Saturday, October 2, 2021

बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद (नैरात्मवाद)

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बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद (नैरात्मवाद)

बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद (नैरात्मवाद)

    चार्वाक को छोड़कर अन्य भारतीय दर्शनों में आत्मा को नित्य, शाश्वत, अमर तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। बौद्ध दर्शन का अनात्मवाद का सिद्धान्त आत्मा सम्बन्धी परम्परागत मतों से भिन्नता एवं विपरीतता को दर्शाता है अनात्मवाद बौद्ध दर्शन के केन्द्रीय सिद्धान्त प्रतीत्यसमुत्पाद की ही तार्किक परिणति है।

     अनात्मवाद के अनुसार आत्मा नित्य, शाश्वत, अमर नहीं है, बल्कि वह भी सांसारिक वस्तुओं की भाँति निरन्तर परिवर्तनशील है। यदि अनात्मवाद को संकीर्ण अर्थ में लिया जाए तो इसका आशय हैआत्मा के अस्तित्व का खण्डन' या उसकी 'अस्तित्वहीनता'। ऐसी स्थिति में यह सिद्धान्त उच्छेदवाद के समतुल्य होगा। ऐसा मानने पर मध्यम प्रतिपदा के उनके सिद्धान्त का खण्डन होगा। अत: अनात्मवाद का यह अर्थ स्वीकार्य नहीं है।

     अनात्मवाद का आशय यह नहीं है किआत्मा नहीं है'। अनात्मवाद का आशय है कि 'वैसी आत्मा नहीं है' जिसका उल्लेख उपनिषद् दर्शन में मिलता है। उल्लेखनीय है कि उपनिषद् दर्शन में आत्मा को नित्य, अजर, अमर, अविनाशी तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया है। बुद्ध के अनुसार, नित्य आत्मा में विश्वास करना उसी प्रकार हास्यास्पद है, जिस प्रकार कल्पित सुन्दर रमणी के प्रति आसक्ति रखना हास्यास्पद है।

बौद्ध धर्म उपदेशक नागसेन मिलिन्द प्रश्न में आत्मा के स्वरूप को स्पष्ट करते हैं कि जिस प्रकार धुरी, चक्के, लगाम, घोड़े आदि के संघात को रथ कहा जाता है, उसी प्रकार पाँच स्कन्धों-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और चेतना का संघात ही आत्मा है। ये पाँचों स्कन्ध अनित्य हैं। अत: आत्मा भी अनित्य है अर्थात् स्कन्धों के निरन्तर परिवर्तनशील होने के कारण आत्मा भी निरन्तर परिवर्तनशील है।

बौद्ध के अनात्मवाद के समर्थन में तर्क

बौद्ध के अनात्मवाद के समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं-

    शरीर का संचालन आत्मा के द्वारा होता है। यदि आत्मा को स्थायी माना जाए तो शरीर के संचालन की समस्या उत्पन्न हो जाएगी। अत: आत्मा को परिवर्तनशील मानना अनिवार्य है। इस तर्क को स्वीकार करने में समस्या है, क्योंकि संचालन, संचालनकर्ता के संकल्प पर आधारित होता है।

    अब यदि संचालनकर्ता स्थिर नहीं है, तो उसके संकल्प में भी परिवर्तन होता रहेगा, फलत: क्रियाएँ भी बदल जाएँगी। सफल संचालन के लिए संचालनकर्ता के संकल्प को स्थिर मानना आवश्यक है। यह तभी सम्भव हो सकता है, जब संचालनकर्ता स्वयं स्थिर हो।

    यदि आत्मा नित्य, शाश्वत, अमर एवं अपरिवर्तनशील है, तो ऐसी स्थिति में वह कर्मों का सम्पादन नहीं कर सकती। अत: वह किसी फल के लिए भी उत्तरदायी नहीं है। अत: उसे परिवर्तनशील माने बिना कर्म नियम की संगत व्याख्या नहीं हो सकती। किन्तु इस तर्क को लेकर समस्या यह है कि यदि आत्मा निरन्तर परिवतर्नशील है, तो ऐसी स्थिति में कर्म नियम की संगत व्याख्या नहीं की जा सकती, क्योंकि तब कर्म कोई करेगा और फल किसी और को मिलेगा।

    बुद्ध ने स्वयं कहा है कि संचित कर्मों का फल भोग करने के लिए पुनर्जन्म होता है। बुद्ध की यह बात उनके अनात्मवाद के साथ संगत नहीं ठहरती, क्योंकि यदि कोई नित्य आत्मा नहीं है तो फल भोग कौन करता है। अत: कर्म नियम सिद्धान्त की संगत व्याख्या करने के लिए नित्य आत्मा को स्वीकार करना अनिवार्य है।

    यदि आत्मा नित्य है, तो वह न तो जन्म ले सकती है और न ही मर सकती है। नित्य आत्मा को मानने पर पुनर्जन्म की संगत व्याख्या नहीं की जा सकती है, किन्तु इस तर्क को लेकर समस्या यह है कि यदि आत्मा परिवर्तनशील है, तो यह कैसे कहा जा सकता है कि जिसका जन्म हुआ है, वह वही है। यह कैसे कहा जा सकता है कि जिसकी मृत्यु हुई है, वह वही है जिसने जन्म लिया था? यह तभी कहा जा सकता है, जब आत्मा को नित्य माना जाए।

    यदि आत्मा नित्य है तो उसकी दो स्थितियाँ हो सकती हैं-शुद्ध आत्मा तथा अशुद्ध आत्मा। अब यदि आत्मा शुद्ध है तथा अपरिवर्तनशील है, तो वह कभी बन्धन में नहीं पड़ सकती और यदि आत्मा अशुद्ध है अर्थात् बन्धन में है, तो अपरिवर्तनशील होने के कारण कभी शुद्ध नहीं हो सकती।

    अत: आत्मा को नित्य तथा शाश्वत मानने पर बन्धन और मोक्ष की तर्कसंगत व्याख्या नहीं हो सकती। किन्तु इस तर्क को लेकर समस्या यह है कि यदि आत्मा परिवर्तनशील है, तो ऐसी स्थिति में जो आत्मा मोक्ष के लिए प्रयास करेगी, उसे मोक्ष न मिलकर किसी और को मोक्ष मिलेगा, जो कर्म नियम के साथ संगत नहीं है। संगत यह है कि जो कर्म करे उसे ही उसका फल भी प्राप्त हो और सम्भव है जब एक नित्य आत्मा को स्वीकार किया जाए।

    एक विशेष सन्दर्भ में वर्तमान मनोविज्ञान भी आत्मा को परिवर्तनशील मानता है, उसके अनुसार व्यक्तित्व भौतिक एवं मानसिक घटकों का गत्यात्मक संगठन है। किन्तु इस तर्क को लेकर समस्या यह है कि यदि व्यक्तित्व भौतिक और मानसिक घटकों का एक गत्यात्मक संगठन है अर्थात् हम में सब कुछ परिवर्तनशील है तो हमें कैसे याद आता है कि वह तो वही व्यक्ति है? हमारी स्मृति का आधार क्या है? यदि सब कुछ परिवर्तनशील है, तो स्मृति को भी परिवर्तनशील मानना होगा।

    ऐसी स्थिति में हमारे भीतर विद्यमान ज्ञान को ज्ञान की संज्ञा नहीं दी जा सकती, क्योंकि ज्ञान वह है जिसमें स्थायित्व हो, साथ ही जो निरन्तर विकसित और परिमार्जित हो। अत: ज्ञान के स्थायित्व, विकास और परिमार्जन के लिए स्मृति को अपरिवर्तनशील मानना होगा। स्मृति अपने आप नहीं रह सकती। अत: इसके आश्रय के रूप में नित्य आत्मा को मानना अनिवार्य है, क्योंकि यदि आधार ही परिवर्तनशील है, तो स्मृति भी परिवर्तित हुए बिना नहीं रह सकती।

      अत: उपरोक्त के आधार पर निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि आत्मा की नित्यता तथा परिवर्तनशीलता दोनों के सम्बन्ध में प्रबल तर्क है। तर्कों के आधार पर न तो आत्मा की नित्यता को सिद्ध किया जा सकता है और न ही अनित्यता को। अत: श्रेयस्कर यही होगा कि इस विवाद में न पड़ते हुए मौन का अवलम्बन किया जाए।

प्रतीत्यसमुत्पाद की अनात्मवाद के पक्ष में युक्ति

     बुद्ध के उपदेश के समय समाज में उपनिषद् दर्शन का प्रचलन था। जिसकी मान्यता थी कि मानव के भीतर एक महत्त्वूपर्ण तत्त्व आत्मा है। इस आत्मा का जन्म नहीं होता, बल्कि वह शरीर धारण करती है। यह आत्मा नित्य, अजरअमर तथा अविनाशी है। उपनिषद् दर्शन का यह विचार बौद्ध दर्शन में अस्वीकार कर दिया गया, क्योंकि बुद्ध की मान्यता थी कि ब्रह्माण्ड में कोई ऐसा तत्त्व नहीं है जो नित्य या अपरिवर्तनशील हो, इसलिए मानव के भीतर नित्य आत्मा जैसी कोई चीज नहीं है। मानव पाँच स्कन्धों का एक संघात है। ये पाँच स्कन्ध निम्नलिखित हैं-

    रूप शरीर का आकार एवं अन्य शारीरिक धर्म।

    वेदना सारे रूप मिलकर वेदना उत्पन्न करते हैं।

    संज्ञा ज्ञान प्राप्त करने का अनुभव।

    संस्कार अनुभव से जो तत्त्व उत्पन्न होता है।

    चेतना संस्कारों की समग्रता से चेतना का निर्माण होता है। यहाँ समग्रता से तात्पर्य समुच्चय से नहीं, बल्कि निरन्तर प्रवाह से है।

     बुद्ध के अनुसार, उपरोक्त पाँचों स्कन्धों में से कोई ऐसा नहीं है जो नष्ट नहीं होता हो। आशय यह है कि सभी स्कन्ध नष्ट होते हैं, किन्तु पूर्णरूप से नहीं बल्कि एक तत्त्व नष्ट होते-होते अन्य में परिवर्तित हो जाता है। चूंकि मानव इन्हीं पाँच स्कन्धों का एक बड़ा संघात है, अत: मानव में कुछ भी ऐसा नहीं जो नित्य या अपरिवर्तनशील हो, इसे ही अनात्मवाद कहा जाता है।

     बुद्ध के मतानुसार आत्मा अनित्य है, क्योंकि यह निरन्तर परिवर्तनशील उपरोक्त पाँच संघातों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। जिस प्रकार नदी में जल की बूंदें निरन्तर परिवर्तित होती रहती हैं, फिर भी उनमें एकमयता रहती है, वैसे ही आत्मा के विज्ञान (चेतना) के निरन्तर बदलते रहने पर भी उसमें एकमयता रहती है। ह्यूम के आत्मा सम्बन्धी विचार में बुद्ध के आत्मा सम्बन्धी विचारों की प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है, क्योंकि ह्यूम ने भी आत्मा को 'संवेदना का समूह' कहा है जिसमें निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।

बुद्ध द्वारा प्रस्तुत अनात्मवाद के समर्थन में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जा सकते हैं-

    यदि आत्मा को परिवर्तनशील न माना जाए, तो शरीर के संचालन की समस्या उत्पन्न हो जाएगी।

    कर्मों का सम्पादन करने के लिए आत्मा को परिवर्तनशील मानना अनिवार्य है।

    पुनर्जन्म की व्याख्या करने के लिए आत्मा को परिवर्तनशील मानना अनिवार्य है, क्योंकि स्थिर आत्मा न तो शरीर धारण कर सकती है और न ही त्याग सकती है।

    वर्तमान मनोविज्ञान के अनुसार आत्मा भौतिक तथा मानसिक घटकों; जैसे- बुद्धि, स्वभाव, शरीर के विभिन्न रसायनों, आनुवंशिक तत्त्वों एवं विभिन्न परिस्थिति से प्राप्त गतिशील तत्त्वों का संघटन मात्र है।

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बौद्ध दर्शन का क्षणिकवाद सिद्धान्त

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बौद्ध दर्शन का क्षणिकवाद सिद्धान्त 

बौद्ध दर्शन का क्षणिकवाद सिद्धान्त 

क्षणिकवाद (क्षणभंगवाद)

     क्षणिकवाद उत्तरकालीन बौद्ध दार्शनिकों का विचार है। वे कहते हैं कि क्षणिकवाद का विचार बुद्ध के दर्शन पर आधारित है, लेकिन यह सत्य नहीं है, क्योंकि बुद्ध ने यह कभी नहीं कहा कि वस्तुएँ क्षणिक हैं, बल्कि बुद्ध ने कहा था कि वस्तुएँ परिवर्तनशील हैं।

     क्षणिकवादी कहते हैं कि एक क्षण से अधिक कोई वस्तु नहीं रहती है। सभी पदार्थ, सभी घटनाएँ तथा सभी अनुभूतियाँ एक क्षण के लिए होती हैं। इसके मूल में महात्मा बुद्ध द्वारा प्रस्तुतअर्थक्रियाकार्यत्व' का विचार है जिसका उल्लेख उन्होंने अपने प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धान्त के अन्तर्गत किया था तथा कहा था कि सत् वह है जिसमें कार्य उत्पन्न करने की क्षमता होती है।

     क्षणिकवादी कहते हैं कि यदि वस्तु सत् है, तो फिर उसमें कार्य उत्पन्न करने की शक्ति भी होगी और तब वह हर क्षण कार्य उत्पन्न करेगी। यह कार्य अगले ही क्षण कारण में परिवर्तित होकर पुन: किसी कार्य को उत्पन्न कर देगा और निरन्तर यही क्रम चलता रहेगा। इसीलिए क्षणिकवादी कहते हैं कि 'वस्तु की उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश तीनों एक ही क्षण में हो जाता है, अत: वस्तुएँ क्षणभंगुर हैं। '

क्षणिकवाद के मूल उद्घोष

     क्षणिकवाद के दो मूल उद्घोष हैंइदम् सर्वक्षणिकम् तथा इदम् सर्वअनात्म्। इदम् सर्वक्षणिकम् का शाब्दिक अर्थ है कि यह समस्त जगत् क्षणिक है। जगत् में सब कुछ अनित्य है, केवल क्षणिकवाद ही नित्य है। इदम् सर्वअनात्म् का शाब्दिक अर्थ है कि आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं है, क्योंकि मानव पाँच स्कन्धों-रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार तथा चेतना का योग मात्र है जो कि सतत् परिवर्तनशील हैं।

     उपरोक्त दोनों उद्घोषों के आधार पर ही क्षणिकवादी कहते हैं कि केवल चेतना का प्रवाह ही एकमात्र सत् है। हीनयानियों ने क्षणिकवाद को निम्न दो उपमाओं के द्वारा समझाने का प्रयास किया है-

दीपशिखा के माध्यम से

नदी के प्रवाह के माध्यम से

      जिस प्रकार दीपशिखा एक व नित्य नहीं, बल्कि अनेक व अनित्य है, क्योंकि यह छोटी-छोटी चिंगारियों का प्रवाह मात्र है। इन चिंगारियों की निरन्तरता तथा समानता के कारण हम दीपशिखा को एक तथा नित्य मान लेते हैं। उसी प्रकार हम जगत् की वस्तुओं के सन्दर्भ में एकता तथा नित्यता का आरोपण कर देते हैं, जबकि वास्तव में वे अनित्य हैं। इसी प्रकार नदी भी एक तथा नित्य नहीं, क्योंकि यह अनेक छोटी-छोटी धाराओं का प्रवाह मात्र होने के कारण प्रतिक्षण परिवर्तनशील अर्थात् अनेक व अनित्य है, इसीलिए कोई भी व्यक्ति एक नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकता।

क्षणिकवाद की आलोचना

उत्तरकालीन बौद्ध दार्शनिकों द्वारा प्रस्तुत क्षणिकवाद की निम्न आधारों पर आलोचना होती है

    यदि हर वस्तु क्षणिक है, तो उनसे होने वाले अनुभव भी क्षणिक हैं और यदि ऐसा है तो अतीत में जो अनुभव हमें हो चुके हैं उनकी अनुभूति हमें कैसे होती रहती है। इसी प्रकार यदि वस्तुएँ क्षणिक हैं, तो हम किसी वस्तु को देखकर यह कैसे पहचान लेते हैं कि यह तो वही वस्तु है।

    यदि सब कुछ क्षणिक है, तो बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद (कारण-कार्य सिद्धान्त) की व्याख्या कैसे हो पाएगी, क्योंकि क्षणिकवादी कहते हैं कि जिस क्षण कार्य होता है उस क्षण कारण रहता ही नहीं और तब कैसे कहेंगे कि कारण से कार्य उत्पन्न हुआ है।

    क्षणिकवाद को मानने पर कर्म-नियम का सिद्धान्त असंगत हो जाता है, क्योंकि कर्म कोई करता है तथा फल किसी अन्य को मिलता है।

    यदि आत्मा परिवर्तनशील है, तो स्मृति को भी परिवर्तनशील मानना होगा और यदि ऐसा है तो हमें स्मरण कैसे होता है। स्मरण तभी माना जा सकता है, जब स्मरणकर्ता क्षणिक न होकर कुछ समय तक स्थायी हो। इसके साथ-ही-साथ पहचानी जाने वाली वस्तु में भी स्थिरता आवश्यक है।

    क्षणिकवाद के सिद्धान्त को मान लेने पर निर्वाण का विचार भी खण्डित हो जाता है। जब व्यक्ति क्षणिक है, तब दुःख से छुटकारा पाने का प्रयास करना निरर्थक है, क्योंकि दुःख से छुटकारा दूसरे ही व्यक्ति को मिलेगा।

    इसी प्रकार नदी भी एक तथा नित्य नहीं, क्योंकि यह अनेक छोटी-छोटी धाराओं का प्रवाह मात्र होने के कारण प्रतिक्षण परिवर्तनशील अर्थात् अनेक व अनित्य है, इसलिए कोई भी व्यक्ति नदी में दो बार स्नान नहीं कर सकता।

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बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त

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बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त

बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त

     प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त है जो कारण-कार्य सम्बन्धी उनके मत को व्यक्त करता है। इसमें दुःख, दुःख के कारण की खोज एवं उसके निदान की बात सन्निहित है। प्रतीत्यसमुत्पाद दो शब्दों प्रतीत्य तथा समुत्पाद से मिलकर बना है। यहाँ प्रतीत्य से आशय 'कारण' से है तथा समुत्पाद से आशय है 'जो उत्पन्न होता है। इस नियम की मान्यतानुसार कार्य की उत्पत्ति कारण पर ही आश्रित होकर हो सकती है। इस मत के कारण ही प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त कोसापेक्ष कारणतावाद' भी कहा जाता है।

प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त

बौद्ध दर्शन के प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त को निम्न प्रकार समझा जा सकता है-

    कारण होने पर कार्य उत्पन्न होता है।

    कारण नहीं होने पर भी कार्य उत्पन्न होता है।

    कार्य है तो कारण है।

    कार्य नहीं है तो कारण भी नहीं है।

     इस सिद्धान्त के अनुसार कारण से कार्य की उत्पत्ति के लिए कारण के साथ कुछ अनुकूल एवं बाह्य सहयोगी घटकों का होना आवश्यक है। यदि एक बार इन बाह्य घटकों के साथ कारण-कार्य श्रृंखला प्रारम्भ हो गई, तो यह तब तक चलती रहती है जब तक कि एक या अधिक बाह्य घटकों को वापस न ले लिया जाए। उदाहरणार्थ-दीपक की 'लौ' प्रक्रिया तब तक नहीं बनती, जब तक कि तेल, बत्ती तथा पात्र आदि बाह्य घटक न हों।

     यदि एक बार इन घटकों के साथ लौ प्रक्रिया प्रारम्भ हो गई, तो यह तब तक चलती रहती है जब तक कि उनमें से एक या अधिक सहयोगी बाह्य घटकों को वापस न ले लिया जाए। अत: स्पष्ट है कि यदि कोई पदार्थ उत्पन्न हुआ है, तो उसकी उत्पत्ति में एक या अनेक बाह्य सहयोगी घटक (कारण) होते हैं। इन सहयोगी घटकों के बिना कोई पदार्थ उत्पन्न नहीं हो सकता।

     बौद्ध दर्शन में प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण माना गया है, क्योंकि बुद्ध ने स्वयं इस सिद्धान्त को धर्म कहा है। प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त मध्यम मार्ग का परिचायक है। यह शाश्वतवाद तथा उच्छेदवाद के बीच का मार्ग है। शाश्वतवाद जहाँ नित्यता की बात करता है, वहीं उच्छेदवाद वस्तुओं को पूर्ण विनाशी मानता है। जबकि प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त की मान्यता है कि वस्तुएँ न तो नित्य हैं और न ही पूर्ण विनाशी, बल्कि परिवर्तनशील हैं। पुन: यह मध्यममार्ग का परिचायक है, क्योंकि यह सत्कार्यवादियों की भाँति न तो कार्य को अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान मानता है और न ही असत्कार्यवादियों की भाँति कार्य को कारण से पृथक् एवं भिन्न मानकर उसकी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित करता है, बल्कि इसकी मान्यता है कि कार्य को अपनी उत्पत्ति के लिए कारण की अपेक्षा होती है, अत: यह सापेक्ष कारणतावादी है।

     बुद्ध ने प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त के अन्तर्गत दुःख की व्याख्या की है। द:ख का कारण बताया है तथा दु:ख के कारण का कारण बताया है और इसी क्रम में उत्तरोत्तर ग्यारह कारणों का उल्लेख किया है। दु:ख और उसके ग्यारह कारणों को मिलाकर ही द्वादशनिदान या संसार चक्र या भव चक्र की संज्ञा दी जाती है।

     महात्मा बुद्ध ने अविद्या का कोई कारण नहीं बताया है। अविद्या ही दु:खों का मूल कारण है। अविद्या से संस्कार पैदा होते हैं। पूर्वजीवन में अविद्या से उत्पन्न संस्कारों से मिलकर मृत्यु के समय एक 'अन्तिम संस्कार' का निर्माण हो जाता है। यह 'अन्तिम संस्कार' ही अगले जन्म में पहला संस्कार बन जाता है। इस प्रथम संस्कार से चेतना उत्पन्न होती है। 

     इस चेतना से ही एक नए नामरूप यानि चैतन्य विशिष्ट देह का आविर्भाव होता है। नामरूप से पाँच ज्ञानेन्द्रियों और मन की उत्पत्ति होती है अर्थात् षडायतन उत्पन्न होता है। षडायतन से दृश्य वस्तुओं और उनके धर्मों से सन्निकर्ष (स्पर्श) होता है। इन्द्रिय सन्निकर्ष से वेदना यानि अनुभूति उत्पन्न होती है। अनुभूति से तृष्णा और तृष्णा से वस्तुओं का उपादान या वस्तुओं से लगाव होता है। 

   उपादान से भव या जन्म लेने की इच्छा उत्पन्न होती है तथा भव से पुनर्जन्म हो जाता है। इस प्रकार के विचारों को प्रस्तुत करके बुद्ध ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि नित्य आत्मा जैसी कोई चीज नहीं होती। पुनर्जन्म के लिए नित्य आत्मा जैसी किसी चीज को मानने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि जन्म का मूल कारण अविद्या है।

     जब तक अविद्या रहेगी, संसार चक्र चलता रहेगा। यदि संसार चक्र से मुक्त होना है, निर्वाण प्राप्त करना है तो अविद्या का नाश करना होगा। यह तभी सम्भव हो सकता है, जब आष्टांगिक मार्गों-सम्यक् दृष्टि, सम्यक संकल्प सम्यक् वाक्, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव, सम्यक् व्यायाम, सम्यक स्मति तथा सम्यक् समाधि का पालन किया जाए। इन आष्टांगिक मार्गों का ठीक प्रकार से अनुपालन करने पर अविद्या नष्ट हो जाती है फलत: संसार चक्र समाप्त हो जाता है।

     बौद्धों का प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त तीनों कालों- भूत, वर्तमान तथा भविष्य को जोड़कर कर्म नियम की व्याख्या करता है। प्रतीत्यसमुत्पाद के अन्तर्गत वर्णित संसार चक्र में अविद्या तथा संस्कार भूतकाल से सम्बन्धित हैं। जन्म का सम्बन्ध भविष्यकाल से है तथा बाकी के कारणों का सम्बन्ध वर्तमान काल से है।

प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त की आलोचना

किन्तु बुद्ध द्वारा प्रतिपादित उपरोक्त प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त की कई आधारों पर आलोचना होती है, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं-

    प्रतीत्यसमुत्पाद की मान्यता है कि बिना कारण के कुछ भी अस्तित्व में नहीं आता, यदि ऐसा है तो अविद्या का कारण क्या है?

    प्रतीत्यसमुत्पाद उपनिषदों में वर्णित ब्रह्म चक्र की नकल है।

    प्रतीत्यसमुत्पाद को मानने पर क्षणिकवाद की स्थिति उत्पन्न होती है, फलतः कर्म नियम का खण्डन होता है, क्योंकि जो कर्म करता है उसे उसका फल मिलता है। जैसेजो व्यक्ति निर्वाण के लिए प्रयास करता है, उसे निर्वाण न मिलकर किसी और को निर्वाण की प्राप्ति होती है।

     किन्तु उपरोक्त कमियों के बाद भी बुद्ध के प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त का महत्त्व कम नहीं हो जाता, क्योंकि यह बौद्ध दर्शन का केन्द्रीय सिद्धान्त है जिस पर समस्त परिवर्ती सिद्धान्त निर्भर हैं। इसमें कर्म नियम की व्याख्या भी की गई है, जिससे संसार में व्यवस्था का निर्माण होता है। प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धान्त का महत्त्व बुद्ध की इस उक्ति से भी स्पष्ट होता है कि जो प्रतीत्यसमुत्पाद को जानता है, वह धर्म को जानता है और जो धर्म को जानता है, वह प्रतीत्यसमुत्पाद को जानता है।

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बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग

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बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग

बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग

     बौद्ध दार्शनिकों की मान्यता है कि मनुष्य को निर्वाण तभी प्राप्त हो सकता है, जब आष्टांगिक मार्ग के अनुरूप निष्ठापूर्वक आचरण करे। ऐसा करने पर अविद्या का अन्त तथा प्रज्ञा का उदय होता है तथा मनुष्य को समस्त दुःखों से पूर्णतया छुटकारा मिल जाता है और वह संसार चक्र से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। बौद्ध दर्शन का आष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित हैं-

सम्यक् दृष्टि (सम्मादिट्ठि)

अविद्या के कारण आत्मा संसार के सम्बन्ध में मिथ्या दृष्टि की उत्पत्ति करती है। अविद्या ही हमारे दु:खों का मूल कारण है। अविद्या से ही मिथ्या दृष्टि उत्पन्न होती है और हम अनित्य दुःखद और अनात्म को नित्य सुखकर और आत्मरूप समझ बैठते हैं। इस दृष्टि को छोड़कर यथार्थ स्वरूप पर ध्यान लगाना चाहिए।

सम्यक् संकल्प

आर्य सत्यों के ज्ञानमात्र से कोई लाभ नहीं हो सकता, जब तक उनके अनुसार जीवन बिताने का संकल्प या दृढ़ इच्छा नहीं हो जाए। जो निर्वाण चाहते हैं उन्हें सांसारिक विषयों की आसक्ति, दूसरों के प्रति द्वेष और हिंसा तीनों का त्याग करना चाहिए। इन्हीं का नाम सम्यक् संकल्प है।

सम्यक् वाक् (सम्मावाच)

सम्यक् संकल्प केवल मानसिक नहीं होना चाहिए, बल्कि कार्य रूप में परिणत भी होना चाहिए। सम्यक् संकल्प के द्वारा सर्वप्रथम हमारे वचन का नियन्त्रण होना चाहिए अर्थात् हमें निन्दा, मिथ्या वचन, अप्रिय वचन तथा वाचालता से बचना चाहिए।

सम्यक्  कर्मांत (सम्माकम्मांत)

सम्यक् संकल्प को केवल वचन में ही नहीं, बल्कि कर्म में भी परिणत करना चाहिए। अहिंसा अस्तेय, अपरिग्रह, इन्द्रिय संयम ही सम्यक् कर्मांत है।

सम्यक् आजीव (सम्मा-आजीव)

बुरे वचन तथा कर्म को त्यागकर मनुष्य को शुद्ध उपाय से जीविकोपार्जन करना चाहिए तथा जीविका के लिए उचित मार्ग का अनुसरण करना चाहिए।

सम्यक् व्यायाम

सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वचन, सम्यक् कर्म, सम्यक् आजीव के अनुसार चलने पर भी यह सम्भव है कि हम पुराने दृढमूल कुसंस्कारों के कारण उचित मार्ग से भटक न जाएँ और हमारे मन में नए-नए बुरे भावों की उत्पत्ति हो। अत: इस बात का निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए, बुरे भावों का पूरी तरह नाश हो जाए और नए बुरे भाव भी मन में न आए। मन को बराबर अच्छे-अच्छे विचारों से भरा रखना चाहिए। शुभ विचारों को मन में धारण करने की चेष्टा करते रहना चाहिए।

सम्यक् स्मृति (सम्मासत्ति)

इस मार्ग पर चलने के लिए सतर्क रहने की आवश्यकता है। जिन विषयों का ज्ञान प्राप्त हो चुका हो, उन्हें बराबर स्मरण करते रहना चाहिए। किसी भी वस्तु से अनुराग नहीं रखना चाहिए। पूर्णत: अनासक्त भाव रखना चाहिए। इस सम्यक् स्मृति के कारण मनुष्य सभी विषयों से विरक्त हो जाता है। वह सांसारिक बन्धनों में नहीं पड़ता।

सम्यक् समाधि (सम्मासमाधि)

उपरोक्त सभी नियमों का पालन कर जो बुरी चित्तवृत्तियों को दूर कर लेता है, वह सम्यक् समाधि के योग्य हो जाता है। तत्पश्चात् वह चार अवस्थाओं को पार कर निर्वाण (मोक्ष) प्राप्त कर लेता है। निर्वाण की प्राप्ति ही पूर्ण प्रज्ञा की अवस्था है। ज्ञान की पूर्णता के लिए सदाचार की आवश्यकता होती है, साथ ही ध्यान भी आवश्यक है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...