सांख्य दर्शन में पुरुष की बहुलता (अनेकता) के लिए युक्तियाँ
भारतीय दर्शन |
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सांख्य दर्शन में पुरुष की बहुलता (अनेकता) के लिए युक्तियाँ |
सांख्य दर्शन में पुरुष की बहुलता (अनेकता) के लिए युक्तियाँ
सांख्य दर्शन पुरुष की अनेकता के प्रमाण प्रस्तुत करता है, जिससे यह अन्ततः पुरुष बहुत्ववाद या अनेकात्मवाद में परिणत हो जाता है। सांख्य दर्शन जब यह कहता है कि पुरुष अनेक हैं, तो इससे सोपाधिक पुरुष की अनेकता सिद्ध होती है। इस अनेकता को सिद्ध करने हेतु निम्नांकित उक्ति प्रस्तुत करता है
“जननमरणकरणानां प्रतिनियमात्युगपत प्रवृत्तेश्च।
पुरुष बहुत्व सिद्ध त्रैगुण्यविवर्ययाच्चैव।। "
इस उक्ति के निहितार्थ को निम्नांकित बिन्दुओं में समझा जा सकता
है-
जनन
विभिन्न पुरुषों का जनन अलग-अलग होता
है,
अत: 'पुरुष' की अनेकता
सिद्ध होती है।
मरण
विभिन्न पुरुषों की मृत्यु अलग-अलग होती
है,
अत: पुरुष
अनेक हैं, क्योंकि यदि पुरुष को अनेक न माना जाए, तो फिर
एक पुरुष की मृत्यु से बाकी समस्त मनुष्यों की मृत्यु को स्वीकार करना पड़ेगा, किन्तु
ऐसा नहीं होता।
करणानां
विभिन्न पुरुषों का व्यक्तित्व अलग-अलग होता
है। अत: पुरुष अनेक हैं; जैसे--कोई बहरा
है,
कोई
लंगड़ा है, कोई तेज बुद्धि वाला है आदि। इससे सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक हैं।।
अयुगपत प्रवृत्तेश्च
विभिन्न पुरुषों
की प्रवृत्तियाँ/ क्रियाएँ अलग-अलग होती हैं।
ये क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं-शारीरिक तथा मानसिक; जैसे-कोई रो
रहा है, हँस रहा है, गा रहा है, क्रोध
में है आदि। इससे सिद्ध होता है कि पुरुष अनेक हैं।
अत: स्पष्ट है कि सांख्य दर्शन में जगत् के विकास के लिए पुरुष का औचित्य
है,
क्योंकि
पुरुष ही विकास को निर्देशित करता है। यद्यपि समस्त विकास प्रकृति से होता है, परन्तु
उसके लिए पुरुष का सहयोग अनिवार्य है, इसलिए पुरुष अनिवार्य
सहयोगी की भूमिका में है, क्योंकि वह विकास
के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है।
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