Thursday, May 12, 2022

यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप

यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप 

यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप 

     यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति 'यज्' धातु में यजयाचयतविच्छ प्रक्षरक्षो नङ (अष्टाध्यायी, 3.3.10 ) इस सूत्र से नङ प्रत्यय करने से होती है जिसका सामान्य अर्थ होता है - देवपूजा । किन्तु यदि यज् धातु पर गम्भीरता से विचार करें तो इससे तीन अलग-अलग अर्थ निर्गमित होते हैं । प्रथम देवपूजा, द्वितीय संगतिकरण और तृतीय दान। सभी प्राणियों के कल्याणार्थ अग्नि, जल, वायु आदि प्राकृतिक पदार्थों का यथोचित उपयोग करना देवपूजा है। ऐसे विद्वानों का सत्संग करना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो, संगतिकरण कहलाता है। अपने द्वारा अर्जित विद्या, धन, धर्म आदि का प्राणि मात्र के लिए प्रयुक्त करना दान है। श्रौत्रसूत्र (1.2.2) में कहा गया है -देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यज्ञः - अर्थात् देवता को उद्देश्य में रखकर किसी द्रव्य का त्याग करना यज्ञ कहलाता है। संहिता, ब्राह्मण और धर्म सूत्रों में दो प्रकार के यज्ञों की मुख्य रूप से चर्चा की गई हैश्रौत यज्ञ और स्मार्त यज्ञ। जिनका विधान साक्षात् श्रुति में होता है उन्हें श्रौत यज्ञ कहते हैं एवं जिनका विधान स्मृतियों में होता है उसे स्मार्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त दोनों प्रकार के यज्ञों के पुनः तीन भेद किये गये हैं - नित्य, नैमित्तिका और काम्य। इनके अतिरिक्त भी यज्ञ के अवान्तर एवं प्रकारान्तर भेद किए गये हैं। श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है कि प्रजापति ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त हो यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनायें देने वाला हो। इस यज्ञ द्वारा मनुष्य देवताओं की उन्नति करता है और देवता लोग मनुष्य की उन्नति करते हैं। यज्ञ के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करते हुए गीता में कहा गया है कि यज्ञ के परिणाम स्वरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगी जन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है। गीता में सत्व, रज एवं तम भेद से यज्ञ तीन प्रकार का माना गया है। जो यज्ञ शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य समझकर तथा फल को न चाहने वाले पुरुषो द्वारा किया होता है, वह सात्विक यज्ञ कहलाता है। जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिए तथा फल की कामना से किया जाता है उसे राजस यज्ञ कहते हैं। शास्त्र विधि से हीन, अन्नदान से रहित, मंत्र हीन, दक्षिणा रहित एवं श्रद्धा रहित यज्ञ को तामस यज्ञ कहा जाता है।

पंचमहायज्ञ – ये पाँच प्रकार के हैं - ब्रह्म यज्ञ, दैव यज्ञ, पितृ यज्ञ, नृ यज्ञ, भूत यज्ञ।

'यज्ञ' यजमान के लाभ के लिए किया जाता है।

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ऋण की अवधारणा

ऋण की अवधारणा 

ऋण की अवधारणा 

वेद में तीन ऋण की व्याख्या मिलती है

1.    ऋषिऋण - ब्रह्मचर्य का पालन करके ऋषिऋण से उऋण हुआ जा सकता है ।

2.   पितृ ऋण - ग्रहस्थ आश्रम में पुत्र उत्पत्ति से इस ऋण से उऋण होते हैं ।

3.   देवऋण - यज्ञ आदि क्रिया करके उऋण होते हैं ।

    महाभारत में एक चौथे मनुष्य ऋण का वर्णन मिलता है। इस ऋण से उऋण होने के लिए व्यक्ति को सभी मनुष्य के साथ निस्वार्थ भाव से अच्छा व्यवहार करना चाहिए।

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साधारण धर्म ( Sadharan Dharm ) का स्वरूप

साधारण धर्म ( Sadharan Dharm ) का स्वरूप 

साधारण धर्म ( Sadharan Dharm ) का स्वरूप 

    साधारण धर्म वे धर्म है जो सभी मनुष्यों के लिए जाति, वर्ग एवं अवस्था के भेद से परे किए जाने वाले आवश्यक कर्तव्य है। महर्षि मनु ने साधारण धर्म के दस लक्षण कहे है-

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति 6.92)

अर्थ धृति (धैर्य), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना, दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना), धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना), सत्यम (हमेशा सत्य का आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना)। यही धर्म के दस लक्षण है।

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धर्म ( Religion ) का स्वरूप

धर्म ( Religion ) का स्वरूप 

धर्म ( Religion ) का स्वरूप 

धर्म 

   धर्म शब्द 'धृ' धातु से निष्पन्न होता है जिसका अर्थ है - धारण करना। वैशेषिक दर्शन के अनुसार- यतोभ्युदयनिःश्रेयस-सिद्धि स धर्मः (वै० सू० 1.1.2)। आशय यह है कि जिससे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) और निःश्रेयस (मोक्ष) की प्राप्ति होती है उसे धर्म कहते हैं। महर्षि जैमिनि के अनुसार— 'चोदनालक्षणोऽर्थो धर्मः (मी० सू० 1.1.2)। अर्थात् जिन कर्मों का वेद में विधान है वे ही करणीय हैं यही इसका धर्म है। इससे ही मानव मात्र का कल्याण सम्भव है। गीता में भी मीमांसा के इस कथन के अनुकूल बात कही गई हैयत्स्याद्धारणसंयुक्तं स धर्म इति निश्चयः । अर्थात् जिससे सब प्रजा का धारण यानि कि कल्याण होता है वही धर्म है। न्याय दशन के अनुसार- धर्म किसी पदार्थ में विद्यमान वह तत्त्व है जिसके कारण उसे किसी दूसरे पदार्थ के सदृश अथवा उससे भिन्न कहा जाता है। यथापृथिवीत्वं धर्मः । इस दर्शन में धर्म को गुण के रूप में माना गया है। यहाँ 24 गुणों की चर्चा की गई है जिसमें धर्म भी एक गुण है। जैन दर्शन में विचार भारतीय दर्शन के सभी सम्प्रदायों से अलग है। जैन दर्शन के अनुसार - धर्म वह तत्त्व है जो न तो स्वतः क्रियाशील होता है और न अन्य को क्रियाशील होने में प्रेरक है किन्तु वह क्रियात्मक तत्वों की क्रिया में सहायक अवश्य होता है। जिस प्रकार मछली को चलने में जल सहायक होता है उसी प्रकार जीव की क्रिया में धर्म सहायक होता है।

साधारण धर्म

    साधारण धर्म वे धर्म है जो सभी मनुष्यों के लिए जाति, वर्ग एवं अवस्था के भेद से परे किए जाने वाले आवश्यक कर्तव्य है। महर्षि मनु ने साधारण धर्म के दस लक्षण कहे है-

धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।

धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। (मनुस्‍मृति 6.92)

अर्थ धृति (धैर्य), क्षमा (अपना अपकार करने वाले का भी उपकार करना, दम (हमेशा संयम से धर्म में लगे रहना), अस्तेय (चोरी न करना), शौच (भीतर और बाहर की पवित्रता), इन्द्रिय निग्रह (इन्द्रियों को हमेशा धर्माचरण में लगाना), धी (सत्कर्मों से बुद्धि को बढ़ाना), विद्या (यथार्थ ज्ञान लेना), सत्यम (हमेशा सत्य का आचरण करना) और अक्रोध (क्रोध को छोड़कर हमेशा शांत रहना)। यही धर्म के दस लक्षण है।

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वर्णाश्रम ( Varna ) की अवधारणा

 

वर्णाश्रम ( Varna ) की अवधारणा 

वर्णाश्रम ( Varna ) की अवधारणा 

वर्णव्यवस्था 

जातीय व्यवस्था- ऋग्वेद के पुरुष सूक्त (10.10.12) में कहा गया है

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत बाहूराजन्यः कृतः ।

उरूतदस्य यद्वेश्यं पद्भ्याँ शूद्रो अजायत ।।  

आशय यह कि उस विराट पुरुष के मुख, भुजाओं, जंधों और पैरों से क्रमश: ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्गों की उत्पत्ति हुई है। श्रीमद्भग गीता में कहा गया है कि गुण और कर्मों के विभाग से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र अविनाशी परमेश्वर के द्वारा रचे गये हैं।

चातुर्वर्ण्य मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।

तस्यकतरिमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम् ॥ (गी० 4.13)

श्रीमद्भगवतगीता में आगे कहा गया है कि जिन चार वर्णों की परमेश्वर से सृष्टि हुई है उनके अलग स्वभाव हैं। उनमें से अन्तःकरण का निग्रह, इन्द्रियों का दमन, बाहर-भीतर की शुद्धि, धर्म के लिए कष्ट सहन करना, क्षमाभाव, मन, इन्द्रिय एवं शरीर की सरलता, आस्तिबुद्धि, शास्त्रविषयक ज्ञान और परमात्मा का अनुभव ब्राह्मण का स्वभाव है। शूरवीरता, तेज, धैर्य, चतुरता, युद्ध में स्थिर रहना, दान और स्वामीभाव क्षत्रिय का स्वभाव है। खेती, गोपालन, क्रय-विक्रयरूप सत्य व्यवहार यह वैश्य का स्वभाव है। सभी वर्णो की सेवा करना शूद्र का स्वभाव है।  

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिराजंवमेव च ।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।

शौर्य तेजोधृतिर्वाक्ष्यं युद्ध चाप्यपलायनम् ।

दानमीश्वरभावच क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ॥

कृषि गौरक्ष्य वाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।

परिचयत्मिकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् ॥ (गी० 18.42.44)

इसी बात को गौतम ने मिताक्षरा में कहा है- ब्राह्मणस्याधिकं लब्धम् क्षत्रियस्य विजितम् निर्विष्टं वैश्यशूद्रयोः ।

चार वर्णाश्रम का समय हैं

·ब्रह्मचर्याश्रम - 25 वर्ष तक ऋषि के साथ रहकर शिक्षाग्रहण इसमें मनुष्य के सम्पूर्ण शारीरिक एवं मानसिक विकास होता करना। 

·गृहस्थ आश्रम - 25 से 50 तक उचित उपायों द्वारा धनोपार्जन तथा संयमित सुख-भोग काल होता है।

·वानप्रस्थ आश्रम - 50 से 75 वर्ष तक इस काल में समाज संग तथा योग आदि क्रिय करके अंतिम आश्रम के लिए तैयार होना।

·संन्यास आश्रम - 75 से 100 वर्ष तक अपनी अध्यात्मिक उन्नति एवं मुक्ति के लिए प्रयास।

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श्रेयस तथा प्रेयस ( Shreyas and Preyas ) की अवधारणा

श्रेयस तथा प्रेयस  ( Shreyas and Preyas ) की अवधारणा 

श्रेयस तथा प्रेयस  ( Shreyas and Preyas ) की अवधारणा 

    श्रेयस तथा प्रेयस उपनिषद की अवधारणा है। श्रेयस का अर्थ है परमात्मा की प्राप्ति का मार्ग और प्रेयस का अर्थ है सांसारिक सुख और वैभव प्राप्ति का मार्ग। छन्दोग्य उपनिषद् के अनुसार श्रेयस का फल भूमा अर्थात असीम और प्रेयस का फल अल्प अर्थात क्षणिक है। श्रेयस तथा प्रेयस के भेद का वर्णन कठोपनिषद् में किया गया है। 

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पुरुषार्थ ( Puruṣārtha ) की अवधारणा

पुरुषार्थ  ( Puruṣārtha ) की अवधारणा 

पुरुषार्थ  ( Puruṣārtha ) की अवधारणा 

   पुरुषार्थ - पुरुषस्य अर्थः लक्ष्यैव वा पुरुषार्थः अर्थात् पुरुष के लक्ष्य, चाह, इच्छा, प्रयोजन को पुरुषार्थ कहते हैं। भारतीय परम्परा में सामान्य रूप से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष चार प्रकार के पुरुषार्थ माने गये हैं। किन्तु मनुस्मृति में पुरुषार्थ तीन ही माना गया है। इस सन्दर्भ में मनुस्मृति (2.224) में कहा गया है

धर्मार्थ विच्यते श्रेयः कामार्थो धर्म एव च।

अर्थ एवेह वा श्रेयस्त्रिवर्ग इति तु स्थितिः ॥

अर्थात् धर्म, अर्थ और काम इन त्रिवर्ग को ही पुरुषार्थ कहा जाता है। मीमांसा दर्शन के अनुसार- यस्मिन्प्रीतिः पुरुषस्य तस्य लिप्सा अर्थ लक्षणा विभक्तित्वात् (जै० सू०, 4.1.2)। अर्थात् जिस कर्म से मनुष्य को सुख प्राप्त होता है और जिसे करने की इच्छा स्वयं ही होती है वह पुरुषार्थ है। सांख्य दर्शन के अनुसार- सत्व पुरुषान्यता ख्याति पुरुषार्थ: । अर्थात सत्व और पुरुष को अलग-अलग समझना पुरुषार्थ है (सर्व० सं०, पृ० 747)। सांख्य सुत्र (1.1) में कहा गया है- त्रिविध दुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः । अर्थात् आध्यात्मिक, आधिदैविक एवं आधिभौतिक इन त्रिविध दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही अत्यन्त पुरुषार्थ है। जिस प्रकार प्रधान की प्रवृत्ति पुरुष के लिए है उसी प्रकार करणों की प्रवृत्ति भी पुरुषार्थ है। पुरुष के अदृष्ट चैत्तिक धर्माधर्म संस्कार क्लेशभूत कर्माशय के अनुसार यह करण प्रवृत्ति प्रवर्तित होती है। विज्ञानभिक्षु ने एक दृष्टान्त के द्वारा पुरुषार्थ की सिद्धि को प्रतिपादित करते हुए कहा है- यथा वत्सार्थ घेनः स्वयमेव क्षीरं लवति नान्यं यत्नमपेक्षते तयैव स्वामिनः पुरुषस्यकृते स्वयमेव करणानि प्रवर्तन्ते इत्यर्थः (स० प्र० भा०, 2.37)। आशय यह कि जिस प्रकार वत्स के लिए धेनु की अनिच्छापूर्वक प्रवृत्ति होती है उसी प्रकार जड़ प्रकृति भी स्वतः परिणत होकर पुरुषार्थ सिद्धि में प्रवृत्त होती है। अद्वैत वेदान्त के अनुसार – निः शेष दुः खोपशम लक्षितं परमानन्दैक रसं च पुरुषार्थ शब्दस्यार्थः (सर्व० सं०, पृ० 762) अर्थात् जिससे सभी दुःखों का समन हो जाय तथा परमानन्द का ही एकमात्र रस मिलता रहे वही पुरुषार्थ है। चार्वाक दर्शन के अनुसार – अंगनाद्यालिंगनादिजन्यं सुखमेव पुरुषार्थः (सर्व० सं० पृ० 5) अर्थात् स्त्री के आलिंगन आदि से उत्पन्न सुख ही पुरुषार्थ है। इस प्रकार चार्वाक दर्शन में अर्थ और काम को ही पुरुषार्थ स्वीकार किया गया है।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...