Wednesday, July 20, 2022

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार // Prama and Aprama Thoughts in Nyaya Philosophy

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार // Prama and Aprama Thoughts in Nyaya Philosophy

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार

प्रमा / Prama

       “प्रमियते अनेन इति प्रमा” अर्थात प्रमा अवस्थाओं का यथार्थ ज्ञान है। इसमें वस्तु जैसी होती है उसका वैसा ही ज्ञान होता है, जैसे - घट को घट के रूप में जानना प्रमा है। बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति अनुसार ‘प्रमा उस वस्तु की अभिव्यक्ति है जिससे किसी प्रयोजन की सिद्धि होती है’। यह विचार पाश्चात्य दर्शन के व्यवहारवादी सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। मीमांसकों के अनुसार – ‘अनधिगत ज्ञान प्रमा है’। पार्थसारथी मिश्र ने शास्त्रदीपिका में कहा हैं – “यथार्थमगृहीत ग्राही ज्ञानम् प्रमा इति” अर्थात् अग्रहीत ज्ञान का ग्रहण प्रमा है। नैयायिकों के अनुसार – ‘प्रमा किसी वस्तु का असंदिग्ध ज्ञान है’। गंगेश उपाध्याय के अनुसार – “यत्रयदस्ति तत्र तस्यानुभव: प्रम”। अन्नंभट्ट के अनुसार – “तद्वति तत्प्रकारका रकानुभवो यथार्थ:”। अद्वैत वेदान्त में प्रमा को नवीन एवं अबाधित माना गया है। इस संदर्भ में धर्मराजाध्वरीन्द्र ने वेदान्त परिभाषा में कहा है – “अनधिगताबाधितार्थ विषयक ज्ञानत्वम् प्रमात्वम्"। यहां पर ध्यातव्य यह है कि जहाँ मीमांसक प्रमा को अनधिगत मात्र मानते हैं वहीं दूसरी ओर वेदान्ती अनधिगत के साथ अबाधित लक्षण भी प्रमा में स्वीकार करते हैं। अद्वैत वेदान्तियों द्वारा अबाधित ज्ञान को प्रमा कहने का मात्र कारण यह है कि अनधिगत ज्ञान के अधार पर प्रमा का विश्लेषण करने के बाद विरोधी अनुभवों के उपस्थित होने पर प्रमा अप्रमा हो जाने की संभावना बनी रहती है। इस प्रकार न्याय दर्शन में यथार्थ ज्ञान को प्रमा और अयथार्थ ज्ञान को अप्रमा कहा जाता है। 

         न्याय दर्शन में प्रमेय विचार - प्रमाण के द्वारा हम जिन पदार्थों के ज्ञान की प्राप्ति करते हैं, उन्हें प्रमेय कहा जाता है। न्याय सूत्र में प्रमेय 12 बताये गये हैं - आत्मा-शरीर-इन्द्रिय अर्थ-बुद्धि-मन-प्रवृत्ति दोष-प्रेत्यभाव-फल-दुःख अपवर्गास्तु प्रमेयम्'। इनमें आत्मा प्रथम है। तर्कभाषा में आत्मा का लक्षण "आत्मत्वसामान्यवानात्मा” दिया गया है, जिसका अर्थ है - आत्मत्व नामक सामान्य (जाति) जिस पर रहता है उसे आत्मा कहा गया है। इसके अतिरिक्त आत्मा को शरीर से भिन्न, अनेक एवं विभु कहा गया है। आत्मा के भोग का आश्रय 'शरीर' कहलाता है। शरीरसंयुक्त अतीन्द्रिय ज्ञानकरण को 'इन्द्रिय' कहते हैं। 'अर्थ' पदार्थ का बोधक है जिनकी संख्या 6 है - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य विशेष समवाय। “अर्थप्रकाशो बुद्धिः” अर्थविषयक प्रकाश को ‘बुद्धि' कहते हैं। सुख-दुःखादि की उपलब्धि का साधनभूत अन्तरिन्द्रिय 'मन' कहलाता है। शास्त्रविहित एवं शास्त्रनिषिद्ध कर्मों के आचरण से उत्पन्न होने वाले अदृष्ट (धर्म-अधर्म) को प्रवृत्ति कहते हैं। राग, द्वेष एवं मोह संयुक्त रूप से 'दोष' कहलाते हैं। पुनरुत्पत्ति (मरण के पश्चात् पुनर्जन्म का होना) को 'प्रेत्यभाव' कहते हैं। सुख-दुःख के अनुभवरूप भोग को 'फल' कहा जाता है। पीड़ा (जो सभी को प्रतिकूलवेदनीय हो) को 'दुःख' कहते हैं। 21 प्रकार के दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति 'अपवर्ग' कहलाती है । 

      अन्य पदार्थ विचार - एक धर्मी में परस्पर विरुद्ध अनेक धर्मों का बोध 'संशय' कहलाता है। जिस अर्थ को अधिकृत करके मनुष्य किसी कर्म में प्रवृत्त होता है उसे ‘प्रयोजन' कहते हैं। जिस विषय में वादी प्रतिवादी दोनों एकमत हों, वह 'दृष्टान्त' कहलाता है। किसी दर्शन द्वारा प्रामाणिक रूप से स्वीकृत अर्थ को ‘सिद्धान्त' कहते हैं। अनुमान वाक्य के अंश (प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय एवं निगमन) अवयव कहलाते हैं। व्याप्य के आरोप से व्यापक का आरोप 'तर्क' कहलाता है। निश्चयात्मक ज्ञान को 'निर्णय' कहते हैं। तत्त्वज्ञान की जिज्ञासा से होने वाली कथा 'वाद' कहलाती है। विजय की इच्छा से की जाने वाली कथा 'जल्प' होती है। जल्प कथा में जब कोई पक्ष अपने अभिमत की स्थापना न करके केवल प्रतिपक्ष का खण्डन ही करता है तो वह ‘वितण्डा' कहलाती है। असद हेतु को 'हेत्वाभास' कहते हैं। वक्ता द्वारा किसी भिन्न अभिप्राय से कहे गए वाक्य को सुनकर श्रोता द्वारा उसका भिन्न अर्थ मानकर दोष प्रदर्शन को 'छल' कहते हैं। असंगत उत्तर को 'जाति' कहते हैं। पराजय के निमित्त को ‘निग्रहस्थान’ कहते हैं । 

          मोक्ष - न्याय दर्शन में मोक्ष को अपवर्ग तथा निःश्रेयस भी कहा गया है। प्रमाण, प्रमेय आदि सोलह पदार्थों का ज्ञान मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है। 

'प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजन- दृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितंडाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थाना नां तत्त्वज्ञानानिःश्रेयसाधिगमः 

(न्यायसूत्र, 1.1.1) 



Tuesday, July 19, 2022

न्याय दर्शन // Nyaya

न्याय दर्शन // Nyaya

 न्याय दर्शन का परिचय 

       ‘नीयते अनेन इति न्यायः' अर्थात् वह प्रक्रिया जिसके द्वारा परमतत्त्व की ओर ले जाया जाए वह 'न्याय' है। न्यायभाष्यकार वात्स्यायन के अनुसार “प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः" अर्थात् प्रमाणों की सहायता से वस्तु-तत्त्व का परीक्षण करने की प्रणाली ही न्याय कहलाती है। न्याय की इस विचार प्रक्रिया का मूल कौटिल्य के अर्थशास्त्र, चरकसंहिता तथा सुश्रुतसंहिता में उपलब्ध होता है जहाँ इसे ‘आन्वीक्षिकी’ के रूप में विवेचित किया गया है। अर्थशास्त्र में आन्वीक्षिकी विद्या को सभी विद्याओं का प्रकाशक, समस्त कर्मों का साधक तथा समग्र धर्मों का आश्रय कहा गया है  - 

प्रदीपः सर्वविद्यानामुपायः सर्वकर्मणाम्।

आश्रयः सर्वधर्माणां शश्वदान्वीक्षिकी मता।। (अर्थशास्त्र, 1.1.1) 

उचित निष्कर्ष पर पहुँचना तर्क के द्वारा सम्भव है, मुख्यतः यह दर्शन तर्क विद्या का प्रतिपादन करता है, इसलिए यह तर्कशास्त्र के नाम से भी जाना जाता है। इस दर्शन को प्रमाणशास्त्र, हेतु-विद्या, आन्वीक्षिकी विद्या के नाम से भी जाना जाता है। न्याय दर्शन को उसके प्रमाण शास्त्र के कारण अधिक प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। अन्य भारतीय दर्शन परम्पराओं को 'वादविधि की प्रक्रिया' का ख्यापन न्यायशास्त्र का महत्त्वपूर्ण अवदान है। 

       न्याय दर्शन का इतिहास लगभग 2000 वर्षों में समाविष्ट है। इस विशाल दर्शन को विद्वानों ने तीन भागों में विभक्त किया है - प्राचीन न्याय, मध्य न्याय तथा नव्य-न्याय। दूसरी शताब्दी ई.पू. से छठी शताब्दी ई. का समय प्राचीनन्याय का है। मध्यन्याय का समय 6-12वीं शताब्दी तक है। बारहवीं शताब्दी एवं उसके बाद का दर्शन नव्य-न्याय में रखा जाता है। बारहवीं शती के गंगेश उपाध्याय ने नव्य-न्याय की आधारशिला रखी थी। अन्य दर्शनों की भाँति न्याय दर्शन का भी मुख्य उद्देश्य दुःखों से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करना ही है। इस दर्शन के अनुसार मुक्ति तत्त्वज्ञान से अर्थात् द्वादश प्रमेयों के ज्ञान से प्राप्त होती है। तत्त्वज्ञान से मिथ्याज्ञान नष्ट होता है, जिससे दोष अर्थात् राग-द्वेष नष्ट होते हैं तथा मुक्ति मिलती है। 

न्याय दर्शन का साहित्य 

न्याय दर्शन के साहित्य को 3 भागों में देखा जा सकता है - 

1- प्राचीन न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक

  • गौतम - तर्क विद्या प्राचीन काल से ही भारत में विद्यमान रही है। उपनिषदों, रामायण, महाभारत आदि में भी इसका उल्लेख प्राप्त होता है किन्तु न्याय दर्शन को व्यवस्थित रूप में , एक दर्शन के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय महर्षि गौतम को जाता है जिनका 'न्यायसूत्र' इस मूल ग्रन्थ माना जाता है। इसमें 5 अध्याय 10 आह्निक, 84 प्रकरण तथा 528 सूत्र हैं। 
  • वात्स्यायन - न्यायसूत्र पर सर्वप्रथम भाष्य वात्स्यायन ने लगभग चतुर्थ शताब्दी ई. में लिखा जो 'वात्स्यायन भाष्य' या 'न्यायभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। 

 2. मध्य न्याय (प्रमेय प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • उद्योतकार - वात्स्यायन भाष्य पर न्यायवार्तिक नाम की टीका लिखी, इनका समय लगभग 650 ई. कश्मीर में माना जाता है। 
  • वाचस्पतिमिश्र - इनका समय 841 ई में माना जाता है। ये मिथिला के निवासी थे तथा इन्हें षड्दर्शनीवल्लभ की उपाधि से जाना जाता है। इन्होंने न्यायवार्तिक पर तात्पर्यटीका लिखी जो ‘न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका’ के नाम से प्रसिद्ध है। 
  • जयन्तभट्ट - 9 वीं शताब्दी में जयन्तभट्ट ने न्यायशास्त्र पर एक विशाल ग्रन्थ लिखा जो न्यायमञ्जरी के नाम से प्रसिद्ध है, इसमें आह्निकों की संख्या 84 है।
  • उदयन - इनका समय 984 ई0 माना जाता है। इन्होंने तात्पर्यटीका पर एक उपटीका लिखी, जो 'न्यायवार्तिकतात्पर्यपरिशुद्धि' नाम से प्रसिद्ध है। इसके अतिरिक्त 'न्यायकुसुमांजलि' एवं 'आत्मतत्त्वविवेक’ उनके दो अन्य प्रसिद्ध न्यायग्रन्थ हैं । 

3- नव्य-न्याय (प्रमाण प्रधान) के मुख्य प्रर्वतक 

  • गंगेश उपाध्याय - नव्यन्याय के प्रवर्तक के रूप में विख्यात गंगेश उपाध्याय ने 'तत्त्वचिन्तामणि’ नाम से ग्रन्थ लिखा, जो 4 खण्डों मे विभाजित है, जिसमें इन्होंने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान एवं शब्द की विशद् व्याख्या की है। 'तत्वचिन्तामणि' की व्याख्या परम्परा में वर्धमान ने 'प्रकाश', पक्षधर मिश्र ने 'आलोक', शंकरमिश्र ने 'मयूख' रघुनाथ शिरोमणि ने 'दीधिति', मथुरानाथतर्कवागीश ने 'रहस्य', जगदीश तर्कालंकार ने दीधितिप्रकाश (जागदीशी), हरिराम तर्कवागीश ने ‘तत्त्वचिन्तामणिविचार' तथा गदाधर भट्टाचार्य ने 'दीधितिप्रकाशिका' नाम से विस्तृत एवं प्रौढ़ टीकाग्रन्थों की रचना की है। 

न्याय दर्शन के अन्य प्रमुख प्रवर्तक 

  • भासर्वज्ञ - 10 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में आचार्य भासर्वज्ञ ने 'न्यायसार' नामक प्रमाणाधारित प्रकरण ग्रन्थ की रचना की है जो कि अपनी मौलिक एवं नवीन उद्भावनाओं के लिए प्रसिद्ध है। 
  • वरदराज - इनके ग्रन्थ का नाम ‘तार्किकरक्षा' है तथा इनका समय 1150 ई. का है। यह वैशेषिकपदार्थसमावेष्टा न्याय का प्रकरण ग्रन्थ है। 
  • केशव मिश्र - मिथिला के इस प्रसिद्ध नैयायिक ने 13 वीं शताब्दी में 'तर्कभाषा' की रचना की है जिसे न्यायदर्शन में प्रवेश का द्वार माना जाता है। 

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न्याय दर्शन के महत्वपूर्ण टॉपिक 

न्याय दर्शन में प्रमा और अप्रमा विचार

Monday, June 13, 2022

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy

तिब्बती बौद्ध दर्शन / Tibetan Buddhist Philosophy 

   तिब्बती बौद्ध धर्म बौद्ध धर्म की महायान शाखा की एक उपशाखा है जो तिब्बत, मंगोलिया, भूटान, उत्तर नेपाल, उत्तर भारत के लद्दाख़, अरुणाचल प्रदेश, लाहौल व स्पीति ज़िले और सिक्किम क्षेत्रों, रूस के कालमिकिया, तूवा और बुर्यातिया क्षेत्रों और पूर्वोत्तरी चीन में प्रचलित है। तिब्बती इस समप्रदाय की धार्मिक भाषा है और इसके अधिकतर धर्मग्रन्थ तिब्बती व संस्कृत में ही लिखे हुए हैं। वर्तमानकाल में 14वें दलाई लामा इसके सबसे बड़े धार्मिक नेता हैं।

    तिब्बती बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं है – निमिंगम, काग्यू, शाक्य और गेलुग। इसके साथ-साथ तिब्बती बौद्ध दर्शन में बोधिसत्व को प्राप्त करने के लिए पाँच मार्गों का वर्णन है –

  1. संचय का मार्ग
  2. तैयारी का मार्ग
  3. देखने का मार्ग
  4. ध्यान का मार्ग
  5. अधिक सीखने का मार्ग।

   तिब्बत में भारत के संस्कृत बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती भाषा में अनुवाद राजा सोंगत्सान्पो गम्पो के शासन काल में किया गया था। पद्मसम्भव को तिब्बती बौद्ध धर्म की सबसे पुरानी परम्परा ‘निंगमा’ अर्थात प्राचीन युग का संस्थापक माना जाता है।

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बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

बौद्ध धर्म में ब्रह्मण एवं श्रमण परम्परा / Brahman and Shramana Traditions in Buddhism

    भारत में प्राचीन काल से ही दो मुख्य परम्पराएं देखने को मिलती है। एक ब्रह्मण परम्परा और दूसरी श्रमण परम्परा। ब्रह्मण परम्परा के उपासक मूलतः ब्रह्मण जाति के लोग थे जो वेदों को प्रमुख स्रोत मानते थे और उसे ईश्वरीय ज्ञान का आधार मानते थे। वे वैदिक देवताओं की पूजा-अर्चना करते थे। वे कर्मकाण्ड में विश्वास रखते थे तथा वर्णव्यवस्था को स्वीकार करते थे। किन्तु श्रमण-परम्परा को मानने वालों ने वेदों के स्थान पर लोक-प्रचलित मान्यताओं, कथाओं को अपनाया। वैदिक ऋषियों की जगह योगी और तपस्वियों को माना तथा वैदिक कर्मकाण्ड के स्थान पर चिन्तन, मनन, तप, संयम, त्याग और ब्रह्मचर्य को श्रेष्ठ समझा। बौद्ध धर्म और जैन धर्म इसी श्रमण-परम्परा के अनुगामी सिद्ध हुए एवं इन्हीं धर्मों से निःसृत कथाएं, उपदेशोंक्तियाँ आदि बौद्ध कथा/जातक कथा, जैन कथा/आगम कथा की संज्ञा दी गई।

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बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism

बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism

बौद्ध धर्म का अष्टांगिक मार्ग / Eightfold Path of Buddhism 

    बुद्ध के द्वितीय आर्य सत्य अर्थात दुःख समुदय को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ कहा जाता है। इसका अर्थ – दुःख के कारण को खोज करना है। यदि एक बार कारण को खोज लिया जाए तो निवारण स्वतः ही प्राप्त हो जाता है। बुद्ध का दर्शन दुःख से निवारण का मार्ग है। अतः बुद्ध ने सर्वप्रथम दुःख के कारणों को खोज और द्वादश निदान संसार के लोगों को बताए जो इस प्रकार है –

  1. जरा-मरण अर्थात वृद्धा अवस्था। 
  2. जाति अर्थात जन्म लेना।
  3. भव अर्थात जन्म ग्रहण करने की इच्छा।
  4. उपादान अर्थात जगत की वस्तुओं के प्रति राग एवं मोह।
  5. तृष्णा अर्थात विषयों के प्रति आसक्ति।
  6. वेदना अर्थात अनुभूति
  7. स्पर्श अर्थात इन्द्रियों का विषयों से संयोग
  8. षडायतन अर्थात छः इन्द्रिय समूह या शरीर
  9. नामरुप अर्थात मन के साथ शरीर सम्बन्ध।
  10. विज्ञान अर्थात चेतना
  11. संस्कार अर्थात पूर्व जन्मों के फल
  12. अविद्या अर्थात अनित्य को नित्य, असत्य को सत्य और अनात्म को आत्म समझना।

    इस प्रकार इन 12 कारणों से दुःख उत्पन्न होता है। बुद्ध ने दुःख निरोध के लिए 8 उपाय कहे है जिन्हें अष्टांग मार्ग कहते है। ये निम्नलिखित है –

  1. सम्यक् दृष्टि अर्थात सही दृष्टिकोण होना।
  2. सम्यक् संकल्प अर्थात सही सोच रखना। 
  3. सम्यक् वाक् अर्थात सही बोलना।
  4. सम्यक् कर्मांत अर्थात सही कर्म करना।
  5. सम्यक् आजीव अर्थात सही जीविकोपार्जन करना।
  6. सम्यक् व्यायाम अर्थात सही श्रम करना।
  7. सम्यक् स्मृति अर्थात सही सोच रखना।
  8. सम्यक् समाधि अर्थात ध्यान करना।

सम्यक् समाधि की चार अवस्थाएं काही गई है –

  1. प्रथम अवस्था – साधक चार आर्य सत्यों पर तर्क-वितर्क करें।
  2. द्वितीय अवस्था – साधक चार आर्य सत्यों के प्रति श्रद्धा रखे।
  3. तृतीय अवस्था – साधक मन में आनन्द के प्रति उपेक्षा का भाव रखे।
  4. चतुर्थ अवस्था – साधक चित्तवृत्तियों का पूर्ण निरोध करें।

    इस प्रकार इस अष्टांग मार्ग का अनुसरण कर साधक दुःखों से छुटकारा पा सकता है। इन उपरोक्त 8 मार्ग के अतिरिक्त बुद्ध ने साधक को तीन शिक्षा भी दी है जिन्हें बुद्ध की त्रिशिक्षा कहते है। ये है – शील, समाधि और प्रज्ञा।

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बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism

बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism

 बौद्ध धर्म के चार आर्य सत्य / Four Noble Truths of Buddhism

    ‘चार आर्य सत्य’ गौतम बुद्ध के व्यवहारिक दर्शन को प्रकट करने वाला विचार है। इन चरों आर्य सत्यों में दुःख क्या है तथा उसका निवारण कैसे हो पर प्रकाश डाला गया है। बुद्ध संसार के लोगों से पूछते है की “अंधकार से घिरे हुए तुम लोग दीपक क्यों नहीं खोजते हो? और कहते है कि 'अप्प दीपो भव' अर्थात अपना प्रकाश स्वयं बनो। अतः दीपक खोजने से स्वयं दीपक बनने का दर्शन इन चार आर्य सत्यों में निहित है जिसका वर्णन इस प्रकार है –

  1. प्रथम आर्य सत्य – सर्वं दुःखम् अर्थात सब और दुःख है।
  2. द्वितीय आर्य सत्य – दुःख समुदयः अर्थात दुःख के कारण
  3. तृतीय आर्य सत्य – दुःख निरोधः अर्थात दुःख का नाश हो सकता है।
  4. चतुर्थ आर्य सत्य – दुःख निरोगमिनी प्रतिपद् अर्थात दुःखनिरोध का मार्ग।

    वृद्ध, रोगी एवं मृत व्यक्ति को देखकर बुद्ध सर्वस्व दुःख की अनुभूति हुई और उन्होंने दुनिया के लोगों को कहा कि “हमारी अनादिकाल से चली आने वाली इस महायात्रा में हमने जीतने आँसू बहाए है वह चार महासागरों के जल से अधिक है”। आगे वे कहते है कि “दुःख तो संसार में ऐसे घुला-मिला है जैसे समुद्र के पानी में नमक होता है”। इसलिए बुद्ध संसार के लोगों से पूछते है कि “संसार में आग लगी है तब आनन्द मनाने का अवसर कहाँ है? बस इसी भाव में यह प्रथम आर्य सत्य दिया। इस दुःख का मुख्य कारण बुद्ध ने तृष्णा कहा है। बुद्ध कहते है “हे भिक्षुओं, तृष्णा या वासना ही दुःख का मूल कारण है, यह प्रबल तृष्णा ही है जिसके कारण बार-बार जन्म होता है और उसी के साथ इन्द्रिय सुख आते है, जिसकी पूर्ति जहाँ-तहाँ से हो जाती है”। यह तृष्णा तीन प्रकार की है –

  1. भव तृष्णा अर्थात जीवित रहने की इच्छा।
  2. विभव तृष्णा अर्थात वैभव प्राप्त करने की इच्छा।
  3. काम तृष्णा अर्थात इन्द्रिय सुख की इच्छा ।

    इसी तृष्णा को कारण बताकर बुद्ध ने दूसरे आर्य सत्य का उपदेश दिया है और तीसरे उपदेश में कहा है कि इस तृष्णा को समाप्त किया जा सकता है अर्थात दुःख का नाश हो सकता है। बुद्ध संसार के लोगों से कहते है कि “जो भयंकर तृष्णा को जीत लेता है, उससे दुःख कमल-पत्र से भरे जल की बूंदों के समान दूर हो जाते है। तृष्णा की जड़ों को खोद डालो ताकि वह ललचाने वाली तुम्हें बार-बार न पिसे”। इस भयंकर तृष्णा को समाप्त करने के लिए बुद्ध ने संसार को चौथा उपदेश दिया और कहा कि अपने जीवन को अष्टांग मार्ग पर ले चलो। यह अष्टांग मार्ग तुम्हें अविद्या से निर्वाण अर्थात मोक्ष की और ले जाएगा। इस अष्टांग मार्ग के साधक के लिए बुद्ध भिक्षुकों को त्रिशिक्षा का उपदेश देते है– शील, समाधि और प्रज्ञा। यही वह विशुद्ध मार्ग है जिसपर चलकर तृष्णा को पूर्णतः जीता जा सकता है।

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बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy

 

बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy

बौद्ध दर्शन की चार प्रमुख शाखाएं / Four Major Branches of Buddhist Philosophy

    बौद्ध दर्शन का 4 शाखाओं में जो वर्गीकरण हुआ है इसके पीछे दो प्रश्न विद्यमान हैं, एक अस्तित्व संबंधीय और दूसरा ज्ञान संबंधी। अस्तित्व संबंधित प्रश्न यह है कि, मानसिक या बाह्य कोई वस्तु है या नहीं ? इस प्रश्न के तीन उत्तर दिए गए हैं - पहला माध्यमिकों के अनुसार कि ‘मानसिक या बाह्य किसी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। सभी शून्य है’। अतः ये शून्यवादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। दूसरा योगाचारों के अनुसार ‘मानसिक अवस्थाएं या विज्ञान ही एक मात्र सत्य है। बाह्य पदार्थों का कोई अस्तित्व नहीं है’। अतः योगाचार विज्ञानवादी के नाम से प्रसिद्ध है। तीसरा, कुछ बौद्ध यह मानते हैं कि ‘मानसिक तथा बाह्य सभी वस्तुएं सत्य हैं। अतः यह वस्तुवादी हैं’। ये सर्वास्तिवादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। बाहरी वस्तुओं के ज्ञान के लिए क्या प्रमाण है ? सर्वास्तित्ववादी अर्थात जो वस्तुओं की सत्ता को मानते हैं इस प्रश्न के दो उत्तर देते हैं। कुछ जो सौत्रांतिक के नाम से प्रसिद्ध हैं, यह मानते हैं कि ‘वह वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं होता है। उनका ज्ञान अनुमान के द्वारा ही होता है’। दूसरे जो वैभाषिक नाम से विख्यात हैं वे कहते हैं कि ‘बाह्य वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा भी प्राप्त होता है’। अब इनका प्रमुख संप्रदायों का वर्णन करते हैं -

  1. शून्यवाद - शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन का जन्म दूसरी शताब्दी में दक्षिण भारत के एक ब्राम्हण परिवार में हुआ था। बुद्धचरित के प्रणेता अश्वघोष भी शून्यवाद के समर्थक थे। नागार्जुन की मूल माध्यमिक कारिका ही इस मत की आधारशिला है। आर्यदेव की चतुःशतिका भी एक और प्रधान ग्रंथ है। माध्यमिक शून्यवाद को भारतीय दर्शन में कभी-कभी सर्ववैनाशिकवाद भी कहा गया है क्योंकि इसके अनुसार किसी भी वस्तु का अस्तित्व नहीं है। किंतु यदि हम माध्यमिक दर्शन का विचार पूर्वक अध्ययन करें तो हम देख सकते हैं कि माध्यमिक मत वस्तुतः वैनाशिकवाद नहीं है। यह तो केवल इंद्रियों से प्रत्यक्ष जगत् को असत्य मानता है। प्रत्यक्ष जगत से परमार्थी सत्ता अवश्य है लेकिन वह अवर्णनीय है उसके संबंध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कि वह मानसिक है या बाह्य। साधारण लौकिक विचारों के द्वारा अवर्णनीय होने के कारण उसे शून्य कहते हैं। इन विचारों से स्पष्ट है कि पारमार्थिक सत्ता या परम तत्व बिल्कुल अवर्णनीय है। इस वर्णनातीत तत्व को शून्यता कहते हैं।
  2. योगाचार विज्ञानवाद - योगाचार विज्ञानवाद के अनुसार चित्त ही एकमात्र सत्ता है। विज्ञान के प्रवाह को ही चित्त कहते हैं। हमारे शरीर तथा अन्यान्य पदार्थ जो मन के बहिर्गत मालूम पड़ते हैं वे सभी हमारे मन के अंतर्गत हैं। जिस तरह स्वप्न या मतिभ्रम की अवस्था में हम वस्तुओं को बाह्य समझते हैं यद्यपि वे मन के अंतर्गत ही रहती हैं, उसी तरह साधारण मानसिक अवस्थाओं में भी जो पदार्थ बाह्य प्रतीत होते हैं वे विज्ञान मात्र हैं। किसी वस्तु में तथा तत्संबंधी ज्ञान में भेद सिद्ध नहीं किया जा सका है इसलिए बाह्य वस्तु का अस्तित्व बिल्कुल असिद्ध है।
  3. सौत्रांतिक - सौत्रांतिक चित्त तथा बाह्य जगत् दोनों को ही मानते हैं। उनका कथन है कि यदि बाह्य वस्तुओं के अस्तित्व को नहीं माना जाए तो वह वस्तु की प्रतीति कैसे होती है इसका प्रतिपादन हम नहीं कर सकते हैं। जिसने बाह्य वस्तु को कभी प्रत्यक्ष नहीं देखा है वह यह नहीं कह सकता कि भ्रमवश अपनी मानसिक अवस्था ही बाह्य वस्तु के सदृश प्रतीत होती है इसके लिए बाह्य वस्तु के सदृश यह कहना उसी तरह अर्थहीन है जिस तरह बंध्यापुत्र विज्ञानवादियों के अनुसार वस्तु की तो कोई सत्ता ही नहीं है। अतः बाह्य वस्तु का न तो कोई ज्ञान हो सकता है न ही उसके साथ किसी की तुलना ही की जा सकती है। सौत्रांतिक कहते हैं कि यह सही है कि वस्तु के वर्तमान रहने पर ही उसका प्रत्यक्ष होता है किंतु वस्तु और उसका ज्ञान समकालीन है इसलिए अभिन्न है, यह युक्ति ठीक नहीं है। जब हमें घट का प्रत्यक्ष होता है तो घट हमारे बाहर है और ज्ञान अंदर है, इसका स्पष्ट अनुभव होता है।
  4. वैभाषिक - सौत्रांतिक की तरह ही वैभाषिक भी चित्त तथा बाह्य वस्तु के अस्तित्व को मानते हैं। किंतु आधुनिक नव्य वस्तु वादियों की तरह यह कहते हैं कि वस्तु का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोड़कर अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकता। यह सही है कि धुआं देखकर हम आग का अनुमान करते हैं कि वस्तुओं का ज्ञान प्रत्यक्ष को छोड़कर अन्य किसी उपाय से नहीं हो सकता। यह सही है कि धुआं देखकर हम आग का अनुमान करते हैं। किंतु यह इसलिए संभव होता है कि अतीत में हमने आग और धुआं एक साथ देखा है। जिसने भी दोनों को एक साथ कभी नहीं देखा वह धुंआ देखकर आग का अनुमान नहीं कर सकता। यदि बाह्य वस्तुओं का प्रत्यक्ष कभी नहीं हुआ रहे तो केवल मानसिक परिरूपों के आधार पर उनका अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकता है। जिसने कभी कोई वस्तु नहीं देखी है वह यह नहीं समझ सकता कि कोई मानसिक अवस्था किसी वस्तु का प्रतिरूप है। प्रत्युत् वह तो यह समझेगा कि मानसिक अवस्था ही मौलिक और स्वतंत्र सत्ता है, उसका अस्तित्व किसी बाह्य वस्तु पर निर्भर नहीं है। अतः, या तो हमें विज्ञानवाद को स्वीकार करना होगा या मानना होगा कि वस्तुओं का प्रत्यक्ष ज्ञान ही संभव है। अतः वैभाषिक मत को बाह्यप्रत्यक्षवाद कहते हैं। अभिधर्म पर महाविभाषा या विभाषा नाम की प्रकांड टीका इस मत का मूल अवलंबन थी इसलिए इसका नाम वैभाषिक पड़ा।

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विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ?

विश्व के लोगों को चार्वाक दर्शन का ज्ञान क्यों जरूरी है ? चार्वाक दर्शन की एक बहुत प्रसिद्ध लोकोक्ति है – “यावज्जजीवेत सुखं जीवेत ऋणं कृत्...