सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद

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सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद

सांख्य दर्शन का सत्कार्यवाद

   सांख्य दर्शन एक द्वैतवादी दर्शन है, क्योंकि यहाँ प्रकृति तथा पुरुष को दो परम तत्त्वों के रूप में स्वीकार किया गया है। यह एक अनीश्वरवादी, किन्तु आस्तिक दर्शन है, क्योंकि यह ईश्वर की सत्ता को तो स्वीकार नहीं करता, किन्तु वेदों की प्रामाणिकता को स्वीकार करता है। सांख्य एक वस्तुवादी दर्शन है, क्योंकि यह ज्ञाता से स्वतन्त्र और पृथक् की सत्ता को स्वीकार करता है।

   ईश्वरकृष्ण ने अपनी सांख्यकारिका में सत्कार्यवाद की सिद्धि के लिए निम्नलिखित उक्ति दी है।

असदकरनादुपादान ग्रहणात् सर्वसम्भवाभावात्।

शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावाच्च सत् कार्यम्।

उपरोक्त उक्ति के निहितार्थ को निम्नांकित बिन्दुओं से समझा जा सकता है

     असदकरणात् यदि कार्य उत्पन्न होने से पूर्व कारण में विद्यमान नहीं हो, तो वह अपने कारण से उत्पन्न नहीं हो सकता; जैसेयदि तिल में तेल नहीं होता, तो उसे लाखों प्रयत्न करने पर भी नहीं निकाला जा सकता।

     उपादानग्रहणात् कार्य की प्राप्ति के लिए हम उपादान कारण (सामग्री) को ग्रहण करते हैं अर्थात् किसी निश्चित कार्य की प्राप्ति के लिए कोई निश्चित सामग्री ही ग्रहण करते हैं, क्योंकि उपादान कारण में कार्य पहले से ही अस्तित्ववान होता है।

     सर्वसम्भवाभावात् यदि कार्य उत्पत्ति से पूर्व अपने कारण में अस्तित्ववान नहीं होता, तो किसी भी कारण से कोई भी कार्य उत्पन्न हो जाता, किन्तु ऐसा नहीं होता, बल्कि कारण से वही कार्य उत्पन्न होता है जो उसमें अस्तित्ववान होता है।

     शक्तस्य शक्यकरणात् कारण में कार्य उत्पन्न करने की शक्ति होती है। यह शक्ति इसी रूप में होती है कि कार्य कारण में पहले से ही अस्तित्ववान है।

     कारणभावाच्च कारण और कार्य में कोई भेद नहीं है, क्योंकि कारण और कार्य दो भिन्न पदार्थ नहीं हैं, कारण ही विभाजित होकर कार्य के रूप में प्रकट हो जाता है।

   सांख्य दार्शनिकों ने उपरोक्त सत्कार्यवाद से सम्बन्धित अपने जो विचार प्रस्तुत किए हैं, उसके विरुद्ध असत्कार्यवादियों ने गम्भीर आपत्ति जताते हुए कहा कि सत्कार्यवाद के इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में अस्तित्ववान रहता है। इस सन्दर्भ में असत्कार्यवादियों की मान्यता है कि कार्य एक नवीन उत्पत्ति है, कार्य का कारण में कोई अस्तित्व नहीं रहता है। कार्य जब उत्पन्न होता है, तभी अस्तित्ववान होता है। उत्पत्ति से पूर्व कार्य का कहीं कोई अस्तित्व नहीं होता है।

   अपने इस मत को सिद्ध करने के लिए असत्कार्यवादी दार्शनिक, जिनमें नैयायिक मुख्य हैं, निम्न तर्क देते हैं-

     यदि कार्य, कारण में ही होता है तो उत्पत्ति का क्या अर्थ है? जब वह पहले से ही था, तो क्यों कहते हैं कि उत्पन्न हो गया।

     यदि कार्य उत्पन्न होने से पहले ही अपने कारण में अस्तित्ववान था, तो फिर निमित्त कारण की क्या आवश्यकता है?

     कारण और कार्य में भेद है, ये पृथक्-पृथक् हैं। यदि भेद नहीं है, तो सांख्य दार्शनिक यह क्यों कहते हैं कि कारण से कार्य उत्पन्न हो गया, यह कहें कि कार्य-से-कार्य उत्पन्न हो गया।

   अन्ततः कहा जा सकता है कि कार्य-कारण के सम्बन्ध में उपरोक्त मत जो सांख्य दार्शनिकों और नैयायिकों द्वारा प्रस्तुत किया गया है, इनमें से किसी को भी पूर्णत: सत्य नहीं माना जा सकता। तो यह कहा जा सकता है कि कार्य अपनी उत्पत्ति के पूर्व कारण में विद्यमान था और ही कहा जा सकता है कि कार्य पूर्णतः एक नवीन उत्पत्ति है। इस सन्दर्भ में महात्मा बुद्ध के विचार को प्रस्तुत करते हुए बस इतना ही कहा जा सकता है किकिसी कार्य को तब तक उत्पन्न नहीं किया जा सकता, जब तक कुछ अनुकूल और बाह्य सहयोगी घटक हों।अन्य शब्दों में, कार्य को अपनी उत्पत्ति के लिए एक या अधिक कारणों की अपेक्षा होती है, इनके अभाव में कोई कार्य उत्पन्न नहीं हो सकता।

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