Thursday, May 12, 2022

लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा

लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा 

लोकसंग्रह ( Loksangrah) की अवधारणा 

     भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह' के दर्शन का वर्णन हुआ है। यह 'स्थितप्रज्ञ' की अवधारणा के साथ वर्णित हुआ है। लोकसंग्रह का अर्थ होता है 'मानवता के हित में किये गये कर्म।' गीता में लोकसंग्रह के लिए कर्मयोग का उपदेश दिया गया है। लोकसंग्रह एक सामाजिक आदर्श है। गीता पुरुषोत्तम एवं मुक्तात्माओं को लोककल्याण हेतु प्रयासरत दिखाकर मानवमात्र को लोककल्याण हेतु प्रेरित करती है। लोकसंग्रह के लिए स्थितप्रज्ञ एक आदर्श पुरुष है जो जनसाधारण के कल्याण के लिए कार्य करता है परन्तु बन्धों में नहीं पड़ता है।

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स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप

स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप 

स्वधर्म ( Swadharma ) का स्वरूप 

स्वधर्म - वह व्यवसाय जो सब लोगों के कल्याण के लिए गुणधर्म के विभाग से किया जाता है स्वधर्म कहलाता है। गीता में कहा गया है- स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः (गी०, 3.35)। अर्थात् स्वधर्म का पालन करते हुए यदि मृत्यु हो जाय, तो भी उसमें कल्याण है, क्योंकि परधर्म विनाशकारी होता है। इस सन्दर्भ में एक लोकोक्ति है कि 'तेली का काम तमोली करे, देव न मारे आप मरे।' गीता के अनुसार - परधर्म का आचरण सहज हो तो भी उसकी अपेक्षा स्वधर्म अर्थात् चातुर्वर्ण्यविहित कर्म, सदोष होने पर भी अधिक कल्याणकारक होता है। जो कर्म सहज है, अर्थात् जन्म से ही गुणकर्मविभागानुसार नियत हो गया है, वह सदोष हो तो भी उसे नहीं त्यागना चाहिए। कारण यह कि सभी उद्योग किसी न किसी दोष से वैसे ही व्याप्त रहते हैं, जैसे धुएं से आग घिरी रहती है

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् ।

स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम् ॥

सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ।

सर्वारम्भा हि दोषेण धमेनाग्निरिवावृताः ।। (गी०, 18.47-48)

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स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा

स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा 

स्थितिप्रज्ञ ( Sthitipragy ) की अवधारणा 

    जो मनुष्य संतुष्ट, भयमुक्त, चिंता रहित एवं प्रसन्नतापूर्वक कर्मलीन है वह स्थितिप्रज्ञ है। इस सम्बन्ध में गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते है –

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।

आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितिप्रज्ञस्तदोयते ।।

अर्थात जो मनुष्य जिस समय में अपने मन में स्थित सम्पूर्ण कामनाओं के ऊपर विजय प्राप्त कर, अपनी आत्मा से, अपनी आत्मा में संतुष्ट रहता है, उस काल में वह स्थितिप्रज्ञ हो जाता है।

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कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप

कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप 

कर्मयोग ( Karma yoga ) का स्वरूप 

कर्मयोग - श्वेताश्वतरोपनिषद् (6.4) में कहा गया है –

आरभ्य कर्माणि गुणान्वितानि भावाश्च सर्वान् विनियोजयेद्यः ।

तेवां भावे कृतकम नाशः कर्मासये याति स तत्व तोऽन्यः ॥

आशय यह कि वर्णाश्रम विहित कर्तव्य कर्मों की अहन्ता, ममता, आसक्ति रहित होकर ईश्वरार्पण बुद्धि से करना कर्मयोग है। ईशोपनिषद् (मंत्र-1) में कहा गया है –

ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत् ।

तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः मागृधः कस्यस्विद्धनम् ॥

श्रीमद्भगवतगीता में कर्मयोग को निष्ठा यानि कि साधन की तरह पराकाष्ठा माना गया है। गीता (3.3) में कहा गया है –

लोकेऽस्मिद्विधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।

ज्ञानयोगन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् ॥

अर्थात् इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा कही गई है। ज्ञानियों की ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से। गीता के अनुसार अहंकार से रहित होकर कम करना ही कर्मयोग है। क्योंकि - प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः । अहंकारविमूढ़ात्मा कर्ताहमिति मन्यते (गी०, 3.27)। अर्थात् यद्यपि सम्पूर्ण कर्म प्रकृति के द्वारा किये हुए हैं फिर भी अहंकार से मोहित हुए अन्तःकरण वाला पुरुष 'मैं’ कर्ता हूँ ऐसे मान लेता है। इसलिए इस कर्तापन रूपी अहंकार से रहित होना ही कर्मयोग है। गीता में दो प्रकार के कर्मों की चर्चा की गई है - सकाम कर्म एवं निष्काम कर्म। सकाम कर्म प्राणि मात्र को बन्धनों में डालने वाले हैं, किन्तु निष्काम इन बन्धनों का उच्छेदक है। इसलिए गीता निष्काम कर्म को ही प्रयोग मानती है। यहां ध्यातव्य यह है कि गीता में निष्काम कर्म का तात्पर्य 'कर्म न करना' नहीं है, क्योंकि कोई भी किसी पुरुष काल में क्षण मात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता है न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत (गी० 3.5) । अस्तु यहां पर निष्काम कर्म का तात्पर्य - अनासक्त कर्मफल से है। कहने का तात्पर्य यह कि गीता में कर्म के प्रति आसक्ति का न होना ही निष्काम कर्म है, और इसे ही कर्मयोग कहते हैं । इस बात का संकेत गीता (18.2) में किया गया है

काम्यानां कर्मणां न्यासं संन्यासं कवयो विदुः ।

सर्वकर्मफलत्यागं प्राहुस्त्यागं विचक्षणाः ।।

शंकराचार्य के अनुसार किए हुए कर्म का कर्मफल की इच्छा से रहित होकर कर्म करने वाले के अन्तःकरण को पवित्र करना कर्मयोग है (गी० भा०, 17.15)। मीमांसक यह मानते हैं- पज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन - अर्थात् यज्ञ के लिए किए गये कर्म बाधक नहीं होते, अस्तु इनके अनुसार जिससे कर्म बंधन का निवारण हो सके वह कर्मयोग है। यहां ज्ञातव्य यह है कि मीमांसकों के अनुसार यज्ञ कर्म ही कर्मयोग है।

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कर्तव्य की अवधारणा (कर्म) Karma की अवधारणा

कर्तव्य की अवधारणा (कर्म) Karma की अवधारणा 

कर्तव्य की अवधारणा (कर्म) Karma की अवधारणा 

कर्म - इसका सामान्य अर्थ किसी कार्य का सम्पादन करना होता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार – ‘एक द्रव्यमगुणं संयोग विभागेष्वनपेक्षकारमिति कर्म लक्षणम्’ (वै० सू० 1.1.17)। अर्थात् एक द्रव्य के आश्रित होना, गुण रहित होना, संयोग और विभाग में अन्य की अपेक्षा न रखते हुए कारण होना, कर्म का लक्षण है। वैशेषिक दर्शन में कर्म को पदार्थ का एक प्रकार माना गया है। उत्क्षेपण, अवक्षेपण, आकुंचन, प्रसारण एवं गमन के भेद से वैशेषिक दर्शन में कर्म पाँच प्रकार का माना गया है। मीमांसा दर्शन में वैदिक यज्ञ सम्बन्धी कर्मकाण्ड के अनुष्ठान को कर्म कहा जाता है। कुमारिल भट्ट के अनुसार, चलनात्मक रूप क्रिया ही कर्म है। जैमिनि सूत्र (2.1.1) में कहा गया है कि कर्म से अपूर्व होती क्रिया फलित होती है। वैद्यनाथ भट्ट के अनुसार - जो अपूर्व का निश्चायक है, वह कर्म है (न्या० वि० 50-17)। मीमांसा दर्शन में नित्य, नैमित्तिक तथा प्रतिषिद्ध के भेद से कर्म तीन प्रकार का माना गया है। योग दर्शन विहित और प्रतिषिद्ध के रूप में दो प्रकार के कर्म को स्वीकार करता है। जैसे - ज्योतिष्टोम विहित कर्म है और ब्रह्महत्या प्रतिषिद्ध कर्म है (सर्व० सं० पृ० 703)। अद्वैत वेदान्त में प्रारब्ध, संचित एवं संचितमाण भेद से कर्म तीन प्रकार का माना गया है।

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यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप

यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप 

यज्ञ ( Yajna ) का स्वरूप 

     यज्ञ शब्द की व्युत्पत्ति 'यज्' धातु में यजयाचयतविच्छ प्रक्षरक्षो नङ (अष्टाध्यायी, 3.3.10 ) इस सूत्र से नङ प्रत्यय करने से होती है जिसका सामान्य अर्थ होता है - देवपूजा । किन्तु यदि यज् धातु पर गम्भीरता से विचार करें तो इससे तीन अलग-अलग अर्थ निर्गमित होते हैं । प्रथम देवपूजा, द्वितीय संगतिकरण और तृतीय दान। सभी प्राणियों के कल्याणार्थ अग्नि, जल, वायु आदि प्राकृतिक पदार्थों का यथोचित उपयोग करना देवपूजा है। ऐसे विद्वानों का सत्संग करना जिससे सभी प्राणियों का कल्याण हो, संगतिकरण कहलाता है। अपने द्वारा अर्जित विद्या, धन, धर्म आदि का प्राणि मात्र के लिए प्रयुक्त करना दान है। श्रौत्रसूत्र (1.2.2) में कहा गया है -देवतोद्देशेन द्रव्यस्य त्यागो यज्ञः - अर्थात् देवता को उद्देश्य में रखकर किसी द्रव्य का त्याग करना यज्ञ कहलाता है। संहिता, ब्राह्मण और धर्म सूत्रों में दो प्रकार के यज्ञों की मुख्य रूप से चर्चा की गई हैश्रौत यज्ञ और स्मार्त यज्ञ। जिनका विधान साक्षात् श्रुति में होता है उन्हें श्रौत यज्ञ कहते हैं एवं जिनका विधान स्मृतियों में होता है उसे स्मार्त यज्ञ कहते हैं। श्रौत एवं स्मार्त दोनों प्रकार के यज्ञों के पुनः तीन भेद किये गये हैं - नित्य, नैमित्तिका और काम्य। इनके अतिरिक्त भी यज्ञ के अवान्तर एवं प्रकारान्तर भेद किए गये हैं। श्रीमद्भगवतगीता में कहा गया है कि प्रजापति ने कल्प के आदि में यज्ञ सहित प्रजा को रचकर कहा कि इस यज्ञ द्वारा तुम लोग वृद्धि को प्राप्त हो यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित कामनायें देने वाला हो। इस यज्ञ द्वारा मनुष्य देवताओं की उन्नति करता है और देवता लोग मनुष्य की उन्नति करते हैं। यज्ञ के वैशिष्ट्य का प्रतिपादन करते हुए गीता में कहा गया है कि यज्ञ के परिणाम स्वरूप ज्ञानामृत को भोगने वाले योगी जन परम ब्रह्म परमात्मा को प्राप्त होते हैं और यज्ञ रहित पुरुष को यह मनुष्य लोक भी सुखदायक नहीं है। गीता में सत्व, रज एवं तम भेद से यज्ञ तीन प्रकार का माना गया है। जो यज्ञ शास्त्र विधि से नियत कर्तव्य समझकर तथा फल को न चाहने वाले पुरुषो द्वारा किया होता है, वह सात्विक यज्ञ कहलाता है। जो यज्ञ केवल दम्भाचरण के लिए तथा फल की कामना से किया जाता है उसे राजस यज्ञ कहते हैं। शास्त्र विधि से हीन, अन्नदान से रहित, मंत्र हीन, दक्षिणा रहित एवं श्रद्धा रहित यज्ञ को तामस यज्ञ कहा जाता है।

पंचमहायज्ञ – ये पाँच प्रकार के हैं - ब्रह्म यज्ञ, दैव यज्ञ, पितृ यज्ञ, नृ यज्ञ, भूत यज्ञ।

'यज्ञ' यजमान के लाभ के लिए किया जाता है।

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ऋण की अवधारणा

ऋण की अवधारणा 

ऋण की अवधारणा 

वेद में तीन ऋण की व्याख्या मिलती है

1.    ऋषिऋण - ब्रह्मचर्य का पालन करके ऋषिऋण से उऋण हुआ जा सकता है ।

2.   पितृ ऋण - ग्रहस्थ आश्रम में पुत्र उत्पत्ति से इस ऋण से उऋण होते हैं ।

3.   देवऋण - यज्ञ आदि क्रिया करके उऋण होते हैं ।

    महाभारत में एक चौथे मनुष्य ऋण का वर्णन मिलता है। इस ऋण से उऋण होने के लिए व्यक्ति को सभी मनुष्य के साथ निस्वार्थ भाव से अच्छा व्यवहार करना चाहिए।

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