यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

यज्ञ ( Yajna ) एवं बलि ( Sacrifice )

    यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति 'यज्' धातु में - यजयाचयतविच्छ प्रक्षरक्षो नङ् (अष्टाध्यायी, 3.3.60) इस सूत्र से नङ् प्रत्यय करने से होती है, जिसका सामान्य अर्थ होता है - देवपूजा। किन्तु यदि यज् धातु पर गम्भीरता से विचार करें तो इससे तीन अलग-अलग अर्थ निर्गमित होते हैं। प्रथम देवपूजा, द्वितीय संगतिकरण और तृतीय दान अर्थात बलि। सभी प्राणियों के कल्याणार्थ अग्नि, जल, वायु आदि प्राकृतिक पदार्थों का यथोचित उपयोग करना देवपूजा है। ऐसे विद्वानों का सत्संग करना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो, संगतिकरण कहलाता है। अपने द्वारा अर्जित विद्या, धन, धर्म आदि का प्राणि मात्र के लिए प्रयुक्त करना दान (बलि) है। श्रौत्रसूत्र (1.2.2) में कहा गया है – देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यज्ञः - अर्थात् देवता को उद्देश्य में रखकर किसी द्रव्य का त्याग करना यज्ञ कहलाता है। संहिता, ब्राह्मण और धर्म सूत्रों में दो प्रकार के यज्ञों की मुख्य रूप से चर्चा की गई है श्रौत यज्ञ और स्मार्त यज्ञ। जिनका विधान साक्षात् श्रुति में होता है, उन्हें श्रौत यज्ञ कहते हैं एवं जिनका विधान स्मृतियों में होता है उसे स्मार्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त दोनों प्रकार के यज्ञों के पुनः तीन भेद किये गये हैं - नित्य, नैमित्तिक और काम्य। इनके अतिरिक्त भी यज्ञ के अवान्तर एवं प्रकारान्तर भेद किए गये हैं, जैसे – पंचमहायज्ञ आदि। यज्ञों का संक्षेप में वर्णन इस प्रकार है –

श्रौत यज्ञ 

अग्नि को देवताओं का मुख मानकर मंत्रोच्चार द्वारा काम सिद्धि के लिए किया गया यज्ञ श्रौत यज्ञ कहलाते है। कुछ श्रौत यज्ञ का वर्णन इस प्रकार से है –

  • दर्श तथा पूर्णमास यज्ञ – यज्ञ यज्ञ पूर्णिमा या अमावस्या को पूर्ण किया जाता है। पूर्णिमा में सम्पादित यज्ञ में अग्नि और सोम तथा अमावस्या को सम्पादित यज्ञ में इन्द्र और अग्नि को आहुति डि जाती है।
  • अग्निहोत्र – यह यज्ञ सभी गृहस्थ के लिए प्रातः तथा सायं दोनों समय सूर्याभिमुख होकर सन्यासी बनने तक प्रतिदिन सम्पन्न किया जाता है। इसमें गाय के दूध से अथवा दही भात और घी से हवन पूर्ण होता है।
  • चतार्मास्य यज्ञ – यह यज्ञ ऋतुओं के प्रारम्भ में सम्पन्न होते है। इन यज्ञों में अग्नि, सोम, पूषन, सविता आदि देवताओं को आहूति देकर प्रसन्न किया जाता है।
  • वाजपेय यज्ञ - यह शरदकाल में किया जाता था। राजागण इसे सम्राट बनने की कामना से करवाते थे। 
  • राजसूय यज्ञ - यह लम्बे समय तक चलने वाला यज्ञ था। क्षत्रियगण इसे राज्य की कामना से करवाते थे। 
  • अश्वमेघ यज्ञ - इसकी गणना प्राचीनतम् यज्ञों में होती है। इसे भी राजागण ही कर करवाते थे। इसमें अश्व की बलि दी जाती थी तथा यह विश्वास किया जाता था कि यज्ञ का अश्व स्वर्ग चला जाता है। 
  • पशुबंध यज्ञ - इसमें पशु (नर बकरा) की बलि इन्द्र, अग्नि, सूर्य या प्रजापति के लिए दी जाती थी। यह क्रिया विशेष मंत्र के साथ की जाती थी। पशु का काटते समय तथा पकाते सम मंत्रोच्चार किया जाता था।

स्मार्त यज्ञ 

    वैदिक यज्ञों की हिंसा का विरोध स्मृतियों ने भी किया गया है। इसलिए स्मृतियों ने बिना पशुबलि के यज्ञों का प्रवधान है। विभिन्न देवताओं के नाम से विभिन्न यज्ञ किए जाते है, जैसे - रुद्रयाग, सूर्ययाग, विष्णुयाग, इन्द्रयाग, गायत्रीयाग आदि। ये सभी स्मार्त कहा जाते है।

    श्रौत यज्ञों और स्मार्त यज्ञों में एक अन्य अन्तर इसे करने की भावना भी है। श्रौत यज्ञ जहाँ किसी फल की लालसा में किये जाते थे वहाँ स्मार्त यज्ञ निष्काम भाव से केवल देवता के पूजन हेतु किये जाते थे। इस यज्ञ से देवता अवश्य अपनी इच्छा से यज्ञकर्ता को बिना उसके मांगे फल देते हैं,

पंचमहायज्ञ 

    वैदिक ऋषियों ने गृहस्थों के लिए पंचमहायज्ञों का भी प्रावधान किया है। सीमित साधन और सीमित समय में गृहस्थ इन्हें स्वयं कर सकता है। डॉ. पी. वी. काणे के अनुसार, पंचमहायज्ञ का उद्देश्य विधाता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों तथा सम्पूर्ण ब्रह्मण्ड के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करना था। किन्तु श्रौत यज्ञों में क्रिया की मुख्य प्रेरणा है - स्वर्ग, सम्पत्ति, पुत्र आदि की कामना। अतः पंचमहायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता, प्रगतिशीलता, एवं सदाशयता देखने में आती है। ये पंचमहायज्ञ निम्नलिखित हैं –

  1. ब्रह्मयज्ञ - ब्रह्मयज्ञ का तात्पर्य स्वाध्याय है। गृहस्थ को प्रतिदिन एकान्त स्थान में बैठकर धर्मग्रन्थों का पाठ करना चाहिए। इसके अन्तर्गत चारों वेदों इतिहास एवं दार्शनिक ग्रन्थों का पाठ करने का निर्देश है। स्वाध्याय से व्यक्ति अपने धर्म से स्वयं परिचित होता है साथ ही लिखित परम्परा के न होने के आरण इस तरह यह साहित्य अक्षत भी बना रहा। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार इस यज्ञ से सन्तुष्ट होकर देवता मनुष्य को आयु, वीर्य, सुरक्षा, समृद्धि, प्रतिभा, कान्ति तथा अभ्युन्नति प्रदान करते हैं। यहाँ यह भी कहा गया है कि जो प्रतिदिन स्वाध्याय करता है उसे उव लोक से तिगुना फल होता है, जो दान देने या पुरोहित को धन-धान्य से पूर्ण सारा संसार देने से प्राप्त होता है। यहाँ उल्लेखनीय है कि स्वाध्याय को प्रायः सभी भारतीय दर्शनों ने मोक्ष प्राप्ति में आवश्यक साधन स्वीकार किया है ।
  2. देवयज्ञ - वैदिक आर्य प्रकृति के प्रति प्रारम्भ से ही कृतज्ञ रहे हैं। इसीलिए प्राकृतिक शक्तियों, यथा - सूर्य, अग्नि, वायु, पृथिवी आदि को उन्होंने देवत्व का दर्जा दिया। वस्तुत: इनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने के लिए ही देवयज्ञ किया जाता है। इसमें अग्नि में 'स्वाहा' शब्द के साथ देवता का नाम लेकर समिधा डाली जाती है। इसमें त्याग की भावना भी रहती है। प्रत्येक आहूति के अन्त में इदं देवाय न मम् अर्थात् यह देवता का है मेरा नहीं है, यज्ञकर्त्ता कहता है। मनु ने होम को ही देवयज्ञ कहा है। किन्तु मध्य एवं आधुनिक युग में होम सम्बन्धी प्राचीन विचार निम्नभूमि चला गया और उसका स्थान देवपूजा (घर में रखी मूर्तियों का पूजन) ने ले लिया।
  3. भूतयज्ञ - प्रकृति के साथ ही प्रकृति में स्थित प्राणियों के प्रति भी वैदिक आर्य सहृदय थे। भूतयज्ञ प्राणियों के प्रति करुणा पर आधारित है। शतपथ ब्राह्मण में प्राणिमात्र के लिए बलिदान को भूतयज्ञ कहा गया है। इसमें भोजन के पूर्व भोजन का एक भाग पशुओं के लिए निकाले जाने की व्यवस्था है। आज भी अधिकांश हिन्दू घरों में गाय के लिए ग्रास अवश्य निकाला जाता है। भूतयज्ञ को बलिहरण भी कहा जाता है। इसमें बलि अग्नि में नहीं, भूमि पर दी जाती है। इस हेतु भूमि को पहले हाथ से स्वच्छ किया जाता है फिर उसपर जल छिड़का जाता है और फिर उस पर पशु के लिए भोजन रखा जाता है।
  4. पितृयज्ञ - हिन्दुओं द्वारा पितरों के प्रति आज भी श्रद्धा अभिव्यक्त की जाती है। इसका मूल पितृयज्ञ में देखा जा सकता है। वस्तुतः यह भी कृतज्ञता का ज्ञापना है जो हम अपने उन पूर्वजों के प्रति प्रगट करते हैं जिनसे हमने जीवन के अतिरिक्त और भी बहुत कुछ प्राप्त किया हुआ है। शुक्लयजुर्वेद में प्रार्थना है कि ‘सोमरस की तरह सूक्ष्म भावनात्मक स्वाधीत अस्तित्व में प्रविष्ट अग्नि द्वारा परिशुद्ध पितर देवमार्ग से आएँ, पकाशरूप में आगे उपस्थित हों, अपने को हमारे जीवन में प्रतिबिम्ब और चरितार्थ पाकर तृप्त हों, हमें आगे बढ़ने की प्रेरणा दें, हमारे ऊपर स्नेहछाया रखें तथा हमारी रक्षा करें। मनुस्मृति में पितृयज्ञ हेतु तर्पण, बलिहरण और श्राद्ध बताया गया है।
  5. नृयज्ञ या मनुष्ययज्ञ - इसे अतिथियज्ञ भी कहते हैं। भारतीय संस्कृति में अतिथि को वैश्वानर, विष्णु एवं नारायण कहा गया है। इससीलिए अतिथि देवो भव का आदेश दिया गया है। अतिथि का प्रेमपूर्वक सत्कार करना क उसे भोजन कराना ही अतिथियज्ञ है। महाभारत के वनपर्व में अतिथियज्ञ में यज्ञकर्ता के लिए पाँच प्रकार की दक्षिणा बताई गई है - आतिथ्यकर्ता को अपनी आँख, मन, मीठी बोली, व्यक्तिगत ध्यान एवं अनुगमन (जाते समय कुछ दूर तक साथ-साथ जाना) देना चाहिए। अतिथि सत्कार के नियम हैं - आगे बढ़कर स्वागत करना, पैर धोने के लिए जल देना, आसन देना, दीपक जला कर रख देना, भोजन और ठहरने का स्थान देना, व्यक्तिगत ध्यान देना, सोने के लिए खटिया बिछावन देना और जाते समय कुछ दूर तक पहुँचाना। यह भी कहा गया है, यदि अतिथि निराश होकर लौट जाता है तो वह अपने पाप गृहस्थ को देकर जाता है और उसके पुण्य लेकर जाता है। अतिथि के निराश होकर लौटने से गृहस्थ का सारा कुटुम्ब नष्ट हो जाता है। किन्तु अतिथि हम किसे कहेंगे? मनु के अनुसार अतिथि वह है जो पूरे दिन (तिथि) नहीं रुकता है, या अतिथि वह ब्राह्मण है जो एक रात्रि के लिए रुकता है। किन्तु अन्य अनेकानेक ग्रन्थों में अतिथि का ब्राह्मण होना आवश्यक नहीं है। आपस्तम्बधर्मसूत्र के अनुसार ‘वैश्वदेव के उपरान्त जो भी आ जाए उसे भोजन देना चाहिए यहाँ तक कि चांडाल को भी’। सत्कार तथा भोजन पानी के बाद अतिथि को बिदा करते हुए गृहस्थ को उसकी प्रदक्षिणा करके कहना चाहिए, पुनर्दर्शानायेति अर्थात् फिर मिलेंगे।

गीता में यज्ञ

   श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है कि प्रजापति ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त हो यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनायें देने वाला हो। इस यज्ञ द्वारा मनुष्य देवताओं की उन्नति करता है और देवता लोग मनुष्य की उन्नति करते हैं -

सहयज्ञा प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ।

अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकाम धुक् ।।

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।

परस्परं भायन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ । (गी०, 3.10-11)

यज्ञ के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करते हुए गीता में कहा गया है कि यज्ञ के परिणाम स्वरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगी जन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है। गीता में सत्व, रज एवं तम भेद से यज्ञ तीन प्रकार का माना गया है। जो यज्ञ शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य समझकर तथा फल को न चाहने वाले पुरुषो द्वारा किया होता है, वह सात्विक यज्ञ कहलाता है। जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिए तथा फल की कामना से किया जाता है उसे राजस यज्ञ कहते हैं। शास्त्र विधि से हीन, अन्नदान से रहित, मंत्र हीन, दक्षिणा रहित एवं श्रद्धा रहित यज्ञ को तामस यज्ञ कहा जाता है -

अफलाकङक्षिभियंज्ञो विधिदृष्टो य इज्यते ।

यष्टत्व्यमेवेति मनः समाधाय स सात्विकः ॥

अभिसंधाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।

इज्यते भरत श्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥

विधि हीनमसृष्टान्नं मंत्र होनमदक्षिणम् ।

श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥ (गी०, 17.11-13)


Comments

Popular posts from this blog

वेदों का सामान्य परिचय General Introduction to the Vedas

वैदिक एवं उपनिषदिक विश्व दृष्टि

मीमांसा दर्शन में अभाव और अनुपलब्धि प्रमाण की अवधारणा