Saturday, October 2, 2021

बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्य

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बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्य

बौद्ध दर्शन में चार आर्य सत्य

     महात्मा बुद्ध जिनके बचपन का नाम सिद्धार्थ था, ने 'बोधगया' में ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् 'सारनाथ' में अपना प्रथम उपदेश दिया, इसे ही 'धर्मचक्र प्रवर्तन' कहा जाता है। बुद्ध के सारे उपदेश चार आर्य सत्यों में ही सन्निहित हैं। ये चार आर्य सत्य इस प्रकार है-

    दुःख है 

    दु: का कारण है

    दुःख का निरोध है

    निरोध के उपाय हैं

उपरोक्त चार आर्य सत्यों में से प्रथम दो आर्य सत्य 'संसार चक्र' के नियम हैं तथा बाकी के दो आर्य सत्य संसार चक्र से छूटने के नियम हैं। इन चारों आर्य सत्यों की विवेचना निम्नलिखित है-

प्रथम आर्य सत्य (दु:)

     बुद्ध ने अपने प्रथम आर्य सत्य का उपदेश करते हुए कहा 'सर्व दुखं दुखम्' अर्थात् समस्त संसार में सर्वत्र दुःख ही दुःख है। विश्व की जो अनुभूतियाँ हमें सुखप्रद लगती हैं, वे भी दुःखात्मक हैं, क्योंकि सुखात्मक अनुभूति को प्राप्त करने के लिए हमें कष्ट उठाना पड़ता है। अतः जिसे साधारणत: हम सुख समझते हैं, वह भी दुःख ही है। सुख और दुःख में वस्तुत: कोई अन्तर नहीं है। क्षणिक सुख को सुख कहना महान् मूर्खता है। चूँकि बुद्ध ने संसार के दुःखों पर अत्यधिक बल दिया है, इसलिए कुछ विद्वानों ने बौद्ध दर्शन को निराशावादी कहा है, किन्तु ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योकि बुद्ध संसार की दुःखमय स्थिति को देखकर मौन नहीं रहे, बल्कि उन्होंने दुःखों का कारण जानने का प्रयास किया। दुःख निरोध का आश्वासन दिया तथा दुःख का अन्त करने के लिए एक मार्ग का निर्देश भी किया है। अत: निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि बौद्ध दर्शन का आरम्भ निराशावाद से होता है, परन्तु उसका अन्त आशावाद में होता है। अत: कुछ विद्वानों द्वारा बौद्ध दर्शन को निराशावादी कहना भ्रान्तिमूलक है।

द्वितीय आर्य सत्य (दु: का कारण है)

     बुद्ध ने अपने द्वितीय आर्य सत्य के अन्तर्गत दु:ख के कारण का विश्लेषण एक सिद्धान्त के सहारे किया है। इस सिद्धान्त को संस्कृत में 'प्रतीत्यसमुत्पाद' तथा पालि भाषा मेंपटिच्यसमुत्पाद' कहा जाता है। प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध दर्शन का कारण-कार्य सम्बन्धी सिद्धान्त है। प्रतीत्यसमुत्पाद दो शब्दों से मिलकर बना है- प्रतीत्य तथा समुत्पाद। प्रतीत्य का अर्थ है 'कारण' तथा समुत्पाद का अर्थ है 'जो उत्पन्न होता है। इस नियम को 'सापेक्ष कारणतावाद' भी कहा जाता है, क्योंकि इसकी मान्यता है कि कार्य की उत्पत्ति कारण पर ही आश्रित होकर होती है। प्रत्येक कार्य को अपनी उत्पत्ति के लिए एक या अधिक कारणों की अपेक्षा रहती है। अत: प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त मध्यम मार्ग का परिचायक है, क्योंकि यह सत्कार्यवाद तथा असत्कार्यवाद के बीच का मार्ग है पुनः यह मध्यम मार्ग का परिचायक है, क्योंकि यह शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद के बीच का मार्ग है। शाश्वतवाद जहाँ वस्तु की नित्यता की बात करता है, वहीं उच्छेदवाद वस्तुओं के पूर्ण विनाश की बात करता है, जबकि प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त संसार की प्रत्येक वस्तु को निरन्तर परिवर्तनशील मानता है। इसकी मान्यता है कि एक वस्तु नष्ट होते-होते अन्त में परिवर्तित हो जाती है।

     प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के अन्तर्गत बुद्ध ने दःख और उसके ग्यारह कारणों की विवेचना की है। दुःख और ग्यारह कारणों को ही 'द्वादशनिदान' या संसार चक्र की संज्ञा दी जाती है। बुद्ध ने ग्यारह कारणों में से अविद्या को मूल कारण बताया है, किन्तु अविद्या का कोई कारण नहीं बताया है।

दुःख के कारण

दुःख के ग्यारह कारण निम्नलिखित है

    दुःख है

    दुःख का कारण है जन्म

    जन्म का कारण है भव (जन्म लेने की इच्छा)

    भव का कारण है उपादान (भोग्य वस्तुओं के प्रति लगाव)

    उपादान का कारण है तृष्णा (भोग वस्तुओं के उपभोग की इच्छा)

    तृष्णा का कारण है वेदना (भोग से जो सुखानुभूति होती है)

    वेदना का कारण है स्पर्श (जो भोग्य है उससे सन्निकर्ष)

    स्पर्श का कारण है षडायतन (पाँच इन्द्रियाँ तथा मन)

    षडायतन का कारण है नामरूप (गर्भस्थ शिशु)

    नामरूप का कारण है चेतना (संस्कारों का निरन्तर प्रवाह)

    चेतना का कारण है संस्कार (स्वार्थमूलक कर्मों से जो तत्त्व उत्पन्न होता है)

प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त तीनों कालों- भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जोड़कर कर्मवाद की स्थापना करता है। इसके अनुसार वर्तमान जीवन अतीत जीवन के कर्मों का फल है तथा भविष्य का जीवन वर्तमान जीवन के कर्मों का फल है। हमारे द्वारा अविद्या के कारण जो स्वार्थमूलक कर्म किए जाते हैं, उन्हीं के फल हमारे भीतर संस्कारों के रूप में संचित हो जाते हैं। नि:स्वार्थ कर्मों का कोई फल नहीं होता, अत: संस्कार निर्मित नहीं होते हैं। इन संचित कर्मों का फल भोग करने के लिए ही पुनर्जन्म होता है। अत: उपरोक्त उल्लिखित संसार चक्र में से जन्म का सम्बन्ध भविष्य से, अविद्या तथा संस्कार का सम्बन्ध भूत से तथा शेष के कारणों का सम्बन्ध वर्तमान से है।

तृतीय आर्य सत्य (दुःख का निरोध है)

    तृतीय आर्य सत्य दुःख का निरोध ही निर्वाण है। अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति (चार्वाक दर्शन को छोड़कर) बौद्ध दर्शन में भी निर्वाण को जीवन के परम आध्यात्मिक लक्ष्य के रूप में स्वीकार किया गया है। तृतीय आर्य सत्य में निर्वाण की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहा गया है कि निर्वाण प्राप्ति के पश्चात् समस्त दु:खों की आत्यन्तिक निवृत्ति हो जाती है तथा व्यक्ति संसार चक्र से मुक्त हो जाता है। यहाँ जीवित रहते निर्वाण प्राप्ति को सम्भव माना गया है।

    जीवित रहते निर्वाण प्राप्त कर लेने के बाद भी तब तक मृत्यु नहीं होती, जब तक संचित कर्मों का फल भोग नहीं कर लिया जाता। जैसे ही कर्मफल समाप्त होते हैं, मृत्यु हो जाती है, पुनर्जन्म नहीं होता है। बौद्ध दर्शन का यह विचार सांख्य और अद्वैत वेदान्त के जीवन मुक्त से साम्यता दर्शाता है।

    निर्वाण के स्वरूप तथा प्रकार को लेकर बौद्ध दर्शन में मतभेद हैं। कारण यह है कि जब भी बुद्ध से निर्वाण के बारे में पूछा गया वे मौन हो गए, फलत: उनके अनुयायियों तथा विद्वानों ने अपने-अपने अनुसार इसकी व्याख्या की है। हीनयान सम्प्रदाय तथा कुछ अन्य विचारक निर्वाण की प्रकृति को निषेधात्मक मानते हैं, क्योंकि इनके अनुसार निर्वाण का शाब्दिक अर्थ है-बुझ जाना। जिस प्रकार दीपक के बुझ जाने पर प्रकाश समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार निर्वाण प्राप्त करने के पश्चात् मानव अस्तित्व का पूर्ण विनाश (मृत्यु) हो जाता है। अत: यहाँ परिनिर्वाण अर्थात् मृत्यु के पश्चात् निर्वाण को ही सम्भव माना गया है।

     विचारकों के अनुसार मानव अस्तित्व के पूर्ण विनाश अर्थात् मृत्यु को जीवन का परम आध्यात्मिक लक्ष्य नहीं माना जा सकता, इसलिए कुछ अन्य विद्वान् निर्वाण का अर्थ-पुनर्जन्मपथ नहीं करते हुए इसे जीवित रहते ही सम्भव मानते हैं तथा बताते हैं कि निर्वाण की प्रकृति निषेधात्मक के साथ-साथ भावात्मक भी है, क्योंकि इस स्थिति को प्राप्त करने के बाद हमारे समस्त दु:खों का अन्त हो जाता है, संसार चक्र की समाप्ति हो जाती है साथ ही व्यक्ति को परम शान्ति तथा आनन्द का अनुभव होता है।

    जीवित रहते निर्वाण प्राप्त कर लेने के पश्चात् वह नि:स्वार्थ भाव से कर्म करता है, साथ ही पूर्वजन्म के कर्मों का नि:स्वार्थ भाव से कर्म करते हुए फल भोग करता है फलतः कर्म फल संचित नहीं होते जिससे वह बन्धन में नहीं पड़ता। जीवित रहते निर्वाण प्राप्त कर लेने के पश्चात् वह अन्य व्यक्तियों को निर्वाण उपलब्ध कराने के लिए तब तक प्रयासरत रहता है, जब तक कि मृत्यु नहीं हो जाती है।उल्लेखनीय है कि महात्मा बुद्ध के उपदेशों, धम्मपद तथा अंगुत्तर निकाय आदि में मोक्ष को समस्त दुःखों से रहित परम शान्ति तथा आनन्द की अवस्था माना गया है। बुद्ध ने स्वयं जीवित रहते निर्वाण को प्राप्त किया था तथा समाज कल्याण करने के लिए तथा दूसरों को निर्वाण के लिए प्रयास करने का उपदेश दिया था।

    बुद्ध की मान्यता थी कि हमें अपने स्वयं के प्रयासों से ही निर्वाण उपलब्ध हो सकता है। अत: उनका कथन था कि आत्म दीपो भव अर्थात् अपना प्रकाश स्वयं बनें। हीनयान सम्प्रदाय ने बुद्ध के इन विचारों को स्वीकार करते हुए केवल स्वयं के लिए निर्वाण प्राप्ति की ओर ध्यान दिया तथा साथ-साथ अन्य को भी निर्वाण प्राप्त कराने के लिए प्रयास किया। इस दृष्टि से महायान सम्प्रदाय का आदर्श हीनयान सम्प्रदाय की अपेक्षा उच्च है।

चतुर्थ आर्य सत्य (दु: निरोध उपाय)

    बुद्ध ने अपने चतुर्थ आर्य सत्य के अन्तर्गत दु:ख निरोध उपाय या निर्वाण प्राप्ति उपाय के सन्दर्भ में आष्टांगिक मार्ग का उल्लेख किया है। ये वस्तुतः आठ नियम हैं जिनके अनुसार निष्ठापूर्वक आचरण करने पर अविद्या निवृत्ति हो जाती है, फलतः समस्त दु:खों का अन्त तथा संसार चक्र से मुक्ति मिल जाती है अर्थात् पुनर्जन्म नहीं होता।

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बौद्ध दर्शन परिचय एवं इतिहास

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बौद्ध दर्शन परिचय एवं इतिहास 

बौद्ध दर्शन परिचय एवं इतिहास 

     बौद्ध दर्शन (धर्म) भारत का अत्यन्त प्राचीन दर्शन है। इसकी गिनती भारतीय दर्शन के अवैदिक या नास्तिक दर्शन में होती है। इस धर्म का उदय ई. पू. छठी शताब्दी में हुआ। इस धर्म के प्रवर्तक गौतम बद्ध हैं। इनका वास्तविक नाम सिद्धार्थ था तथा ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् ये बुद्ध कहलाए। इनका जन्म 563 . पू. में लुम्बिनी में हुआ। इनके पिता शुद्धोधन उत्तर नेपाल स्थितकपिलवस्तु' के राजा थे।

     बुद्ध ने संसार में व्याप्त दु:ख को देखकर सब कुछ त्यागने का फैसला लिया और 29 वर्ष की आयु में वन को गमन कर गए। उनका गृहत्याग 'महाभिनिष्क्रमण' के नाम से जाना जाता है। कठिन तपस्या करके उन्हें बोधगया में निरंजना नदी के तट पर एक पीपल के वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई। इसके पश्चात् वे बुद्ध कहलाए। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् बुद्ध ने सारनाथ में अपना प्रथम उपदेश दिया, जिसे 'धर्मचक्र प्रवर्तन' कहा जाता है।

      गौतमबुद्ध ने स्वयं 45 वर्ष की लम्बी आयु तक धर्म का प्रचार किया। इस धर्म को विदेशों में भी प्रचारित किया। बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् मौर्य सम्राट अशोक ने भी इस धर्म का प्रचार किया। अशोक के लगवाए गए स्तूप, स्तम्भ शिलालेख इस बात के प्रमाण हैं। अशोक ने धर्म के प्रचार हेतु अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को लंका भेजा। इसके अतिरिक्त उन्होंने सीरिया, मिस्र, मेसीडोनिया, साइरीन आदि स्थानों पर भी अपने दूत प्रचार हेतु भेजे। कालान्तर में बौद्ध धर्म के अनुयायियों में मतभेद होने के कारण इस धर्म के चार सम्प्रदाय बन गए-वैभाषिक, सौत्रान्तिक, योगाचार एवं माध्यमिक। 

     बुद्ध के उपदेशों को उनके शिष्यों ने त्रिपिटक में संकलित किया है। ये त्रिपिटक-विनयपिटक, सुत्तपिटक और अभिधम्मपिटक हैं। विनयपिटक में आचरण सम्बन्धी, सुत्तपिटक में धर्म सम्बन्धी और अभिधम्मपिटक में दार्शनिक विचारों की चर्चा है। ये तीनों प्रारम्भिक बौद्ध साहित्य माने जाते हैं।

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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार

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जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार

जैन दर्शन में ज्ञान के प्रकार

जैन दर्शन में ज्ञान दो प्रकार का होता है-

  1. परोक्ष ज्ञान तथा
  2. अपरोक्ष ज्ञान।

परोक्ष ज्ञान

जो ज्ञान साधारणतया अपरोक्ष माना जाता है, वह केवल अपेक्षाकृत अपरोक्ष है। इन्द्रियों की अपेक्षा के बगैर स्वत: प्राप्त ज्ञान परोक्ष ज्ञान कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान में आत्मा का पदार्थ से साक्षात् सम्बन्ध होता है।

परोक्ष ज्ञान के प्रकार

सिद्ध सेन दिवाकर के अनुसार परोक्ष ज्ञान के प्रकार निम्नलिखित हैं-

    स्मृतिज्ञान जिसे पहले कभी सुना, देखा या अनुभव किया गया हो, ऐसे विषय का यथार्थ स्मरण स्मृतिज्ञान कहलाता है।

    प्रत्यभिज्ञा जब मनुष्य किसी वस्तु को देखता है, तो उसे सादृश्यता का बोध होता है और वह उस वस्तु को पहचान लेता है, तब ऐसा ज्ञान प्रत्यभिज्ञा ज्ञान कहलाता है। प्रत्यभिज्ञा का अर्थ होता है-पहले से जाना पहचाना।

    तर्कज्ञान तर्क के आधार पर अपनी युक्ति प्रस्तुत करना तर्कज्ञान होता है।

    अनुमान ज्ञान हेतु के द्वारा साध्य का ज्ञान प्राप्त करना अनुमान ज्ञान कहलाता है।

    आगम आप्त पुरुषों के वचन आगम कहलाते हैं।

अपरोक्ष ज्ञान

जो ज्ञान इन्द्रियों के माध्यम से तथा मन से उत्पन्न होता है, वह अपरोक्ष ज्ञान कहलाता है, क्योंकि इसमें आत्मा एवं वस्तुओं के बीच कोई माध्यम जैसे मन या इन्द्रियाँ होती हैं।

अपरोक्ष ज्ञान के प्रकार

अपरोक्ष ज्ञान के दो प्रकार होते हैं-

  1. व्यावहारिक ज्ञान
  2. पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान

व्यावहारिक ज्ञान व्यावहारिक ज्ञान में इन्द्रियों या मन के द्वारा बाह्य एवं आभ्यन्तर विषयों का ज्ञान होता है।

पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान कर्म बन्धन के नष्ट होने पर प्राप्त होता है। इसमें आत्मा और ज्ञेय वस्तुओं का सीधा सम्बन्ध होता है। राग, द्वेष, मोह, माया में फँसे व्यक्ति को यह ज्ञान प्राप्त नहीं हो सकता। पारमार्थिक अपरोक्ष ज्ञान तीन प्रकार का होता है, जिसका उल्लेख निम्नलिखित है

    अवधि ज्ञान जब मनुष्य अपने कर्म को अंशत: नष्ट कर लेता है, तो वह एक ऐसी शक्ति प्राप्त कर लेता है, जिसके द्वारा वह अत्यन्त सूक्ष्म, दूरस्थ तथा अस्पष्ट द्रव्यों को भी जान सकता है। ऐसा तभी सम्भव है जब मनुष्य कर्म बन्धन से छुटकारा पाने का सफल प्रयास करे। अवधि ज्ञान असीम ज्ञान है। इसके द्वारा सीमित ज्ञान ही प्राप्त हो सकता है, इसी कारण इसे अवधि ज्ञान कहते हैं।

    मन: पर्याय जब मनुष्य राग, द्वेष, मोह, माया आदि पर विजय पा लेता है अर्थात् सभी विकारों से मुक्त हो जाता है, तब वह अन्य व्यक्तियों के वर्तमान, भूत विचारों को जान सकता है। इस प्रकार का ज्ञान मन: पर्याय कहलाता है। इस प्रकार के ज्ञान से व्यक्ति दूसरे के मन को भी पढ़ने में सक्षम हो जाता है।

    केवल ज्ञान ज्ञान में बाधक सभी कर्मों के नष्ट हो जाने से आत्मा शुद्ध हो जाए अर्थात् विकार रहित हो जाए, तो अनन्त ज्ञान प्राप्त होता है, केवल ज्ञान प्राप्त होने पर सम्पूर्ण ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है। इस प्रकार का ज्ञान केवल मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है। यह ज्ञान देश व काल की सीमाओं से रहित होता है, इसी कारण यह ज्ञान असीम व अनन्त होता है।

अलौकिक ज्ञान

उपरोक्त तीनों प्रकार के ज्ञान पूर्णत: अपरोक्ष हैं। इन्हें जैन दार्शनिक अलौकिक ज्ञान भी कहते हैं। अलौकिक ज्ञान के अतिरिक्त दो प्रकार का लौकिक ज्ञान होता है-

  1. मति व
  2. श्रुति

इनकी चर्चा इस प्रकार है-

मति ज्ञान इन्द्रियों एवं मन से प्राप्त ज्ञान को मति ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार मति ज्ञान के अन्तर्गत व्यावहारिक अपरोक्ष ज्ञान (बाह्य) तथा अन्तर (प्रत्यक्ष, स्मृति) प्रत्यभिज्ञा अनुमान आते हैं। मति ज्ञान दो प्रकार का होता है-

  1. इन्द्रियजन्य ज्ञान तथा
  2. अतीन्द्रिय ज्ञान

इन्द्रियजन्य ज्ञान में इन्द्रियों का बाह्य वस्तु से सम्पर्क होता है। इन्द्रियजन्य ज्ञान चार प्रकार से प्राप्त होता है। उदाहरण किसी भी ध्वनि के सुनने पर सर्वप्रथम इन्द्रियाँ संवेदन प्राप्त करती हैं, परन्तु ज्ञात नहीं होता कि ध्वनि किसकी है। यह अवस्था 'अवग्रह' कहलाती है। अवग्रह से केवल विषय का ग्रहण होता है। तब प्रश्न उठता है कि ध्वनि किसकी है? यह अवस्थाईहा' कहलाती है, इसके बाद एक निश्चयात्मक ज्ञान प्राप्त होता है कि ध्वनि अमुक वस्तु की है, इसे 'आवाय' कहते हैं। इस प्रकार जो ज्ञान प्राप्त होता है उसका मन में 'धारण' होता है, इसकोधारण' कहते हैं।

श्रुति ज्ञान किसी के बताने, प्रामाणिक ग्रन्थों को सुनने अथवा आप्त वचनों से जो ज्ञान प्राप्त होता है, उसे श्रुत ज्ञान कहते हैं। इस प्रकार के ज्ञान के लिए इन्द्रिय ज्ञान का होना जरूरी है। अत: मति ज्ञान से पहले श्रुत ज्ञान आता है। श्रुति ज्ञान त्रैकालिक ज्ञान का विषय होता है। श्रुत ज्ञान अपरिणामी होता है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...