जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप

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जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप 

जैन दर्शन में अजीव द्रव्य का स्वरूप 

     अस्तिकाय के दो प्रकारों में यह द्वितीय है, इसे जड़ भी कहते हैं। जीवों का निवास स्थान यह जगत है, जगत जड़द्रव्यों से बना हुआ है। कुछ जड़द्रव्यों के कारण जीव शरीर धारण करते हैं और कुछ बाह्य परिस्थिति का निर्माण करते हैं। अजीव द्रव्य पाँच होते हैं। इनका वर्णन निम्नलिखित है-

  1. पुद्गल
  2. आकाश
  3. काल
  4. धर्म
  5. अधर्म

पुद्गल

     जैन दर्शन में पुद्गल जड़तत्त्व या भौतिक तत्त्व है। तत्त्व रूप में पुद्गल का प्रयोग बौद्ध दर्शन में जीव के लिए आया है, किन्तु जैन दर्शन में यह भौतिक तत्त्व के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, यह विश्व का भौतिक आधार है। स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण पुद्गल के गुण हैं। व्युत्पत्ति के अनुसार पुद्गल वह है, जिसका संयोग और विभाग हो सके। इस परिभाषा का विश्लेषण करने पर ज्ञात होता है कि पुद्गल के दो प्रकार हैं-

  1. अणुरूप और
  2. स्कन्ध रूप।

    पुद्गल के विभाजन की अन्तिम एवं सूक्ष्मतम अवस्था जो पुन: अविभाज्य हो, अणु कहलाती है। अणु अविभाज्य होने के कारण निरवयव होता है। इसका आदि, अन्त एवं मध्य कुछ भी नहीं होता। यह सूक्ष्मतम, अविभाज्य, निरवयव, निरपेक्ष एवं नित्य सत्ता है। इसका न तो निर्माण होता है और न विनाश। यह स्वयं अमूर्त है, स्वयं अमूर्त होते हुए भी यह सभी मूर्त वस्तुओं का आधार है। जैन दर्शन के अनुसार अणु से पुद्गलों के स्कन्ध या संघात पुद्गलों का निर्माण होता है।

    जैन दर्शन की सृष्टिमीमांसा में विश्व का ढाँचा परमाणुओं से निर्मित माना जाता है। सभी भौतिक पदार्थ जो इन्द्रियों से जाने जाते हैं साथ ही अनुभव में आने वाली सभी वस्तुएँ जिनमें जीवों के शरीर, ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन भी शामिल हैं, अणुओं से निर्मित हैं। दो-या-दो से अधिक अणुओं के संयोग से स्कन्ध या संघात पुद्गल उत्पन्न होते हैं।

     अणुओं में आकर्षण शक्ति होती है, जिससे अणुओं में संयोग और वियोग होता है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु स्कन्ध पुद्गल हैं और सपूर्ण जगत् इन्हीं स्कन्धों से निर्मित है। प्रत्येक दृश्यमान पदार्थ एक स्कन्ध है और भौतिक जगत एक स्कन्धों का समूह है। भौतिक जगत में दिखाई देने वाले परिवर्तन अणुओं के संयोग और विभाग से उत्पन्न होते हैं। संक्षेप में अणु पुद्गल अदृश्य है, अनुमानजन्य है, किन्तु स्कन्ध पुद्गल दृष्टिगोचर है। अणु पुद्गल कारण-रूप है और स्कन्ध पुद्गल कार्यरूप। उल्लेखनीय है कि जैन दर्शन कर्म को भी परमाणविक मानता है। भारतीय दर्शन में अणुवादी कल्पना वैशेषिक एवं बौद्ध दर्शनों को प्राप्त होती है।

      जैन एवं वैशेषिक अणुवाद में कुछ समानताएँ हैं। दोनों विचारधाराओं के विचारक अणुओं को अविभाज्य, निरवयव, नित्य, अदृश्य तथा भौतिक जगत का उत्पादन कारण मानते हैं। दोनों दर्शनों के अणुवादी विचारों में मतभेद भी हैं; जैसे-जैन दार्शनिक अणुओं में केवल परिमाणात्मक भेद मानते हैं, किन्तु वैशेषिक दार्शनिक अणुओं में परिमाणात्मक और गुणात्मक भेद स्वीकार करते हैं। जैन दार्शनिक अणुओं के गुणों को नित्य नहीं मानते, किन्तु वैशेषिक इनके गुणों को भी नित्य मानते हैं। जैन एवं बौद्ध दर्शनों के अणुओं में मुख्य अन्तर यह है कि जैन दर्शन के अणु नित्य हैं, किन्तु बौद्ध दर्शन में अणुओं को अस्थायी और विनाशी माना जाता है। संक्षेप में पुद्गल विचार के जैन दर्शन में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है।

आकाश

    आकाश के कारण ही विस्तार सम्भव है। आकाश के कारण ही सभी आस्तिकाय द्रव्यों को कोई--कोई स्थान प्राप्त है। जीव पुद्गल धर्म व अधर्म आकाश में स्थित है। आकाश दृष्टिगोचर नहीं होता है। आकाश का अस्तित्व अनुमान के कारण सिद्ध होता है। द्रव्यों का कायिक विस्तार स्थान के कारण ही हो सकता है। आकाश के बिना आस्तिकाय द्रव्यों का विस्तार सर्वथा असम्भव है। द्रव्य आकाश को व्याप्त करता है।

जैन दार्शनिक के अनुसार आकाश के भेद

जैन दार्शनिक आकाश के दो भेद मानते हैं

    लोकाकाश यह वह है जो जीवों तथा अन्य द्रव्यों का आवास स्थान है। इसमें सभी भौतिक जीव समाहित हैं।

    अलोकाकाश यह लोकाकाश से परे है। यह अशरीरी, निष्क्रिय, शुद्ध और द्रव्य रहित है। यह शून्य है।

काल

    उमास्वामी के अनुसार द्रव्यों की वर्तना क्रिया, नवीनत्व या प्राचीनत्व काल के ही कारण सम्भव है। काल भी अदृश्य है। काल भी आकाश की भाँति अनुमान पर ही आधारित है। काल के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। वर्तना के लिए काल आवश्यक है, क्योंकि भिन्न-भिन्न क्षणों में वर्तमान रहना ही वर्तना है। अवस्थाओं में परिवर्तन भी काल के बगैर सम्भव नहीं है। बिना काल परिवर्तन के एक ही वस्तु में दो परस्पर विरोधी गुण नहीं आ सकते हैं। काल आस्तिकाय द्रव्य नहीं है, क्योंकि इसका खण्डन नहीं हो सकता। समस्त विश्व में एक ही काल युगपत् है।

धर्म अधर्म

    आकाश एवं काल की भाँति धर्म व अधर्म का अस्तित्व भी अनुमान पर आधारित है। धर्म व अधर्म के लिए क्रमश: गति और स्थिति प्रमाण हैं। धर्म व अधर्म के कारण ही वस्तुओं में गति सम्भव हो पाती है। ये दोनों ही नित्य, अमूर्त तथा गतिहीन हैं। दोनों ही निष्क्रिय एवं लोकाकाश से व्याप्त हैं, परन्तु वे गति तथा स्थिरता के उपादान कारण हैं। धर्म केवल गतिशील द्रव्यों की गति में ही सहायक है। अधर्म द्रव्यों के स्थिर रहने में सहायक होता है। धर्म व अधर्म दोनों में परस्पर विरोध होता है। दोनों ही गति और स्थिति के उदासीन कारण हैं। धर्म व अधर्म परोक्ष साधन माने जा सकते हैं।

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