कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप
कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप |
कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप
कर्मयोग - श्वेताश्वतरोपनिषद् (6.4) में कहा गया है –
आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावाश्च
सर्वान् विनियोजयेद्यः ।
तेवां भावे कृतकम नाशः कर्मासये याति
स तत्व तोऽन्यः ॥
आशय यह कि वर्णाश्रम विहित कर्तव्य कर्मों की अहन्ता, ममता,
आसक्ति रहित होकर ईश्वरार्पण बुद्धि से करना कर्मयोग है। ईशोपनिषद्
(मंत्र-1) में कहा गया है –
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां
जगत् ।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मागृधः
कस्यस्विद्धनम् ॥
श्रीमद्भगवतगीता में कर्मयोग को निष्ठा यानि कि साधन की तरह
पराकाष्ठा माना गया है। गीता (3.3) में कहा गया है –
लोकेऽस्मिद्विधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता
मयानघ ।
ज्ञानयोगन सांख्यानां कर्मयोगेन
योगिनाम् ॥
अर्थात् इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा कही गई है। ज्ञानियों
की ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से। गीता के अनुसार अहंकार से रहित होकर कम
करना ही कर्मयोग है। क्योंकि - प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते (गी०, 3.27)। अर्थात् यद्यपि
सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा किये हुए हैं फिर भी अहंकार से मोहित हुए
अन्तःकरण वाला पुरुष 'मैं’ कर्ता हूँ ऐसे मान लेता है। इसलिए
इस कर्तापन रूपी अहंकार से रहित होना ही कर्मयोग है। गीता में दो प्रकार के कर्मों
की चर्चा की गई है - सकाम कर्म एवं निष्काम कर्म। सकाम कर्म प्राणि मात्र को
बन्धनों में डालने वाले हैं, किन्तु निष्काम इन बन्धनों का
उच्छेदक है। इसलिए गीता निष्काम कर्म को ही प्रयोग मानती है। यहां ध्यातव्य यह है
कि गीता में निष्काम कर्म का तात्पर्य 'कर्म न करना' नहीं है, क्योंकि कोई भी किसी पुरुष काल में क्षण
मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता है – न हि कश्चित्क्षणमपि
जातु तिष्ठत्यकर्मकृत (गी० 3.5) । अस्तु यहां पर निष्काम कर्म का तात्पर्य -
अनासक्त कर्मफल से है। कहने का तात्पर्य यह कि गीता में कर्म के प्रति आसक्ति का न
होना ही निष्काम कर्म है, और इसे ही कर्मयोग कहते हैं । इस
बात का संकेत गीता (18.2) में किया गया है—
काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं
कवयो विदुः ।
सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं
विचक्षणाः ।।
शंकराचार्य के अनुसार किए हुए कर्म का कर्मफल की इच्छा से रहित
होकर कर्म करने वाले के अन्तःकरण को पवित्र करना कर्मयोग है (गी० भा०, 17.15)।
मीमांसक यह मानते हैं- पज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन - अर्थात् यज्ञ
के लिए किए गये कर्म बाधक नहीं होते, अस्तु इनके अनुसार
जिससे कर्म बंधन का निवारण हो सके वह कर्मयोग है। यहां ज्ञातव्य यह है कि
मीमांसकों के अनुसार यज्ञ कर्म ही कर्मयोग है।
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