उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)
उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)
उपनिषदों में ब्रह्म का स्वरूप (Form of Brahma in Upanishads)
ब्रह्म
ब्रह्म शब्द की व्युत्पत्ति वृह् धातु से होती है जिसका अर्थ
होता है - बढ़ना या विस्तार को प्राप्त होना। तैत्तिरीयोपनिषद् में ब्रह्म शब्द की
व्युत्पत्ति इसी अर्थ में की गई है। तैत्तिरीयोपनिषद् शांकर भाष्य (2.7) में कहा गया है – “बृहत्तामत्वाद् ब्रह्म”। छान्दोग्योपनिषद् (3.14.1) में कहा गया है – “सर्वं खल्विदं ब्रह्म
तज्जलानिति”। इन दोनों श्रुति वाक्यों से यह प्रतिपादित किया
गया है कि ‘जिससे समस्त भूत उत्पन्न होते हैं, स्थित होते हैं तथा विनाश को प्राप्त करते हैं वह ब्रह्म है’। शतपथ ब्राह्मण में ब्रह्म के स्वरूप के सन्दर्भ में कहा गया है कि ‘वह ब्रह्म पूर्ण है और यह जगत भी पूर्ण है। पूर्ण का उद्गम हो जाने पर भी
वह पूर्ण ही शेष रहता है’ –
पूर्णमदः पूर्णमिदं
पूर्णत्पूर्णमुदुच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय
पूर्णमेवावशिष्यते ॥ (शत० प्रा०, 14.7.4)
बृहदारण्यकउपनिषद् (2.3.6) के अनुसार – ‘अव्यक्त होने के कारण ब्रह्म को यह ऐसा नहीं, ऐसा नहीं इस प्रकार का निर्देश होता है’। मैत्रेयण्युपनिषद् में कहा गया है कि ‘जैसे - आकाश आदि पंचमहाभूत घट आदि द्रव्यों में उँचे नीचे, स्थूल, सूक्ष्म, दीर्घ और ह्रस्व आदि अनेक रूपों में प्रवेश करते हैं वैसे ही ब्रह्म सबका कारण होने से, प्रत्यक्ष न होने से निर्गुण है किन्तु लीला के लिए वह सगुण रूप भी धारण कर लेता है’ –
अथ यथोर्णना भिस्तन्तुनोऽर्वमुत्क्रान्सोऽवकाशं लभतीत्येवं ।
वावखल्वसावभिध्यातो मित्यनेनोर्ध्वमुत्क्रान्तः स्वातन्त्र्यं लभते ।।
श्रीमद्भगवत गीता में कहा गया है कि ‘ब्रह्म
विभाग रहित एक रूप से आकाश के सदृश परिपूर्ण हुआ भी चराचर सम्पूर्ण भूतों में
पृथक-पृथक के सदृश स्थित होता है तथा वह जानने योग्य परमात्मा विष्णु रूप से भतों
का धारण पोषण करने वाला और रुद्ररूप से संहार करने वाला तथा ब्रह्मा रूप से सबको
उत्पन्न करने वाला है । वह ब्रह्म ज्योतियों का भी ज्योति एवं माया से अति परे कहा
जाता है तथा वह परमात्मा बोध स्वरूप और जानने के योग्य, तत्त्वज्ञान
से प्राप्त होने वाला सबके हृदय में स्थित है’—
अविभक्तं च भूतेषु विभक्तमिव च
स्थितम् ।
भूतभर्तृ च तज्ज्ञेयं
प्रसिष्णुप्रभविष्णु च ॥
ज्योतिषामपि तज्योतिस्तमसः परमुच्यते
।
ज्ञानं ज्ञेयं ज्ञानगम्यं हृदि
सर्वस्वधिष्ठितम् ॥
अद्वैत वेदान्त के अनुसार- “अस्य जगतो
नामरूपाभ्याम् व्यावृतस्यानेक कर्तृ भोक्तृसंयुगतस्य प्रतिफनियतदेशकालमि
मित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसा व्यचिन्त्य रचस्वरूपस्य जन्मस्थिति भंग यतः सर्वज्ञातसर्वशक्तेः
कारणाद्भवति, तद्ब्रह्मः” (ब्र० सू०
शां० भा०, 1.1.2)
अर्थात् जो नाम रूप से अभिव्यक्त हुआ है तथा अनेक कर्ता और भोक्ताओं से संयुक्त है,
जो प्रतिनियत देश, काल और निमित्त से क्रिया
और फल का आश्रय है एवं मन से भी अचिन्त्य रचनारूप वाले इस जगत की उत्पत्ति,
स्थिति और लय जिस सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान कारण
से होती है वह ब्रह्म है। ब्रह्म की अद्वैतता को प्रतिपादित करते हुए अचार्य शंकर
ब्रह्मसूत्र भाष्य में कहते हैं – “एक एव परमेश्वरः
कूटस्थनित्यो विज्ञानधातुरविद्यया मायया मायाविवदनेकधा विभाव्यते नान्यो विज्ञानधातुरस्तीति” (ब्र० सू० शां० भा०, 1.3.16)। अर्थात् एक ही परमेश्वर कूटस्थ, नित्य विज्ञानरूप,
अविद्यारूपी माया से मायावी के समान अनेक हुआ जैसा प्रतीत होता है,
उससे अन्य विज्ञानस्वरूप कोई वस्तु नही है। आगे ब्रह्म के स्वरूप को
और अधिक स्पष्ट करते हुये आचार्य शंकर कहते हैं- “वांगमन
सातीतमविषयान्तः पातिः प्रत्यगात्मभूतं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ब्रह्मति” (ब्र० सू० शां० भा०, 3.2.22)| आशय यह कि ब्रह्म वाणी और मन से अतीत है, इससे वह विषयों के अन्तर्भूत नहीं है, अतः
प्रत्यगात्मरूप नित्य, शुद्ध, बुद्ध और
मुक्त स्वभाव है। रसेश्वर दर्शन के अनुसार –
परमानन्दैकरसं परमं ज्योतिः
स्वभावविकल्पम् ।
विगलितसकलक्लेशं ज्ञेयं शान्तं
स्वसंवेद्यम् ॥ (सर्व० सं०, पृ० 386)
अर्थात् परम आनन्द की प्राप्ति कराने वाला, एक
अद्वैत रस से परिपूर्ण, ज्योति ही जिसका स्वरूप है, जिसमें किसी विकल्प का कोई स्थान नहीं, जिससे सभी
क्लेश निकल जाते हैं, जो ज्ञान को विषय है, शान्त है, अपने में ही अनुभव की वस्तु है वह ब्रह्म
है। रामानुज के अनुसार जो सभी त्याज्य गुणों के विरोधी रूप में रहता है, जो सत्य संकल्प आदि अनन्त अतिशयों से युक्त है, असंख्य
कल्याणकारी गुणों की भण्डार है, सर्वज्ञ है, तथा सर्वशक्तिमान है, जिससे सृष्टि स्थिति तथा प्रलय
होता है वह ब्रह्म है। रामानुज ब्रह्म को निर्गुण नहीं मानते हैं। उन्होंने ब्रह्म
को सगुण ईश्वर के रूप में माना है। यद्यपि ब्रह्म एक है किन्तु चित् और अचित्
विशेषणों से वह युक्त है। वेदार्थ संग्रह (पृ० 17) में कहा गया है कि ‘तद्यपि
ब्रह्म एक है किन्तु अव्यक्त अवस्था में वह कारण ब्रह्म है और व्यक्त अवस्था में
कार्यब्रह्म है’। वैयाकरण भर्तृहरि ने शब्द को ब्रह्म माना है उनके अनुसार -
अनादि निधनं ब्रह्म शब्दतत्त्व
यदक्षरम् ।
विवर्तते अर्थ भावेन प्रक्रिया जगतो
यतः ॥
अर्थात् ब्रह्म अनादि है शब्दरूप है तथा उस शब्द रूप ब्रह्म से
विवर्त्त रूप से इस जगत की उत्पत्ति होती है।
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