ज्ञानत्वम् प्रमात्वम्"। यहां पर ध्यातव्य यह है कि जहाँ मीमांसक प्रमा को अनधिगत मात्र मानते हैं वहीं दूसरी ओर वेदान्ती अनधिगत के साथ अबाधित लक्षण भी प्रमा में स्वीकार करते हैं। अद्वैत वेदान्तियों द्वारा अबाधित ज्ञान को प्रमा कहने का मात्र कारण यह है कि अनधिगत ज्ञान के अधार पर प्रमा का विश्लेषण करने के बाद विरोधी अनुभवों के उपस्थित होने पर प्रमा अप्रमा हो जाने की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्रमा और अयथार्थ ज्ञान को अप्रमा कहा जाता है। 

         न्याय दर्शन में प्रमेय विचार - प्रमाण के द्वारा हम जिन पदार्थों के ज्ञान की प्राप्ति करते हैं, उन्हें प्रमेय कहा जाता है। न्याय सूत्र में प्रमेय 12 बताये गये हैं - आत्मा-शरीर-इन्द्रिय अर्थ-बुद्धि-मन-प्रवृत्ति दोष-प्रेत्यभाव-फल-दुःख अपवर्गास्तु प्रमेयम्'। इनमें आत्मा प्रथम है। तर्कभाषा में आत्मा का लक्षण "आत्मत्वसामान्यवानात्मा” दिया गया है, जिसका अर्थ है - आत्मत्व नामक सामान्य (जाति) जिस पर रहता है उसे आत्मा कहा गया है। इसके अतिरिक्त आत्मा को शरीर से भिन्न, अनेक एवं विभु कहा गया है। आत्मा के भोग का आश्रय 'शरीर' कहलाता है। शरीरसंयुक्त अतीन्द्रिय ज्ञानकरण को 'इन्द्रिय' कहते हैं। 'अर्थ' पदार्थ का बोधक है जिनकी संख्या 6 है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष समवाय। “अर्थप्रकाशो बुद्धिः” अर्थविषयक प्रकाश को ‘बुद्धि' कहते हैं। सुख-दुःखादि की उपलब्धि का साधनभूत अन्तरिन्द्रिय 'मन' कहलाता है। शास्त्रविहित एवं शास्त्रनिषिद्ध कर्मों के आचरण से उत्पन्न होने वाले अदृष्ट (धर्म-अधर्म) को प्रवृत्ति कहते हैं। राग, द्वेष एवं मोह संयुक्त रूप से 'दोष' कहलाते हैं। पुनरुत्पत्ति (मरण के पश्चात् पुनर्जन्म का होना) को 'प्रेत्यभाव' कहते हैं। सुख-दुःख के अनुभवरूप भोग को 'फल' कहा जाता है। पीड़ा (जो सभी को प्रतिकूलवेदनीय हो) को 'दुःख' कहते हैं। 21 प्रकार के दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति 'अपवर्ग' कहलाती है । 

      अन्य पदार्थ विचार - एक धर्मी में परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मों का बोध 'संशय' कहलाता है। जिस अर्थ को अधिकृत करके मनुष्य किसी कर्म में प्रवृत्त होता है उसे ‘प्रयोजन' कहते हैं। जिस विषय में वादी प्रतिवादी दोनों एकमत हों, वह 'दृष्टान्त' कहलाता है। किसी दर्शन द्वारा प्रामाणिक रूप से स्वीकृत अर्थ को ‘सिद्धान्त' कहते हैं। अनुमान वाक्य के अंश (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन) अवयव कहलाते हैं। व्याप्य के आरोप से व्यापक का आरोप 'तर्क' कहलाता है। निश्चयात्मक ज्ञान को 'निर्णय' कहते हैं। तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा से होने वाली कथा 'वाद' कहलाती है। विजय की इच्छा से की जाने वाली कथा 'जल्प' होती है। जल्प कथा में जब कोई पक्ष अपने अभिमत की स्थापना न करके केवल प्रतिपक्ष का खण्डन ही करता है तो वह ‘वितण्डा' कहलाती है। असद हेतु को 'हेत्वाभास' कहते हैं। वक्ता द्वारा किसी भिन्न अभिप्राय से कहे गए वाक्य को सुनकर श्रोता द्वारा उसका भिन्न अर्थ मानकर दोष प्रदर्शन को 'छल' कहते हैं। असंगत उत्तर को 'जाति' कहते हैं। पराजय के निमित्त को ‘निग्रहस्थान’ कहते हैं । 

          मोक्ष - न्याय दर्शन में मोक्ष को अपवर्ग तथा निःश्रेयस भी कहा गया है। प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है। 

'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजन- दृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थाना नां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः 

(न्यायसूत्र, 1.1.1) 



Tuesday, July 19, 2022

न्याय दर्शन // Nyaya

न्याय दर्शन // Nyaya

 न्याय दर्शन का परिचय 

       ‘नीयते अनेन इति न्यायः' अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा परमतत्त्व की ओर ले जाया जाए वह 'न्याय' है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार “प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः" अर्थात् प्रमाणों की सहायता से वस्तु-तत्त्व का परीक्षण करने की प्रणाली ही न्याय कहलाती है। न्याय की इस विचार प्रक्रिया का मूल कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चरकसंहिता तथा सुश्रुतसंहिता में उपलब्ध होता है जहाँ इसे ‘आन्वीक्षिकी’ के रूप में विवेचित किया गया है। अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं का प्रकाशक, समस्त कर्मों का साधक तथा समग्र धर्मों का आश्रय कहा गया है  - 

प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।

आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।। (अर्थशास्त्र, 1.1.1) 

उचित निष्कर्ष पर पहुँचना तर्क के द्वारा सम्भव है, मुख्यतः यह दर्शन तर्क विद्या का प्रतिपादन करता है, इसलिए यह तर्कशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन को प्रमाणशास्त्र, हेतु-विद्या, आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन को उसके प्रमाण शास्त्र के कारण अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अन्य भारतीय दर्शन परम्पराओं को 'वादविधि की प्रक्रिया' का ख्यापन न्यायशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अवदान है। 

       न्याय दर्शन का इतिहास लगभग 2000 वर्षों में समाविष्ट है। इस विशाल दर्शन को विद्वानों ने तीन भागों में विभक्त किया है - प्राचीन न्याय, मध्य न्याय तथा नव्य-न्याय। दूसरी शताब्दी ई.पू. से छठी शताब्दी ई. का समय प्राचीनन्याय का है। मध्यन्याय का समय 6-12वीं शताब्दी तक है। बारहवीं शताब्दी एवं उसके बाद का दर्शन नव्य-न्याय में रखा जाता है। बारहवीं शती के गंगेश उपाध्याय ने नव्य-न्याय की आधारशिला रखी थी। अन्य दर्शनों की भाँति न्याय दर्शन का भी मुख्य उद्देश्य दुःखों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना ही है। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति तत्त्वज्ञान से अर्थात् द्वादश प्रमेयों के ज्ञान से प्राप्त होती है। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नष्ट होता है, जिससे दोष अर्थात् राग-द्वेष नष्ट होते हैं तथा मुक्ति मिलती है। 

न्याय दर्शन का साहित्य 

न्याय दर्शन के साहित्य को 3 भागों में देखा जा सकता है - 

1- प्राचीन न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक

  • गौतम - तर्क विद्या प्राचीन काल से ही भारत में विद्यमान रही है। उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु न्याय दर्शन को व्यवस्थित रूप में , एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय महर्षि गौतम को जाता है जिनका 'न्यायसूत्र' इस मूल ग्रन्थ माना जाता है। इसमें 5 अध्याय 10 आह्निक, 84 प्रकरण तथा 528 सूत्र हैं। 
  • वात्स्यायन - न्यायसूत्र पर सर्वप्रथम भाष्य वात्स्यायन ने लगभग चतुर्थ शताब्दी ई. में लिखा जो 'वात्स्यायन भाष्य' या 'न्यायभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। 

 2. मध्य न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • उद्योतकार - वात्स्यायन भाष्य पर न्यायवार्तिक नाम की टीका लिखी, इनका समय लगभग 650 ई. कश्मीर में माना जाता है। 
  • वाचस्पतिमिश्र - इनका समय 841 ई में माना जाता है। ये मिथिला के निवासी थे तथा इन्हें षड्दर्शनीवल्लभ की उपाधि से जाना जाता है। इन्होंने न्यायवार्तिक पर तात्पर्यटीका लिखी जो ‘न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका’ के नाम से प्रसिद्ध है। 
  • जयन्तभट्ट - 9 वीं शताब्दी में जयन्तभट्ट ने न्यायशास्त्र पर एक विशाल ग्रन्थ लिखा जो न्यायमञ्जरी के नाम से प्रसिद्ध है, इसमें आह्निकों की संख्या 84 है।
  • उदयन - इनका समय 984 ई0 माना जाता है। इन्होंने तात्पर्यटीका पर एक उपटीका लिखी, जो 'न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि' नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'न्यायकुसुमांजलि' एवं 'आत्मतत्त्वविवेक’ उनके दो अन्य प्रसिद्ध न्यायग्रन्थ हैं । 

3- नव्य-न्याय (प्रमाण प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • गंगेश उपाध्याय - नव्यन्याय के प्रवर्तक के रूप में विख्यात गंगेश उपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि’ नाम से ग्रन्थ लिखा, जो 4 खण्डों मे विभाजित है, जिसमें इन्होंने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द की विशद् व्याख्या की है। 'तत्वचिन्तामणि' की व्याख्या परम्परा में वर्धमान ने 'प्रकाश', पक्षधर मिश्र ने 'आलोक', शंकरमिश्र ने 'मयूख' रघुनाथ शिरोमणि ने 'दीधिति', मथुरानाथतर्कवागीश ने 'रहस्य', जगदीश तर्कालंकार ने दीधितिप्रकाश (जागदीशी), हरिराम तर्कवागीश ने ‘तत्त्वचिन्तामणिविचार' तथा गदाधर भट्टाचार्य ने 'दीधितिप्रकाशिका' नाम से विस्तृत एवं प्रौढ़ टीकाग्रन्थों की रचना की है। 

न्याय दर्शन के अन्य प्रमुख प्रवर्तक 

  • भासर्वज्ञ - 10 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में आचार्य भासर्वज्ञ ने 'न्यायसार' नामक प्रमाणाधारित प्रकरण ग्रन्थ की रचना की है जो कि अपनी मौलिक एवं नवीन उद्भावनाओं के लिए प्रसिद्ध है। 
  • वरदराज - इनके ग्रन्थ का नाम ‘तार्किकरक्षा' है तथा इनका समय 1150 ई. का है। यह वैशेषिकपदार्थसमावेष्टा न्याय का प्रकरण ग्रन्थ है। 
  • केशव मिश्र - मिथिला के इस प्रसिद्ध नैयायिक ने 13 वीं शताब्दी में 'तर्कभाषा' की रचना की है जिसे न्यायदर्शन में प्रवेश का द्वार माना जाता है। 

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न्याय दर्शन के महत्वपूर्ण टॉपिक 

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार

Monday, June 13, 2022

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy 

   तिब्बती बौद्ध धर्म बौद्ध धर्म की महायान शाखा की एक उपशाखा है जो तिब्बत, मंगोलिया, भूटान, उत्तर नेपाल, उत्तर भारत के लद्दाख़, अरुणाचल प्रदेश, लाहौल व स्पीति ज़िले और सिक्किम क्षेत्रों, रूस के कालमिकिया, तूवा और बुर्यातिया क्षेत्रों और पूर्वोत्तरी चीन में प्रचलित है। तिब्बती इस समप्रदाय की धार्मिक भाषा है और इसके अधिकतर धर्मग्रन्थ तिब्बती व संस्कृत में ही लिखे हुए हैं। वर्तमानकाल में 14वें दलाई लामा इसके सबसे बड़े धार्मिक नेता हैं।

    तिब्बती बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं है – निमिंगम, काग्यू, शाक्य और गेलुग। इसके साथ-साथ तिब्बती बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व को प्राप्त करने के लिए पाँच मार्गों का वर्णन है –

  1. संचय का मार्ग
  2. तैयारी का मार्ग
  3. देखने का मार्ग
  4. ध्यान का मार्ग
  5. अधिक सीखने का मार्ग।

   तिब्बत में भारत के संस्कृत बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद राजा सोंगत्सान्पो गम्पो के शासन काल में किया गया था। पद्मसम्भव को तिब्बती बौद्ध धर्म की सबसे पुरानी परम्परा ‘निंगमा’ अर्थात प्राचीन युग का संस्थापक माना जाता है।

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बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

    भारत में प्राचीन काल से ही दो मुख्य परम्पराएं देखने को मिलती है। एक ब्रह्मण परम्परा और दूसरी श्रमण परम्परा। ब्रह्मण परम्परा के उपासक मूलतः ब्रह्मण जाति के लोग थे जो वेदों को प्रमुख स्रोत मानते थे और उसे ईश्वरीय ज्ञान का आधार मानते थे। वे वैदिक देवताओं की पूजा-अर्चना करते थे। वे कर्मकाण्ड में विश्वास रखते थे तथा वर्णव्यवस्था को स्वीकार करते थे। किन्तु श्रमण-परम्परा को मानने वालों ने वेदों के स्थान पर लोक-प्रचलित मान्यताओं, कथाओं को अपनाया। वैदिक ऋषियों की जगह योगी और तपस्वियों को माना तथा वैदिक कर्मकाण्ड के स्थान पर चिन्तन, मनन, तप, संयम, त्याग और ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ समझा। बौद्ध धर्म और जैन धर्म इसी श्रमण-परम्परा के अनुगामी सिद्ध हुए एवं इन्हीं धर्मों से निःसृत कथाएं, उपदेशोंक्तियाँ आदि बौद्ध कथा/जातक कथा, जैन कथा/आगम कथा की संज्ञा दी गई।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...