ऋत ( Ṛta ) का सिद्धान्त

ऋत का सिद्धान्त 

ऋत का सिद्धान्त

ऋत का अर्थ 

     वेदों में प्रयुक्त शब्द वैदिक नीति के वैज्ञानिक विश्लेषण पर प्रकाश डालता है । हमारे वैदिक आर्यों ने जिन नैतिक नियमों को, जैसे कर्म के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया है, उनका मूल वस्तुत: इस ऋत की कल्पना के द्वारा ही प्रस्तुत हुआ है । ऋत का शब्दिक अर्थ है - उचित या सही अथवा ईमानदार। इससे स्पष्ट होता है कि यह नैतिकता के नियम का द्योतक है।

प्राकृतिक नियम 

    वेदों में यह प्रारम्भ में प्राकृतिक नियम था। वेदों में इसका प्रारम्भिक अर्थ, वस्तुओं के मार्ग का नियम था। अतः ऋत का अर्थ विश्व की व्यवस्था है। वैदिक आर्यों के लिए ऋत का नियम वह नियम है जिससे प्रकृति में सब कुछ एक व्यवस्था के अन्तर्गत चलता है। यह नियम इतना महत्त्वपूर्ण माना गया कि इसे जगत की सभी चीजों के पहले अस्तित्ववान कहा गया। इसी से समस्त जगत को अभिव्यक्त कहा गया। जगत परिवर्तनशील होने के कारण अनित्य कहा गया जबकि ऋत नित्य है। इसे सबका पिता कहा गया।

नैतिक नियम 

    वेदों का यह प्राकृत नियम ही आगे चलकर नैतिक नियम बन गया जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं, ऋत का मौलिक तात्पर्य- संसार, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्रगण, प्रातः काल, सायंकाल एवं दिन तथा रात की गति का नियमित मार्ग है। शनैः शनै: यह एक ऐसे सदाचार के मार्ग, जिनका अनुसरण मनुष्य को करना चाहिए और साध्वाचार के नियम के अर्थों में व्यवहृत होने लगा जिनका पालन देवताओं के लिए भी आवश्यक है। ऋत का मार्ग ही सदाचार का मार्ग समझा गया जो बुराइयों से अस्पृष्ट यथार्थ मार्ग है। यहाँ नियम एवं व्यवस्था नैतिकता की सीढ़ियाँ हैं ।

ऋत के संरक्षक वरुणदेव 

   ऋषियों ने इस नियम का संरक्षक वरुण देवता को स्वीकार किया। इसे गोपाऋतस्य अर्थात् ऋत का संरक्षण कहा गया। वरुण के साथ 'मित्र' नामक देव को भी ऋत का संरक्षक माना गया। वैसे तो सभी देवता इससे आबद्ध है। वे सभी इसे स्वीकार करते हैं और इसके अनुसार आचरण करते हैं। इसीलिए देवताओं को ऋतजात भी कहा गया है। वरुण वेदों में आकाश का देवता है वह तारिकाओं से सुसज्जित समस्त आकाश हो, उसके नीचे स्थित प्राणिमत्र को तथा उसके निवासस्थान को एक वस्त्र के समान आवृत किये रहता है। उसकी आज्ञा और भय से ही नदियाँ बहती है, सूर्य विश्व को प्रकाशित करता है तथा चन्द्र-तारिकाएँ अपने-अपने मार्ग पर नियमानुसार चलती है। वैदिक ऋषि कवितामयी भाषा में कहता है, ‘राजा वरुण ने सूर्य के उदय से अस्त तक चलने के लिए मार्ग का विस्तार किया है। उसी ने आकाश में बिना पैरों वाले सूर्य के चलने के लिए मार्ग बनाया है। ऊँचे आकाश में जो सप्तर्षि नामक तारे स्थित हैं वे रात में दिखाई देते पर दिन में कहाँ चले जाते हैं? वरुणदेव के कार्य में कोई बाधा नहीं डाल सकता। उसकी आज्ञा से ही रात में चन्द्रमा प्रकाशित होता है’। वेदों में इसे प्राकृतिक के साथ-साथ नैतिक नियमों का संरक्षक कहा गया। वह चंचलचित्त न होकर धृतव्रत अर्थात् दृढ़ संकल्पवाला है, वह सर्वज्ञ है, वह सदाचार सम्बन्धी नियमों के अनुकूल चलता है जिनका विधान उसे ने किया है। वह अपराधियों के लिए कठोर किन्तु पश्चाताप करने वाले के लिए दयालु है। वरुण को वेदों में अदिति का पुत्र कहा गया है।

यज्ञ का नियम 

   ऋत की अवधारणा से यज्ञ के नियम भी पुष्ट हुये। जैसा कि डॉ. राधाकृष्णन् लिखते हैं- “जब कर्मकाण्ड का महत्त्व बढ़ने लगा तो ऋत यज्ञ अथवा यज्ञात्मक अनुष्ठान का पर्यायवाची बन गया”।

कर्म का नियम 

   आगे चलकर ऋत कर्म सिद्धान्त का भी जनक बना। डॉ. त्रिपठी के अनुसार, “उत्तरवर्ती चिन्तन के सिद्धान्त का आधार ऋत की अवधारण में निहित है”। डॉ. राध कृष्णन के अनुसार, “यह कर्म-सिद्धान्त का, जो कि भारतीय विचारधारा का एक विशिष्ट रूप है, पूर्वरूप है”।

    इस तरह हम देखते हैं कि वेदों में प्रस्तुत ऋत का सिद्धान्त एक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त है। निश्चय ही इसने भारतीय दर्शन के साथ-साथ भारतीय धर्म और संस्कृति को भी अत्यन्त प्रभावित किया है।

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