सांख्य दर्शन में पुरुष के अस्तित्व सिद्धि हेतु तर्क या युक्तियाँ

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सांख्य दर्शन में पुरुष के अस्तित्व सिद्धि हेतु तर्क या युक्तियाँ

सांख्य दर्शन में पुरुष के अस्तित्व सिद्धि हेतु तर्क या युक्तियाँ

    सांख्य दर्शन में पुरुष की स्वतन्त्र सत्ता (अस्तित्व) सिद्ध करने के लिए निम्नांकित उक्ति दी गई है-

संघातपरार्थत्वात् त्रिगुणादि विपर्ययादधिष्ठनात्।

पुरुषोस्ति भोक्तृभावात कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च।

इस उक्ति के निहितार्थ को निम्नांकित बिन्दुओं में समझा जा सकता है-

संघातपरार्थत्वात् 

    सभी जड़ वस्तुएँ किसी अन्य के लिए हैं, स्वयं अपने लिए नहीं हैं और वह अन्य कोई चेतना ही हो सकती है। इस चेतना को ही सांख्य में पुरुष कहा गया है।

त्रिगुणादि विपर्ययात् 

    त्रिगुणात्मक प्रकृति के अस्तित्व से तर्कत: सिद्ध होता है कि कोई त्रिगुणातीत सत्ता भी है। उस त्रिगुणातीत सत्ता को ही पुरुष कहते हैं।

अधिष्ठानात् 

    हमारा समस्त लौकिक ज्ञान तथा सुख, दुःख, उदासीनता आदि का अनुभव ज्ञाता की ओर संकेत करता है। इस लौकिक ज्ञान और अनुभव का आधार कोई चेतन तत्त्व ही हो सकता है और वह चेतन तत्त्व 'पुरुष' है।

भोक्तृभावात 

    सभी जड़ वस्तुएँ भोग्य हैं, सुखानुभूति तथा दुःखानुभूति के लिए। अत: कोई भोक्ता अवश्य है जो चैतन्य है और वह चैतन्य ही पुरुष है।

कैवल्यार्थ प्रवृत्तेश्च 

    अनेक व्यक्तियों में इच्छा होती है इस संसार से मुक्त होने की, क्योंकि सांख्य के अनुसार जीवन का चरम लक्ष्य कैवल्य है। इसकी प्राप्ति की प्रवृत्ति या इच्छा चेतन तत्त्वों में ही हो सकती है और वह चेतन तत्त्व पुरुष है। अत: उपरोक्त तर्कों के आधार पर पुरुष के अस्तित्व की सिद्धि होती है।

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