जे कृष्णमूर्ति का विचार प्रत्यय
जे कृष्णमूर्ति का विचार प्रत्यय |
जे कृष्णमूर्ति का विचार प्रत्यय
कृष्णमूर्ति के विचारों, जो गहरे ध्यान, श्रेष्ठ ज्ञान एवं उच्च व्यवहार की उपज हैं, ने
दुनिया के समस्त दार्शनिकों, धार्मिकों एवं मनोवैज्ञानिकों
को प्रभावित किया। वे कहते थे कि आपने जितनी भी परम्परा, देश
एवं काल से जानी है, उससे मुक्त होकर ही आप सच्चे अर्थों में
मानव बन पाएंगे। जीवन का परिवर्तन मात्र इसी बोध में निहित है कि आप स्वतन्त्र रूप
से सोचते हैं, कि नहीं। आप अपनी सोच पर ध्यान देते हैं,
या नहीं। उनके अनुसार विश्व को बेहतर बनाने के लिए यथार्थवादी एवं
स्पष्ट मार्ग पर चलना चाहिए। जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं - आपके
भीतर कुछ भी नहीं होना चाहिए, तब आप एक साफ एवं स्पष्ट आकाश
देखने के लिए तैयार हो जाते हैं। आप धरती का भाग नहीं आप स्वयं आकाश हैं। यदि आप
कुछ भी हैं, तो फिर आप कुछ नहीं। उन्होंने 'ऑर्डर ऑफ दि स्टार' को भंग करते हुए कहा कि अब से
कृपा करके याद रखें कि मेरा कोई शिष्य नहीं है, क्योंकि गुरु
तो सब को दबाता है। सच तो स्वयं तुम्हारे भीतर है। सच को ढूंढने के लिए मनुष्य को
सभी बन्धनों से स्वतन्त्र होना आवश्यक है। जे. कृष्णमूर्ति कहते हैं कि हम
रूढ़ियों के दास हैं। भले ही हम खुद को आधुनिक समझ बैठे हैं, मान लें कि हम स्वतन्त्र हो गए, परन्तु गहराई से
देखें, हम रूढ़िवादी ही हैं। इसमें कोई संशय नहीं है,
क्योंकि छवि-रचना के खेल को आपने स्वीकार किया है और परस्पर
सम्बन्धों को इसी के आधार पर स्थापित करते हैं। यह बात उतनी ही पुरातन है, जितनी कि ये पहाड़ियाँ। यह हमारी एक रीति बन गई है। हम इसे अपनाते हैं,
इसी में जीते हैं और इसी से एक-दूसरे को यातनाएँ देते हैं, तो क्या इस रीति को रोका जा सकता है? जे.
कृष्णमूर्ति ने वर्ष 1979 में प्रकाशित हुई अपनी प्रसिद्ध
पुस्तक 'मेडिटेशन' में ध्यान के
सन्दर्भ में अपने विचार प्रस्तुत किए हैं। उन्होंने लिखा है कि ध्यान का अर्थ
विचार का अन्त हो जाना है तथा एक भिन्न आयाम का प्रकट होना है जो समय से परे है।
ध्यानपूर्ण मन शान्त होता है। यह मौन विचार की कल्पना से परे है। यह मौन किसी
निस्तब्ध संध्या की नीरवता भी नहीं है। विचार जब अपने सारे अनुभवों, शब्दों और प्रतिभाओं सहित पूर्णतः विदा हो जाता है, तभी
इस मौन का जन्म होता है। यह ध्यानपूर्ण मन ही धार्मिक मन है। किसी चीज को सहज रूप
से जैसी वह है, वैसी ही देखना, यह
संसार में सर्वाधिक कठिन चीजों में से एक है, क्योंकि हमारा
दिल व दिमाग बहुत ही जटिल है और हमने सहजता का गुण खो दिया है। धार्मिक मन प्रेम
का विस्फोटक है। यह प्रेम किसी भी अलगाव को नहीं जानता। यह न एक है न अनेक,
अपितु यह प्रेम की अवस्था है, जिसमें सारा
विभाजन समाप्त हो चुका होता है। सौन्दर्य की तरह उसे भी शब्दों के द्वारा मापा
नहीं जा सकता। इस मौन से ही एक ध्यानपूर्ण मन का समस्त क्रियाकलाप जन्म लेता है।
कृष्णमूर्ति ने सत्य को एक 'मार्गरहित भूमि' बताया है और यह भी कहा है कि किसी भी औपचारिक धर्म, सम्प्रदाय
एवं दर्शन के माध्यम से इस तक नहीं पहुंचा जा सकता।
जे. कृष्णमूर्ति ने शिक्षा के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए कहा
है कि शिक्षा का सबसे बड़ा कार्य एक ऐसे समग्र व्यक्ति का विकास है जो जीवन की
समग्रता को पहचान सके। वे विचार-विमर्श एवं वार्ताओं द्वारा अपने विचारों को लोगों
तक पहुँचाते थे, क्योंकि मानव मूल के मूलभूत परिवर्तनों से तथा एक नवीन
संस्कृति के सृजन से जो केन्द्रीभूत है, उसके सम्प्रेषण के
लिए शिक्षा को कृष्णमूर्ति प्राथमिक महत्त्व देते थे। अनुशासन के विषय में वे कहते
थे कि बाह्य अनुशासन मन को मूर्ख बनाता है। यह आप में अनुकूलता और नकल करने की
प्रवृत्ति लाता है, परन्तु यदि आप विचारों के माध्यम से
स्वयं को अनुशासित रख सकते हो, तो इससे कुशल व्यवस्था आती
है। जहाँ व्यवस्था होती है, वहाँ स्वतन्त्रता सदैव रहती है।
यदि आप ऐसा करने में स्वतन्त्र नहीं हैं, तो आप व्यवस्था
नहीं कर सकते। व्यवस्था ही अनुशासन है। कृष्णमूर्ति अपने शैक्षिक विचारों के
माध्यमों से शिक्षक एवं शिक्षार्थी को यह उत्तरदायित्व सौंपते हैं कि वे एक अच्छे
समाज का निर्माण करें, जिसमें सभी लोग शान्ति, सुरक्षा एवं बिना किसी हिंसा के प्रसन्नतापूर्वक जी सकें, क्योंकि आज के विद्यार्थी ही कल के भविष्य हैं।
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