बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग
भारतीय दर्शन |
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बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग |
बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग
बौद्ध दार्शनिकों की मान्यता है कि मनुष्य को निर्वाण तभी प्राप्त
हो सकता है, जब आष्टांगिक मार्ग के अनुरूप निष्ठापूर्वक आचरण करे। ऐसा करने पर
अविद्या का अन्त तथा प्रज्ञा का उदय होता है तथा मनुष्य को समस्त दुःखों से पूर्णतया
छुटकारा मिल जाता है और वह संसार चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। बौद्ध दर्शन का
आष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित हैं-
सम्यक् दृष्टि (सम्मादिट्ठि)
अविद्या के कारण आत्मा संसार के सम्बन्ध में मिथ्या दृष्टि की उत्पत्ति
करती है। अविद्या ही हमारे दु:खों का मूल कारण
है। अविद्या से ही मिथ्या दृष्टि उत्पन्न होती है और हम अनित्य दुःखद और अनात्म को
नित्य सुखकर और आत्मरूप समझ बैठते हैं। इस दृष्टि को छोड़कर यथार्थ स्वरूप पर ध्यान
लगाना चाहिए।
सम्यक् संकल्प
आर्य सत्यों के ज्ञानमात्र से कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक
उनके अनुसार जीवन बिताने का संकल्प या दृढ़ इच्छा नहीं हो जाए। जो निर्वाण चाहते हैं
उन्हें सांसारिक विषयों की आसक्ति, दूसरों के प्रति
द्वेष और हिंसा तीनों का त्याग करना चाहिए। इन्हीं का नाम सम्यक् संकल्प है।
सम्यक् वाक् (सम्मावाच)
सम्यक् संकल्प केवल मानसिक नहीं होना चाहिए, बल्कि
कार्य रूप में परिणत भी होना चाहिए। सम्यक् संकल्प के द्वारा सर्वप्रथम हमारे वचन का
नियन्त्रण होना चाहिए अर्थात् हमें निन्दा, मिथ्या वचन, अप्रिय
वचन तथा वाचालता से बचना चाहिए।
सम्यक् कर्मांत (सम्माकम्मांत)
सम्यक् संकल्प को केवल वचन में ही नहीं, बल्कि
कर्म में भी परिणत करना चाहिए। अहिंसा अस्तेय, अपरिग्रह, इन्द्रिय
संयम ही सम्यक् कर्मांत है।
सम्यक् आजीव (सम्मा-आजीव)
बुरे वचन तथा कर्म को त्यागकर मनुष्य को शुद्ध उपाय से जीविकोपार्जन
करना चाहिए तथा जीविका के लिए उचित मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।
सम्यक् व्यायाम
सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक्
वचन,
सम्यक्
कर्म,
सम्यक्
आजीव के अनुसार चलने पर भी यह सम्भव है कि हम पुराने दृढमूल कुसंस्कारों के कारण उचित
मार्ग से भटक न जाएँ और हमारे मन में नए-नए बुरे भावों
की उत्पत्ति हो। अत: इस बात का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए, बुरे
भावों का पूरी तरह नाश हो जाए और नए बुरे भाव भी मन में न आए। मन को बराबर अच्छे-अच्छे
विचारों से भरा रखना चाहिए। शुभ विचारों को मन में धारण करने की चेष्टा करते रहना चाहिए।
सम्यक् स्मृति (सम्मासत्ति)
इस मार्ग पर चलने के लिए सतर्क रहने की आवश्यकता है। जिन विषयों
का ज्ञान प्राप्त हो चुका हो, उन्हें बराबर
स्मरण करते रहना चाहिए। किसी भी वस्तु से अनुराग नहीं रखना चाहिए। पूर्णत: अनासक्त
भाव रखना चाहिए। इस सम्यक् स्मृति के कारण मनुष्य सभी विषयों से विरक्त हो जाता है।
वह सांसारिक बन्धनों में नहीं पड़ता।
सम्यक् समाधि (सम्मासमाधि)
उपरोक्त सभी नियमों का पालन कर जो बुरी चित्तवृत्तियों को दूर कर
लेता है, वह सम्यक् समाधि के योग्य हो जाता है। तत्पश्चात् वह चार अवस्थाओं
को पार कर निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर लेता
है। निर्वाण की प्राप्ति ही पूर्ण प्रज्ञा की अवस्था है। ज्ञान की पूर्णता के लिए सदाचार
की आवश्यकता होती है, साथ ही ध्यान भी आवश्यक है।
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