जैन दर्शन में द्रव्य की अवधारणा
भारतीय दर्शन |
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जैन दर्शन में द्रव्य की अवधारणा |
जैन दर्शन में द्रव्य की अवधारणा
द्रव्य गुणों का आधार है। जैन दर्शन में द्रव्य को धर्मी भी कहते
हैं। धर्मी उसे कहते हैं जिसमें धर्म रहता है और दर्शनों की भाषा में धर्म गुण का पर्यायवाची
है। प्रत्येक द्रव्य सदसत् धर्मों का आधार होता है। उसमें कुछ ऐसे आवश्यक गुण या धर्म
होते हैं, जो उनकी सत्ता के लिए नितान्त आवश्यक होते हैं। इन्हीं के आधार पर
हम उन्हें तद्द रूप में जानते और पहचानते हैं।
जैन दर्शन में द्रव्य के दो भेद किए गए हैं-अस्तिकाय
और अनस्तिकाय। अस्तिकाय का अर्थ है-बहुप्रदेश व्यापी
और अनस्तिकाय का अर्थ है-एक प्रदेश व्यापी।
जैन दर्शन केवल काल को ही अनस्तिकाय या एक प्रदेश व्यापी मानता है, शेष सभी
को अस्तिकाय या बहुप्रदेश व्यापी।
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