Tuesday, September 28, 2021

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा

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जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा

जैन दर्शन की ज्ञानमीमांसा

जैन दर्शन चेतना को जीव का स्वरूप धर्म मानता है। जीव में स्वभावतः अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य एवं अनन्त आनन्द होता है। आशय यह है कि जैन धर्म में जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त होता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि ज्ञान स्वयं को प्रकाशित करने के साथ-साथ अन्य पदार्थों को भी प्रकाशित करता है। जीवात्मा किसी पदार्थ को जानने के साथ ही स्वयं को भी जानती है। यद्यपि जीव अनन्तचतुष्ट्य से युक्त है, फिर भी उसका शुद्ध चैतन्य कर्म पुद्गलों के कारण ओझल रहता है। जीव कर्म पुद्गलों के आवरण के कारण अपने पूर्ण ज्ञान को अभिव्यक्त नहीं कर पाता। कर्म पुद्गलों का क्षय हो जाने पर ही जीव को ज्ञान प्राप्त हो पाता है।

जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार

जैन दर्शन में ज्ञान दो प्रकार का होता है-

  1. परोक्ष ज्ञान तथा
  2. अपरोक्ष ज्ञान।

परोक्ष ज्ञान

जो ज्ञान साधारणतया अपरोक्ष माना जाता है, वह केवल अपेक्षाकृत अपरोक्ष है। इन्द्रियों की अपेक्षा के बगैर स्वत: प्राप्त ज्ञान परोक्ष ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान में आत्मा का पदार्थ से साक्षात् सम्बन्ध होता है।

परोक्ष ज्ञान के प्रकार

सिद्ध सेन दिवाकर के अनुसार परोक्ष ज्ञान के प्रकार निम्नलिखित हैं-

    स्मृतिज्ञान जिसे पहले कभी सुना, देखा या अनुभव किया गया हो, ऐसे विषय का यथार्थ स्मरण स्मृतिज्ञान कहलाता है।

    प्रत्यभिज्ञा जब मनुष्य किसी वस्तु को देखता है, तो उसे सादृश्यता का बोध होता है और वह उस वस्तु को पहचान लेता है, तब ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञा ज्ञान कहलाता है। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ होता है-पहले से जाना पहचाना।

    तर्कज्ञान तर्क के आधार पर अपनी युक्ति प्रस्तुत करना तर्कज्ञान होता है।

    अनुमान ज्ञान हेतु के द्वारा साध्य का ज्ञान प्राप्त करना अनुमान ज्ञान कहलाता है।

    आगम आप्त पुरुषों के वचन आगम कहलाते हैं।

अपरोक्ष ज्ञान

जो ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से तथा मन से उत्पन्न होता है, वह अपरोक्ष ज्ञान कहलाता है, क्योंकि इसमें आत्मा एवं वस्तुओं के बीच कोई माध्यम जैसे मन या इन्द्रियाँ होती हैं।

अपरोक्ष ज्ञान के प्रकार

अपरोक्ष ज्ञान के दो प्रकार होते हैं-

  1. व्यावहारिक ज्ञान
  2. पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान

व्यावहारिक ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान में इन्द्रियों या मन के द्वारा बाह्य एवं आभ्यन्तर विषयों का ज्ञान होता है।

पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान कर्म बन्धन के नष्ट होने पर प्राप्त होता है। इसमें आत्मा और ज्ञेय वस्तुओं का सीधा सम्बन्ध होता है। राग, द्वेष, मोह, माया में फँसे व्यक्ति को यह ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान तीन प्रकार का होता है, जिसका उल्लेख निम्नलिखित है

    अवधि ज्ञान जब मनुष्य अपने कर्म को अंशत: नष्ट कर लेता है, तो वह एक ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेता है, जिसके द्वारा वह अत्यन्त सूक्ष्म, दूरस्थ तथा अस्पष्ट द्रव्यों को भी जान सकता है। ऐसा तभी सम्भव है जब मनुष्य कर्म बन्धन से छुटकारा पाने का सफल प्रयास करे। अवधि ज्ञान असीम ज्ञान है। इसके द्वारा सीमित ज्ञान ही प्राप्त हो सकता है, इसी कारण इसे अवधि ज्ञान कहते हैं।

    मन: पर्याय जब मनुष्य राग, द्वेष, मोह, माया आदि पर विजय पा लेता है अर्थात् सभी विकारों से मुक्त हो जाता है, तब वह अन्य व्यक्तियों के वर्तमान, भूत विचारों को जान सकता है। इस प्रकार का ज्ञान मन: पर्याय कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान से व्यक्ति दूसरे के मन को भी पढ़ने में सक्षम हो जाता है।

    केवल ज्ञान ज्ञान में बाधक सभी कर्मों के नष्ट हो जाने से आत्मा शुद्ध हो जाए अर्थात् विकार रहित हो जाए, तो अनन्त ज्ञान प्राप्त होता है, केवल ज्ञान प्राप्त होने पर सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार का ज्ञान केवल मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है। यह ज्ञान देश व काल की सीमाओं से रहित होता है, इसी कारण यह ज्ञान असीम व अनन्त होता है।

अलौकिक ज्ञान

उपरोक्त तीनों प्रकार के ज्ञान पूर्णत: अपरोक्ष हैं। इन्हें जैन दार्शनिक अलौकिक ज्ञान भी कहते हैं। अलौकिक ज्ञान के अतिरिक्त दो प्रकार का लौकिक ज्ञान होता है-

  1. मति व
  2. श्रुति

इनकी चर्चा इस प्रकार है-

मति ज्ञान इन्द्रियों एवं मन से प्राप्त ज्ञान को मति ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार मति ज्ञान के अन्तर्गत व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान (बाह्य) तथा अन्तर (प्रत्यक्ष, स्मृति) प्रत्यभिज्ञा अनुमान आते हैं। मति ज्ञान दो प्रकार का होता है-

  1. इन्द्रियजन्य ज्ञान तथा
  2. अतीन्द्रिय ज्ञान

इन्द्रियजन्य ज्ञान में इन्द्रियों का बाह्य वस्तु से सम्पर्क होता है। इन्द्रियजन्य ज्ञान चार प्रकार से प्राप्त होता है। उदाहरण किसी भी ध्वनि के सुनने पर सर्वप्रथम इन्द्रियाँ संवेदन प्राप्त करती हैं, परन्तु ज्ञात नहीं होता कि ध्वनि किसकी है। यह अवस्था 'अवग्रह' कहलाती है। अवग्रह से केवल विषय का ग्रहण होता है। तब प्रश्न उठता है कि ध्वनि किसकी है? यह अवस्थाईहा' कहलाती है, इसके बाद एक निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त होता है कि ध्वनि अमुक वस्तु की है, इसे 'आवाय' कहते हैं। इस प्रकार जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका मन में 'धारण' होता है, इसकोधारण' कहते हैं।

श्रुति ज्ञान किसी के बताने, प्रामाणिक ग्रन्थों को सुनने अथवा आप्त वचनों से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे श्रुत ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार के ज्ञान के लिए इन्द्रिय ज्ञान का होना जरूरी है। अत: मति ज्ञान से पहले श्रुत ज्ञान आता है। श्रुति ज्ञान त्रैकालिक ज्ञान का विषय होता है। श्रुत ज्ञान अपरिणामी होता है।

जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त

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जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त 

जैन दर्शन का नयवाद अथवा सप्तभंगीनय सिद्धान्त 

    जैनदर्शन में सप्तभंगीनय सिद्धान्त को नयवाद भी कहा जाता है। स्यादवाद, सप्तभंगीनय का आधार है। स्यादवाद के अन्तर्गत जैन दार्शनिकों की मान्यता है कि साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है, वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण, सापेक्ष तथा एकांगी होता है, फलतः प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता, क्योंकि वह अपने आंशिक सत्य होने का प्रकाशन नहीं करता। अत: यदि उस ज्ञान को प्रामाणिकता की कोटि में लाना है, तो उस ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। यहाँ 'स्याद' से आशय है 'हो सकता है।

     जैन दार्शनिकों के अनुसार सांसारिक ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करने पर किसी वस्तु के सन्दर्भ में सात नय या परामर्श प्राप्त होते हैं। यहाँ नय से तात्पर्य किसी सांसारिक ज्ञान को स्याद शब्द का प्रयोग करके उसकी आंशिक सत्यता को अभिव्यक्त करने से है। सात भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से प्राप्त सात नयों को ही यहाँ सप्तभंगीनय कहा गया है।

     जैन दार्शनिकों के अनुसार सप्तभंगीनय सात नयों का एकीकरण है न कि उनका समन्वय। सप्तभंगीनय के सातों नय निर्णयात्मक होने के कारण आंशिक सत्य तथा सापेक्ष हैं। सापेक्ष तथा आंशिक सत्य होने के कारण इनसे किसी वस्तु का अनन्त धर्मात्मक रूप प्रकट होता है। उल्लेखनीय है कि जहाँ पाश्चात्य दर्शन में परामर्श के दो भेदों आस्तिवाचक तथा नास्तिवाचक को स्वीकार किया है, वहीं जैन दार्शनिक परामर्श या नय के सात भेदों को स्वीकार करते हैं, जिनका वर्णन निम्नलिखित है-

स्याद अस्ति

यह प्रथम परामर्श है। उदाहरणार्थ यदि कहा जाए किस्याद घड़ा काला है' तो इसका अर्थ यह होगा कि किसी विशेष स्थान-काल और परिस्थिति में घड़ा काला है। यह भावात्मक वाक्य है।

स्याद नस्ति

यह अभावात्मक परामर्श है। घड़े के सन्दर्भ में अभावात्मक परामर्श इस प्रकार होना चाहिए कि स्याद घड़ा इस कमरे में नहीं है। इसका यह अर्थ नहीं है कि कमरे में कोई घड़ा नहीं है। स्याद शब्द से इस तथ्य का बोध होता है कि विशेष रूप और रंग का घड़ा किसी समय विशेष में कमरे के अन्दर नहीं है। स्याद शब्द से स्थान, समय तथा रंग का बोध होता है। स्याद शब्द से यह बोध होता है कि जिस घड़े के सम्बन्ध में परामर्श हुआ है, वह घड़ा कमरे में उपलब्ध नहीं है।

स्याद अस्ति नस्ति

वस्तु की सत्ता एक अन्य दृष्टिकोण से भी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है। जैसेघड़ा काला हो भी सकता है और काला नहीं भी हो सकता है। ऐसी परिस्थिति में स्याद है और स्याद नहीं है, का ही प्रयोग हो सकता है।

स्याद अव्यक्तव्यम्

यदि किसी परामर्श पर परस्पर विरोधी गुणों के सम्बन्ध में विचार करना हो तो उसके विषय में 'स्याद अव्यक्तव्यम्' का प्रयोग होता है। काले घड़े के सम्बन्ध में कभी ऐसा भी हो सकता है, जब उसके बारे में निश्चिततापूर्वक कुछ कहा ही न जा सके कि वह काला है या लाल, अत: घड़े के सन्दर्भ मेंस्याद अव्यक्तव्यम्' का प्रयोग ही उचित होगा।

जैनों का यह चौथा परामर्श महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि सभी प्रश्नों के उत्तर भावात्मक या निषेधात्मक रूप में प्रस्तुत करना वांछनीय नहीं है। क्योंकि कुछ ऐसे भी प्रश्न होते हैं, जिनके सम्बन्ध में मौन रहना या यह कहना कि इस बारे में कुछ भी कहा नहीं जा सकता है, प्रशंसनीय है।

जैनों का चौथा परामर्श इस बात का प्रमाण है कि वे विरोध को एक दोष (हिंसा) के रूप में स्वीकार करते हैं, अत: वे विरोध न करने तथा उसके स्थान पर चुप रहने का आदेश देते हैं। इस प्रकार जैनों का चौथा परामर्श तर्किक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण प्रतीत होता है।

स्याद अस्ति अव्यक्तव्यम्

वस्तु एक ही समय में उपलब्ध भी हो सकती है और फिर भी अवर्णनीय हो सकती है। किसी विशेष दृष्टि से घड़े को काला कहा जा सकता है, परन्तु जब प्रकाश आदि का अभाव हो तो ऐसी स्थिति में घड़े के रंग का वर्णन करना असम्भव हो जाता है। अत: घड़ा काला है और अवर्णनीय है। यह परामर्श पहले तथा चौथे परामर्श को जोड़ने पर प्राप्त होता है।

स्याद नस्ति अव्यक्तव्यम्

दूसरे और चौथे परामर्श को मिला देने पर छठा परामर्श प्राप्त होता है। 'किसी विशेष दृष्टिकोण से किसी वस्तु के बारे में नहीं है' कहा जा सकता है, परन्तु उस वस्तु के ठीक से दिखाई न देने पर उसके विषय में कुछ भी नहीं कहा जा सकता हैं; जैसे-घड़े के बारे में कहा जा सकता है कि वह काला नहीं है, किन्तु दिखाई ही न देने पर उसके बारे में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है।

स्याद अस्ति नस्ति अव्यक्तव्यम्

यह परामर्श तीसरे और चौथे को जोड़ कर बनाया गया है, जिसके अनुसार एक दृष्टि से घड़ा काला है, दूसरी दृष्टि से घड़ा काला नहीं है और जब दृष्टि स्पष्ट संकेत न करे, तो अवर्णनीय है।

सप्तभंगीनय की आलोचना

सप्तभंगीनय की निम्नलिखित आधारों पर आलोचना की जा सकती है-

    सप्तभंगीनय के सातों नय बिखरे हुए मोती के समान हैं, क्योंकि स्यादवाद निरपेक्ष ज्ञान को स्वीकार नहीं करता तथा कहता है कि समस्त ज्ञान सापेक्ष है, किन्तु समस्या यह है कि यदि निरपेक्ष को स्वीकार न किया जाए, तो सापेक्ष की बात कैसे की जा सकती है? अत: निरपेक्ष ज्ञान के अभाव में सापेक्ष ज्ञान को भी स्वीकार नहीं किया जा सकता है।

    सप्तभंगीनय मूलत: सत् और असत् नामक बुद्धि कोटियों से निर्मित है, जो स्वयं जैन दार्शनिकों ने अद्वैत वेदान्तियों तथा बौद्धों से उधार ली हैं।

    सप्तभंगीनय की परीक्षा करने पर यह ज्ञात हो जाता है कि उसके अन्तिम तीन नय ऊपर के नयों का योग मात्र हैं। इसीलिए कुमारिल भट्ट का मत है कि इस आधार पर सात नहीं, बल्कि सैकड़ों नय बनाए जा सकते हैं।

उपरोक्त आलोचना के बाद भी सप्तभंगीनय सिद्धान्त का अपना महत्त्व है, क्योंकि इस सिद्धान्त के माध्यम से जैन दार्शनिक किसी मत को सापेक्ष तथा आंशिक सत्य घोषित करते हैं न कि पूर्णत: असत्य। अतः इसे स्वीकार करने पर

जीवन में अनेक विवादों से बचा जा सकता है तथा जीवन में परस्पर सहयोग, सामंजस्य तथा समन्वयवादिता की भावना को बढ़ावा दिया जा सकता है।

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जैन दर्शन में स्यादवाद

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जैन दर्शन में स्यादवाद

जैन दर्शन में स्यादवाद

      जैन दार्शनिकों का मत है कि जीव अल्पज्ञ है, क्योंकि कुछ कर्म पुद्गल पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न करते हैं। साधारण व्यक्ति सांसारिक अवस्था में जो ज्ञान प्राप्त करता है, वह कर्म पुद्गलों के कारण अपूर्ण, सापेक्ष तथा एकांगी होता है। कारण यह है कि साधारण व्यक्ति किसी वस्तु को एक समय में एक ही दृष्टि से देख सकता है, इसलिए उस वस्तु के कुछ ही धर्मों को जान सकता है, परिणामस्वरूप वस्तु के सन्दर्भ में जो कुछ कहा जाता है वह अपूर्ण, सापेक्ष तथा एकांगी होने के कारण प्रामाणिक ज्ञान की कोटि में नहीं आता है।

     जैन दार्शनिकों का मत है कि यदि इस सापेक्ष तथा एकांगी ज्ञान को प्रामाणिक बनाना है, तो ऐसे प्रत्येक सांसारिक ज्ञान के पूर्व हमें स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है। उल्लेखनीय है कि यहाँ स्याद शब्द से तात्पर्य संशय, सम्भावना, अनिश्चितता तथा अज्ञेयता आदि से नहीं है, बल्कि यहाँ स्याद से तात्पर्य है, 'हो सकता है।

    जैन दार्शनिकों के अनुसार किसी वाक्य से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग यह संकेत करता है कि इस शब्द के साथ प्रयुक्त कथन की सत्यता सन्दर्भ विशेष पर निर्भर है, इसलिए यह कथन सापेक्षिक रूप से सत्य है। अन्य शब्दों में स्याद से युक्त कथन, काल, स्थान तथा दृष्टिकोण विशेष से आंशिक सत्य है, क्योंकि किसी अन्य दृष्टिकोण से कोई अन्य कथन भी उस वस्तु के बारे में प्रस्तुत किया जा सकता है, जो परस्पर भिन्न होते हुए भी अपने प्रसंग के अनुसार उस वस्तु के सन्दर्भ में आंशिक रूप से सत्य हो सकता है।

     जैन दार्शनिकों के अनुसार किसी भी सांसारिक ज्ञान से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग नहीं करना एकांगी मत के समतुल्य है, साथ ही अप्रामाणिक है। उदाहरणार्थ-कुछ अन्धे हाथी का आकार जानना चाहते थे। इस क्रम में किसी अन्धे ने हाथी का पैर पकड़ा और कहा कि हाथी स्तम्भ की तरह है, अन्य अन्धों ने भी हाथी के विभिन्न अंगों को (प्रत्येक अन्धे ने एक अंग को) स्पर्श किया; जैसे-पूँछ, पेट, कान आदि तथा क्रमश: रस्सी, दीवार तथा पंखे आदि के रूप में वर्णित किया।

     जैन दार्शनिकों के अनुसार हाथी के स्वरूप के सन्दर्भ में प्रत्येक अन्धे का मत एकान्तिक था, क्योंकि प्रत्येक ने हाथी के किसी एक पक्ष का ही वर्णन किया था। उनमें हाथी के स्वरूप को लेकर परस्पर मतभेद भी पैदा हो गया था, किन्तु जैसे ही अन्धों को यह बताया गया कि प्रत्येक ने हाथी के अलग-अलग अंगों को स्पर्श किया है, तो उनका मतभेद दूर हो गया।

     जैन दार्शनिक कहते हैं कि दार्शनिकों के बीच मतभेद का भी यही कारण है, क्योंकि वे किसी एक विषय को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से देखते हैं तथा उसी के अनुरूप अपना मत व्यक्त कर देते हैं और उसे ही सत्य मानने लगते हैं।

   जैन दार्शनिकों के अनुसार उनके ये मत एकान्तिक हैं। अत: यदि दार्शनिकों को किसी विषय के सन्दर्भ में अपने मत को निर्दोष बनाना है अर्थात् प्रामाणिकता की श्रेणी में लाना है, तो प्रत्येक दार्शनिक को अपने मत से पूर्व स्याद शब्द का प्रयोग करना अनिवार्य है, क्योंकि स्याद से युक्त मत या कथन यह संकेत करता है कि उस कथन की सत्यता सन्दर्भ विशेष पर निर्भर है। इसके साथ ही यह अनुमान भी कर लिया जाता है कि वस्तु में अनेक धर्म विद्यमान हैं, जिनमें से एक या कुछ धर्मों का ज्ञान ही दार्शनिक को हो पाया है, अतः वस्तु से सम्बन्धित कथन आंशिक सत्य हैं।

     जैन दार्शनिकों का स्याद सम्बन्धी उपरोक्त मत एक प्रकार का सापेक्षतावाद है, जिसकी मान्यता है कि हमारा समस्त ज्ञान सापेक्ष है, किन्तु यह प्रत्ययवादी सापेक्षतावाद न होकर वस्तुवादी सापेक्षतावाद है, क्योंकि जैन दार्शनिकों की यह मान्यता है कि किसी वस्तु का ज्ञाता से पृथक् तथा स्वतन्त्र अस्तित्व है और वस्तुओं के गुण हमारे मन पर निर्भर न हो, वस्तु पर ही निर्भर (आश्रित) है अर्थात् वस्तु में ही रहते हैं, लेकिन जब यह कहा जाता है कि वस्तुओं के गुण वस्तु में नहीं, बल्कि हमारे मन में रहते हैं, तो यह दृष्टिकोण प्रत्ययवादी सापेक्षतावाद कहलाता है, किन्तु जैन दार्शनिक इस दृष्टिकोण को स्वीकार नहीं करते हैं। वे अपने वस्तुवादी सापेक्षतावाद के सन्दर्भ में मत प्रकट करते हुए कहते हैं कि वस्तु के गुण वस्तु में ही रहते हैं। इनके अनुसार हमारा कोई विचार तभी सत्य हो सकता है, जब उसकी संगति बाह्य जगत में विद्यमान वस्तु में विद्यमान हो। जैनियों का यह विचार पाश्चात्य दार्शनिकों; जैसे- पार्मेनाइडीज, प्लेटो तथा लॉक आदि से साम्यता दर्शाता है।

स्यादवाद की आलोचनाएँ

जैनियों ने अपना स्यादवाद सम्बन्धी जो उपरोक्त मत प्रस्तुत किया है, उसको लेकर मुख्यत: अद्वैत वेदान्तियों तथा बौद्ध दार्शनिकों ने गम्भीर आपत्तियाँ जताई हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

    स्यादवाद के अन्तर्गत समस्त ज्ञान को (सांसारिक ज्ञान) सापेक्ष मानते हैं, निरपेक्ष ज्ञान को स्वीकार नहीं करते, ऐसी स्थिति में सापेक्ष शब्द को भी तर्कतः स्वीकार नहीं किया जा सकता।

    शंकराचार्य ने स्यादवाद को पागलों का प्रलाप कहा है।

    यदि सभी सिद्धान्त आंशिक सत्य हैं, तो फिर स्यादवाद भी स्वत: आंशिक सत्यठहरता है।

    जैन स्यादवाद का खण्डन स्वयं करते हैं। स्यादवाद की मीमांसा करते समय वे स्यादवाद को भूलकर अपने ही मत को एकमात्र सत्य घोषित करते हैं। इस प्रकार स्यादवाद का पालन वे स्वयं नहीं कर पाते हैं।

    'केवल ज्ञान' को निरपेक्ष ज्ञान कहना स्यादवाद के विरुद्ध है।

स्यादवाद का महत्त्व

स्यादवाद के विरुद्ध उठाई गई आपत्तियों के बाद भी इस सिद्धान्त का अपना महत्त्व है, क्योंकि स्यादवाद के द्वारा जैन दार्शनिक किसी ज्ञान की सत्यता को सन्दर्भ विशेष के अनुसार आंशिक सत्य मानते हैं न कि उसे पूर्ण असत्य घोषित करते हैं। परिणामत: यह धार्मिक संघर्ष, दार्शनिक विवाद तथा अन्य मतभेदों का शान्तिपूर्ण ढंग से समाधान करने का उदार मार्ग प्रस्तुत करता है।

स्यादवाद परस्पर सहयोग, सामंजस्य तथा समन्वयवादिता की भावना को बल प्रदान करता है। साम्प्रदायिकता एवं कट्टरवादिता को दूर करने के सम्बन्ध में इसका महत्त्व है। यह बहुधर्मी समाज को मान्यता प्रदान करता है। स्यादवाद एक प्रकार की मानसिक अहिंसा है जो व्यक्ति में हठवादिता को समाप्त करके उसे उदार बनाती है, फलत: दूसरे के विचारों की सत्यता को आंशिक रूप से ही सही, किन्तु वह सत्य मानने लगता है।

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