Saturday, October 2, 2021

अनुमान प्रमाण में व्याप्ति

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अनुमान प्रमाण में व्याप्ति

अनुमान प्रमाण में व्याप्ति

     प्रमा प्रकार के ज्ञान के रूप में अनुमान प्रमाण की वैधता को चार्वाक दर्शन के अतिरिक्त भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदाय स्वीकार करते हैं। अनुमान ज्ञान व्याप्ति पर आधारित है। व्याप्ति अनुमान का प्राण है। व्याप्ति के अभाव में अनुमान का ज्ञान सम्भव नहीं है। अनुमान की प्रणाली में व्याप्ति महत्त्वपूर्ण है। व्याप्ति से तात्पर्य है-हेतु एवं साध्य का व्यापक सम्बन्ध। यह हेतु एवं साध्य का अनौपाधिक नियत साहचर्य सम्बन्ध है; जैसे-

जहाँ-जहाँ धुआँ है,

वहाँ-वहाँ आग होती है।

    उपरोक्त कथन एक व्याप्ति वाक्य है। यह वाक्य धुएँ (हेतु) एवं आग (साध्य) के मध्य साहचर्य सम्बन्ध को व्यक्त करता है। इस प्रकार हेतु एवं साध्य में जो स्वाभाविक अविच्छेद्य एवं व्यापक सम्बन्ध होता है, उसे व्याप्ति कहते हैं। व्याप्ति से सम्बन्धित पदों में एक व्याप्य होता है एवं दूसरा व्यापक। अत: व्याप्ति व्याप्य एवं व्यापक का स्वाभाविक सम्बन्ध है; जैसे-धुएँ एवं आग की व्याप्ति में धुआँ, व्याप्य एवं आग व्यापक है, क्योंकि जहाँ धुआँ होगा, वहाँ आग अवश्य होगी। संसार में ऐसा कोई भी उदाहरण नहीं है जहाँ धुएँ के साथ अग्नि न हो, परन्तु यह अवश्य सम्भव है कि अग्नि तो हो, परन्तु धुआँ न हो। उदाहरण के लिए तपा हुआ आग का गोला। हेतु एवं साध्य में व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध एवं नियत साहचर्य सम्बन्ध ही व्याप्ति है।

     व्याप्ति उपाधिरहित नियत साहचर्य सम्बन्ध है; जैसे- जहाँ धुआँ है, वहाँ आग है, इसमें व्याप्ति अनौपाधिक है, क्योंकि साध्य (आग) बिना किसी उपाधि या शर्त के हेतु (धुएँ) का अनुगामी है, परन्तु आग एवं धुएँ का सम्बन्ध सोपाधिक है, क्योंकि आग धुएँ का अनुगामी तभी होगा, जब जलावन आर्द्र होगा। अत: यथार्थ व्याप्ति के लिए हेतु एवं साध्य के मध्य का सम्बन्ध अनौपाधिक होना चाहिए।

व्याप्ति के प्रकार

व्याप्ति के दो प्रकार होते हैं-

  1. सम व्याप्ति
  2. विषम व्याप्ति

सम व्याप्ति 

    जब समान विस्तार वाले दो पदों में व्याप्ति सम्बन्ध होता है अर्थात् व्याप्य से व्यापक का अनुमान सम्भव हो तथा व्यापक से व्याप्य का भी अनुमान सम्भव हो तभी दोनों पदों में व्याप्ति सम व्याप्ति कहलाती है; जैसे-अभिधेय और प्रमेय, जो अभिधेय है, वह प्रमेय है और जो प्रमेय है, वह अभिधेय है।

विषम व्याप्ति 

     न्यूनाधिक विस्तार वाले दो पदों में जब व्याप्ति का सम्बन्ध होता है तो उसे विषम व्याप्ति या असम व्याप्ति कहते हैं; जैसे-धुएँ एवं आग में। जहाँ धुआँ है, वहाँ आग हैयह सामान्य कथन सत्य है, परन्तु जहाँ आग है, वहाँ धुंआ हैयह कथन सत्य नहीं है। अत: यदि व्याप्य एवं व्यापक न्यूनाधिक विस्तार वाले हों, व्याप्य से व्यापक का अनुमान किया जा सके, परन्तु व्यापक से व्याप्य का अनुमान न किया जा सके तो दोनों में व्याप्ति विषम व्याप्ति होती है। व्याप्ति के विषय में सर्वव्यापी निर्णयों पर आगमनात्मक सम्बन्धों की उपलब्धि पर चार्वाक कहते हैं कि व्याप्ति अनुभव के दौरान हमारे मन में स्थापित हो जाने वाले साहचर्यों का फल है। इस प्रकार व्याप्ति-ग्रहण विशुद्ध मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है। इसमें तार्किक अनिवार्यता का होना आवश्यक नहीं है। बौद्ध दार्शनिक अनुमान को ज्ञान का प्रमाण स्वीकार करते हैं तथा व्याप्ति को अनुमान का आधार मानते हैं।

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न्याय दर्शन का अनुमान प्रमाण

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न्याय दर्शन का अनुमान प्रमाण

न्याय दर्शन का अनुमान प्रमाण

     चार्वाक दर्शन को छोड़कर अन्य सभी भारतीय दर्शनों के समान ही न्याय दर्शन में भी अनुमान को यथार्थ ज्ञान प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया गया है। अनुमान दो शब्दों के योग से बना है-अनु एवं मान। यहाँ 'अनु' का अर्थ है- पश्चात् तथा मान का अर्थ है 'ज्ञान' अर्थात् अनुमान का शाब्दिक अर्थ है 'पश्चात् ज्ञान। अन्य शब्दों में पूर्व ज्ञान के पश्चात् और उसी पर आधारित होकर होने वाले ज्ञान को अनुमान कहते हैं। अत: स्पष्ट है अनुमान का आधार पूर्व में किए गए अनुभव हैं। उदाहरणार्थ-सामने पहाड़ी पर धुआँ दिख रहा है। धुएँ को देखकर यह ज्ञान हो जाना कि वहाँ आग है, यह एक अनुमान है। आग का ज्ञान हमें इसलिए प्राप्त हो गया, क्योंकि जब-जब हमने धुआँ देखा, तब-तब उसके साथ हमें आग भी दिखाई दी। अत: धुएँ और आग के बीच अनिवार्य सम्बन्ध (व्याप्ति) का हमें ज्ञान था। इस व्याप्ति के आधार पर ही हमने पहाड़ी में धुएँ को देखकर आग का ज्ञान प्राप्त कर लिया। इस उदाहरण में धुआँ हेतु, आग साध्य तथा पहाड़ी पक्ष को निर्धारित करते हैं। अत: अनुमान में तीन अवयव होते हैं हेतु, साध्य तथा पक्षा नैयायिकों ने अनुमान को परिभाषित करते हुए कहा है कि-हेतु का प्रत्यक्ष करके अनिवार्य सम्बन्ध के आधार पर पक्ष में साध्य का ज्ञान प्राप्त करना ही अनुमान है।

न्याय दर्शन में अनुमान के प्रकारों का वर्गीकरण

न्याय दर्शन में अनुमान के प्रकार बताने के लिए दो वर्गीकरण मिलते हैं-प्रथम वर्गीकरण के अनुसार अनुमान दो प्रकार के होते हैं-

  1. स्वार्थ अनुमान तथा
  2. परार्थ अनुमान

द्वितीय वर्गीकरण के अनुसार अनुमान तीन प्रकार के होते हैं-

  1. पूर्ववत्,
  2. शेषवत् तथा
  3. सामान्यतोदृष्ट अनुमान।

प्रथम वर्गीकरण के अन्तर्गत जो अनुमान स्वयं के लिए किया जाता है, उसे स्वार्थ अनुमान कहते हैं, किन्तु जो अनुमान पाँच अवयवों -

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन

का प्रयोग करते हुए अन्य को ज्ञान प्राप्त कराने के लिए किया जाता है, उसे परार्थ अनुमान कहते हैं। द्वितीय वर्गीकरण के अन्तर्गत जब कारण का प्रत्यक्ष करके कार्य के होने का अनुमान किया जाता है, तो उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। जब कार्य का प्रत्यक्ष करके कारण के होने का अनुमान किया जाता है, तो उसे शेषवत् अनुमान कहते हैं तथा जब दो वस्तुओं में साहचर्य होता है तथा जिस साहचर्य को हम प्राय: देखते हैं तो एक वस्तु को देखकर दूसरी वस्तु का ज्ञान हो जाना सामान्यतोदृष्ट अनुमान कहलाता है; जैसेबैल के एक सींग को देखकर दूसरे सींग का सहज ही ज्ञान हो जाता है, क्योंकि दोनों में साहचर्य है। उपरोक्त दो वर्गीकरण के अतिरिक्त नव्य नैयायिकों ने अनुमान का एक तीसरा वर्गीकरण भी प्रस्तुत किया है। इस वर्गीकरण के अनुसार, अनुमान तीन प्रकार के होते हैं

  1. केवल अन्वयी,
  2. केवल व्यतिरेकी तथा
  3. अन्वय व्यतिरेकी अनुमान।

    जब हेतु और साध्य के बीच भावमूलक साहचर्य के आधार पर व्याप्ति स्थापना करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो इसे केवल अन्वयी अनुमान कहते हैं। जब अभावमूलक साहचर्य के आधार पर व्याप्ति स्थापना करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है तो इसे केवल व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। जब व्याप्ति स्थापना भावमूलक तथा अभावमूलक साहचर्य दोनों के आधार पर करके इस व्याप्ति के आधार पर साध्य का ज्ञान प्राप्त किया जाता है, तो इसे अन्वय व्यतिरेकी अनुमान कहते हैं। परार्थ अनुमान को पाँच क्रमबद्ध वाक्यों में प्रकाशित किया जाता है। इन वाक्यों को अवयव कहा जाता है। चूंकि परार्थ अनुमान में पाँच क्रमबद्ध अवयव होते हैं, अत: इसे पंचअवयव अनुमान भी कहा जाता है। ये पाँच अवयव हैं-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन।

प्रतिज्ञा - इसके अन्तर्गत पक्ष में साध्य के होने का ज्ञान कराया जाता है। माना हम पहाड़ पर आग को सिद्ध करना चाहते हैं, तो ऐसा करने से पूर्व सर्वप्रथम हम अन्य के सामने वह स्पष्ट रूप से प्रकाशित करते हैं कि 'पहाड़ पर आग है। यह निर्देश ही प्रतिज्ञा है।।

हेतु - जिस हेतु से साध्य का अनुमान होता है, उस हेतु का वर्णन किया जाता है। उदाहरण के लिए पहाड़ पर आग को सिद्ध करने के लिए हम पर्वत पर उठ रहे धुएँ का वर्णन करते हैं।

दृष्टान्त - इसके अन्तर्गत व्याप्ति का उल्लेख एवं उसकी पुष्टि में दिए गए उदाहरण का उल्लेख किया जाता है। माना हमें यह सिद्ध करना है कि पहाड़ पर आग है, क्योंकि पहाड़ पर धुआँ है। हमें दृष्टान्त देना होगा कि रसोई में जब-जब हमने धुआँ देखा तब-तब आग थी, अतः धुएँ और आग के बीच अनिवार्य सम्बन्ध है।

उपनय - दृष्टान्त के माध्यम से हेतु और साध्य में व्याप्ति दिखाने के पश्चात् अब अपने पक्ष अर्थात् पहाड़ पर हेतु अर्थात् धुआँ दिखलाना ही उपनय है।

निगमन - इसके अन्तर्गत साध्य के सिद्ध होने का प्रतिपादन किया जाता है अर्थात् पर्वत पर आग है, हमें यही सिद्ध करना था, जो सिद्ध हो गया।

परार्थानुमान का उदाहरण

    पर्वत पर आग है-प्रतिज्ञा

    क्योंकि वहाँ धुआँ है-चिह्न (हेतु)

    जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ आग है-उदाहरण

    पर्वत पर धुआँ है-उपनय

    इसलिए पर्वत पर आग है-निगमन

     न्याय दार्शनिकों के अनुसार, परार्थ अनुमान का चौथा चरण उपनय ही तृतीय लिंग परामर्श कहा जाता है तथा इसी के द्वारा हमें साध्य का ज्ञान प्राप्त होता है। यह तृतीय लिंग परामर्श ही हमें अनुमान कराता है। नैयायिकों के अनुसार, परार्थ अनुमान का जो स्वरूप है इसमें प्रथम एवं पाँचवाँ तथा दूसरा एवं चौथा वाक्य समान है। अत: या तो प्रथम दो या अन्तिम दो कथनों को हटाया जा सकता है। इस प्रकार परार्थ अनुमान को स्वार्थ अनुमान में परिवर्तित किया जा सकता है। उल्लेखनीय है कि पाश्चात्य न्याय वाक्य तथा नैयायिकों के पंचअवयव अनुमान में भेद है। जहाँ पाश्चात्य न्याय वाक्य में तीन ही वाक्य होते हैं-

  1. वृहद् वाक्य,
  2. लघु वाक्य तथा
  3. निष्कर्ष,

वहीं नैयायिकों के पंच अवयव अनुमान में पाँच वाक्य हैं-

  1. प्रतिज्ञा,
  2. हेतु,
  3. दृष्टान्त,
  4. उपनय तथा
  5. निगमन।

     पंचअवयव अनुमान में जो दृष्टान्त है, वह पाश्चात्य न्याय वाक्य के वृहत वाक्य से मिलता-जुलता है। पाश्चात्य न्याय वाक्य में उदाहरण के लिए कोई स्थान नहीं है, परन्तु पंचअवयव अनुमान में 'निगमन' को सबल बनाने के लिए उदाहरण का प्रयोग होता है। पाश्चात्य न्याय वाक्य में निष्कर्ष का तीसरा स्थान रहता है परन्तु पंचअवयव अनुमान में निष्कर्षप्रतिज्ञा' के रूप में प्रथम वाक्य में रहता है और निगमन के रूप में पाँचवें वाक्य के स्थान पर रहता है। नैयायिकों का मत है कि पंचअवयव अनुमान में पाँच वाक्यों के रहने से निष्कर्ष अधिक सबल हो जाता है, परन्तु पाश्चात्य न्याय वाक्य में तीन ही वाक्य रहने से निष्कर्ष भारतीय न्याय की तरह सबल नहीं हो पाता।

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न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण

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न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष प्रमाण

     शाब्दिक दृष्टि से एवं संकीर्ण अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है-आँखों के सामने एवं व्यापक अर्थ में प्रत्यक्ष से तात्पर्य है, ज्ञानेन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान। न्याय दर्शन के प्रतिपादक गौतम ने प्रत्यक्ष को परिभाषित करते हुए कहा है कि-'इन्द्रियार्थ सन्निकर्षोत्पन्न ज्ञानम् प्रत्यक्षम्।अर्थात् इन्द्रिय, अर्थ, सन्निकर्ष से जो ज्ञान प्राप्त होता है, वह प्रत्यक्ष है। भारतीय दर्शन में कुल छ: इन्द्रियाँ मानी गई हैं। इनमें से पाँच इन्द्रियाँ-आँख, नाक, कान, जिह्वा तथा त्वचा को बाह्य इन्द्रिय कहते हैं। इसके अतिरिक्त मन को आन्तरिक इन्द्रिय कहते हैं। आन्तरिक इन्द्रिय मन के द्वारा हम अन्त:प्रत्यक्ष करते हैं तथा बाह्य इन्द्रियों के द्वारा हम बाह्य प्रत्यक्ष करते हैं।

प्रत्यक्ष प्रमाण के चरण

न्याय दार्शनिकों के अनुसार, बाह्य प्रत्यक्ष तीन चरणों में सम्पन्न होता है-

    निर्विकल्प प्रत्यक्ष - यह प्रत्यक्ष की प्रारम्भिक भाषा है। इसमें हम वस्तु का प्रत्यक्ष तो करते हैं, परन्तु समझ नहीं पाते कि वस्तु क्या है। जैसे-हमने दूर से किसी को आते देखा, परन्तु समझ नहीं पाए कि कौन आ रहा है? निर्विकल्प प्रत्यक्ष है।

    सविकल्प प्रत्यक्ष - यह प्रत्यक्ष की दूसरी अवस्था है। इसमें इन्द्रियों से प्राप्त संवेदना में अर्थ भी जोड़ देते हैं और स्पष्टत: जान लेते हैं कि अमुक वस्तु 'यह' है। सविकल्प प्रत्यक्ष में वस्तु का स्पष्ट, निश्चित एवं निर्णायक ज्ञान होता है।

    प्रत्यभिज्ञा - यह तीसरा प्रत्यक्ष है। इसका तात्पर्य हैपहचानना। कई बार प्रत्यक्षीकरण में हमें वस्तु के प्रत्यक्ष ज्ञान के साथ-ही-साथ यह ज्ञान भी होता है कि हमने इसे पहले भी देखा है, तो यह प्रत्यभिज्ञा है।

न्याय दर्शन में प्रत्यक्ष के दो प्रकार बताए गए हैं-

  1. लौकिक प्रत्यक्ष
  2. अलौकिक प्रत्यक्ष

लौकिक प्रत्यक्ष

लौकिक प्रत्यक्ष जब इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष साधारण ढंग से होता है, तो इसे लौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। लौकिक प्रत्यक्ष दो प्रकार का होता है-

  1. बाह्य प्रत्यक्ष और
  2. मानस बाह्य

बाह्य प्रत्यक्ष पाँच प्रकार का होता है-

  1. चाक्षुष प्रत्यक्ष (आँखों द्वारा)
  2. श्रावण (कानों द्वारा)
  3. घ्राणज (नाक द्वारा)
  4. रासन (जिह्वा द्वारा)
  5. त्वक (त्वचा द्वारा)

मानस बाह्य प्रत्यक्ष मन के द्वारा होता है।

अलौकिक प्रत्यक्ष

अलौकिक प्रत्यक्ष जब इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता है, तो इसे अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं। यह तीन प्रकार का होता है-

  1. सामान्य लक्षण
  2. ज्ञान लक्षण
  3. योगज लक्षण

सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष - सामान्य लक्षण सामान्यों का प्रत्यक्ष है, न्याय-वैशेषिक की तत्त्वमीमांसा के अनुसार सामान्यों का वस्तुगत अस्तित्व है एवं सामान्य विशेष में अनुगत रहते हैं तथा विशेष को देखने पर सामान्य का अलौकिक प्रत्यक्ष हो जाता है। इस सामान्य के आधार पर उस वर्ग विशेष की समस्त वस्तुओं का (जो अन्य कहीं विद्यमान हैं) प्रत्यक्ष प्राप्त हो जाता है; जैसे-हमने जब धुएँ को देखा तो साथ ही धुएँ के सामान्य तत्त्व धूम्रत्व को भी देखा। इस सामान्य तत्त्व के आधार पर हमें अन्यत्र व्याप्त सभी धुओं का अलौकिक प्रत्यक्ष हो जाता है।

ज्ञान लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष - ज्ञान लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा किसी वस्तु के उस गुण का ज्ञान होता है, जिसका सम्पर्क इन्द्रियों से नहीं होता फिर भी हमें उससे गुण का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। जैसेबर्फ को देखकर ठण्ड का ज्ञान तथा पुष्प को देखकर सुगन्ध का ज्ञान हो जाता है, जबकि ठण्डक या सुगन्ध का सम्पर्क इन्द्रियों से नहीं हुआ होता है।

योगज अलौकिक प्रत्यक्ष - योगज अलौकिक प्रत्यक्ष का तीसरा भेद है, जो योगाभ्यास से प्रसूत होता है। योगियों को योग शक्ति के द्वारा दूर से दूर तक की वस्तुओं का अनुभव हो जाता है। वे अपने स्थान से बैठे-बैठे ही हजारों किलोमीटर दूर की घटना को देख-सुन सकते हैं, क्योंकि यह सन्निकर्ष असाधारण ढंग से होता है, अत: इसे योगज अलौकिक प्रत्यक्ष कहते हैं।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...