Posts

Showing posts from September, 2021

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा

Image
भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा जैन दर्शन चेतना को जीव का स्वरूप धर्म मानता है। जीव में स्वभावतः अनन्त दर्शन , अनन्त ज्ञान , अनन्त वीर्य एवं अनन्त आनन्द होता है। आशय यह है कि जैन धर्म में जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त होता है। जैन दर्शन की मान्यता है  कि ज्ञान स्वयं को प्रकाशित करने के साथ - साथ अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। जीवात्मा किसी पदार्थ को जानने के साथ ही स्वयं को भी जानती है। यद्यपि जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त है , फिर भी उसका शुद्ध चैतन्य कर्म पुद्गलों के कारण ओझल रहता है। जीव कर्म पुद्गलों के आवरण के कारण अपने पूर्ण ज्ञान को अभिव्यक्त नहीं कर पाता। कर्म पुद्गलों का क्षय हो जाने पर ही जीव को ज्ञान प्राप्त हो पाता है। जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार जैन दर्शन में ज्ञान दो प्रकार का होता है - परोक्ष ज्ञान तथा अपरोक्ष ज्ञान। परोक्ष ज्ञान जो ज्ञान साधारणतया अपरोक्ष माना जाता है , वह केवल अ

जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त

Image
भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त  जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त      जैनदर्शन में सप्तभंगीनय सिद्धान्त को नयवाद भी कहा जाता है। स्यादवाद , सप्तभंगीनय का आधार है। स्यादवाद के अन्तर्गत जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है , वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण , सापेक्ष तथा एकांगी होता है , फलतः प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता , क्योंकि वह अपने आंशिक सत्य होने का प्रकाशन नहीं करता। अत : यदि उस ज्ञान को प्रामाणिकता की कोटि में लाना है , तो उस ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। यहाँ ' स्याद ' से आशय है ' हो सकता है।      जैन दार्शनिकों के अनुसार सांसारिक ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करने पर किसी वस्तु के सन्दर्भ में सात नय या परामर्श प्राप्त होते हैं। यहाँ नय से तात्पर्य किसी सांसारिक ज्ञान को स्याद शब्द का प्रयोग करके उसकी आंशिक

जैन दर्शन में स्यादवाद

Image
भारतीय दर्शन Home Page Syllabus Question Bank Test Series About the Writer जैन दर्शन में स्यादवाद जैन दर्शन में स्यादवाद       जैन दार्शनिकों का मत है कि जीव अल्पज्ञ है , क्योंकि कुछ कर्म पुद्गल पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं। साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है , वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण , सापेक्ष तथा एकांगी होता है। कारण यह है कि साधारण व्यक्ति किसी वस्तु को एक समय में एक ही दृष्टि से देख सकता है , इसलिए उस वस्तु के कुछ ही धर्मों को जान सकता है , परिणामस्वरूप वस्तु के सन्दर्भ में जो कुछ कहा जाता है वह अपूर्ण , सापेक्ष तथा एकांगी होने के कारण प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता है।      जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि इस सापेक्ष तथा एकांगी ज्ञान को प्रामाणिक बनाना है , तो ऐसे प्रत्येक सांसारिक ज्ञान के पूर्व हमें स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। उल्लेखनीय है कि यहाँ स्याद शब्द से तात्पर्य संशय , सम्भावना , अनिश्चितता तथा अज्ञेयता आदि से नहीं है , बल्कि यहाँ स्याद