सांख्य दर्शन में प्रकृति विचार

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सांख्य दर्शन में प्रकृति विचार 

सांख्य दर्शन में प्रकृति विचार 

    सांख्य दर्शन में प्रकृति का शाब्दिक अर्थ है सृष्टि से पूर्व अर्थात् प्रकृति वस्तुतः जगत की समस्त वस्तुओं से पूर्व है। पुरुष के अतिरिक्त संसार की समस्त वस्तुएँ इसी प्रकृति से उत्पन्न हुई हैं। स्वरूपत: प्रकृति निरवयव, शाश्वत, अदृश्य, अचेतन, किन्तु सक्रिय है। प्रकृति की तीन विधाएँ हैं, जिन्हें गुण कहा जाता है। ये गुण तीन प्रकार के हैं तथा प्रत्येक गुण के तीन उपगुण हैं; यथा-सत् गुण सुखात्मक, हल्का, ज्ञानात्मक; रज् गुण दुःखात्मक, गति, उत्तेजक; तम् गुण भारी, अवरोध तथा अज्ञान। स्पष्ट है कि प्रकृति त्रिगुणात्मक है, अत: प्रकृति से उत्पन्न होने के कारण जगत की समस्त वस्तुएँ त्रिगुणात्मक हैं।

    सांख्य दर्शन में प्रकृति को प्रकृति के अतिरिक्त विभिन्न नामों से सम्बोधित किया गया है; जैसे-सांख्य दर्शन में प्रकृति को 'प्रधान' कहा गया है, क्योंकि वह विश्व का प्रथम कारण है। प्रकृति को 'जड़' कहा गया है, क्योंकि वह मूलतः भौतिक पदार्थ है। प्रकृति को 'माया' कहा गया है, क्योंकि वह जगत् को सीमित करती है। प्रकृति को 'अविद्या' कहा गया है, क्योंकि वह ज्ञान की विरोधात्मक है आदि।

    सांख्य दर्शन द्वैतवादी दर्शन है, क्योंकि यहाँ पुरुष एवं प्रकृति को दो परम तत्त्वों के रूप में स्वीकार किया गया है। यहाँ चेतना को पुरुष कहा गया है तथा इसे स्वरूपतः निष्क्रिय माना गया है तथा प्रकृति के जड़ात्मक होने के बाद भी सक्रिय माना गया है और बताया गया है कि यह समस्त जगत प्रकृति का ही कार्य व्यापार है। प्रकृति को 'बीज रूपा' कहा गया है, क्योंकि सांख्य दार्शनिकों के अनुसार प्रकृति समस्त जगत् को अपने में अव्यक्त रूप में अन्तर्निहित किए रहती है।

    सांख्य दार्शनिकों के अनुसार जब पुरुष का प्रकृति से सम्पर्क होता है, तो प्रकृति के भीतर जो जगत् अव्यक्त रूप में विद्यमान रहता है, वह क्रमश: व्यक्त रूप में प्रकट होने लगता है, इसे ही सृष्टि का विकास कहते हैं। यद्यपि समस्त विकास प्रकृति से होता है, परन्तु उसके लिए पुरुष का सहयोग अनिवार्य है। अत: पुरुष अनिवार्य सहयोगी की भूमिका में है, क्योंकि वह विकास के लिए उत्प्रेरक का कार्य करता है। सांख्य दर्शन में चेतना को 'पुरुष' कहा गया है। जब तक प्रकृति तथा पुरुष में सम्पर्क नहीं होता, तब तक प्रलय रहती है। इस समय प्रकृति में स्वरूप परिवर्तन होते हैं अर्थात् गुण आपस में नहीं मिलते; जैसे-सत् सत में, रज रज में तथा तम् तम में ही परिवर्तित होता है। इस अवस्था को ही साम्यावस्था कहते हैं। प्रलय का अन्त प्रकृति तथा पुरुष के सम्पर्क से हो जाता है। सम्पर्क से प्रकृति में उथल-पुथल होती है और साम्यावस्था भंग हो जाती है तथा गुण आपस में मिलने लगते हैं अर्थात् गुण क्षोभ होता है। प्रकृति की इस अवस्था को विषमावस्था तथा होने वाले परिवर्तनों को 'विरूप परिणाम' कहते हैं। इस अवस्था में वस्तुएँ उत्पन्न होना प्रारम्भ हो जाती हैं अर्थात् सृष्टि होने लगती है। इस क्रम में सर्वप्रथम महत् आविर्भूत होता है। महत् से आविर्भूत होता है अहंकार तथा अहंकार से आविर्भूत होता है एकादश इन्द्रियाँ अर्थात् मन, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ तथा पाँच कर्मेन्द्रियाँ। इसके साथ ही अहंकार से तन्मात्र अर्थात् सूक्ष्म भौतिक तत्त्व-शब्द, स्पर्श, रूप, स्वाद तथा गन्ध आविर्भत होते हैं। तन्मात्र से आविर्भूत होते हैं पंचमहाभूत। इस क्रम में सर्वप्रथम आकाश, वायु, अग्नि, जल तथा पृथ्वी आविर्भूत होते हैं। चूंकि प्रकृति से उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थ त्रिगुणात्मक हैं, इसलिए बुद्धि भी त्रिगुणात्मक होती है। बुद्धि में अन्य गुणों की अपेक्षा सत् की मात्रा अधिक होती है। इस कारण बुद्धि में पारदर्शिता होती है, जिससे चैतन्य उसमें प्रतिबिम्बित होने लगता है। उदाहरणार्थ-जिस प्रकार दीपक से काँच की दीवार एक तरह चमकने लगती है, ठीक उसी प्रकार सत् की अधिकता के कारण चैतन्य बुद्धि में प्रतिबिम्बित होने लगता है। बुद्धि में चैतन्य के प्रतिबिम्बित होते ही सोपाधिक पुरुष को कैवल्य की प्राप्ति हो जाती है अर्थात् वह जान जाता है कि वह शरीर, मन, बुद्धि, अहंकार आदि नहीं, बल्कि चैतन्य स्वरूप तथा पूर्ण ज्ञानस्वरूप है, साथ ही उसे यह भी ज्ञान हो जाता है कि वह अकर्ता, अभोक्ता तथा निर्लिप्त दृष्टा है।

   सांख्य दर्शन में सृष्टि को प्रयोजनपूर्ण माना गया है। यहाँ सृष्टि के दो प्रयोजन माने गए हैं

  1. सोपाधिक पुरुष प्रकृति का अनुभव करें।
  2. सोपाधिक पुरुष कैवल्य स्वरूप की अनुभूति करें।

किन्तु सांख्य दार्शनिकों द्वारा विकासवाद की उपरोक्त जो व्याख्या की गई है, वह युक्तिपूर्ण नहीं है। इसके विपरीत शंकर ने कुछ गम्भीर आपत्तियाँ की हैं, जो निम्न हैं-

    यदि सृष्टि पुरुष व प्रकृति के संयोग पर निर्भर करती है, यदि दोनों संयुक्त हैं, तब सृष्टि शाश्वत हो जाती है और यदि दोनों पृथक् हैं, तो सृष्टि असम्भव है, क्योंकि पुरुष के निष्क्रिय होने के कारण वह प्रकृति से संयुक्त नहीं हो सकता।

    पुरुष द्वारा बुद्धि में प्रतिबिम्ब देखा जाना सम्भव नहीं, क्योंकि बुद्धि का अस्तित्व सृष्टि से पूर्व सम्भव नहीं है।

प्रकृति के अस्तित्व की सिद्धि हेतु युक्तियाँ

    'प्रकृति' का शाब्दिक अर्थ है 'सृष्टि से पूर्व' अर्थात् प्रकृति वस्तुतः जगत् की समस्त वस्तुओं से पहले है। पुरुष के अतिरिक्त संसार की समस्त वस्तुएँ इसी प्रकृति से उत्पन्न हुई हैं। प्रकृति जड़ात्मक, अचेतन, किन्तु सक्रिय है। प्रकृति की तीन विधाएँ हैं, जिन्हें गुण कहते हैं। ये गुण तीन प्रकार के हैंसत् गुण, रज् गुण, तम् गुण। इन तीनों के गुणों के तीन उपगुण हैं-सत् गुण के तीन उपगुण सुख, हल्का तथा ज्ञान; रज् गुण के तीन उपगुण दुःख, गति तथा उत्तेजक तथा तम् गुण के तीन उपगुण भारी, अवरोधक तथा अज्ञान हैं। अतः स्पष्ट है कि प्रकृति त्रिगुणात्मक है। चूंकि प्रकृति त्रिगुणात्मक है, अत: इससे उत्पन्न होने वाली संसार की समस्त वस्तुएँ त्रिगुणात्मक हैं। सत् गुण, तम् गुण एक-दूसरे के विपरीत होते हैं। तम् गुण प्रकाश का आवरण करता है। रज् गुण चंचलता का सूचक, उत्तेजक, लाल एवं अस्थिरता का प्रतीक है। इसी गुण के कारण इन्द्रियाँ विषयोन्मुख होती हैं। सांख्य दर्शन में प्रकृति की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करते हुए इसकी सिद्धि हेतु सांख्य दार्शनिकों ने कुछ तर्क दिए हैं। ये तर्क सत्कार्यवाद तथा अनुमान पर आधारित हैं।

    सत्कार्यवाद के अनुसार विश्व की स्थूल एवं सूक्ष्म वस्तुओं का मूल कारण वही हो सकता है, जो स्थूल पदार्थो; जैसे-जल, शरीर, मिट्टी आदि को उत्पन्न करने के साथ-साथ सूक्ष्म पदार्थों को; जैसेमन, बुद्धि, अहंकार आदि को भी उत्पन्न करने में सक्षम हो। सांख्य मतानुसार यह सूक्ष्म-अति-सूक्ष्म जड़ पदार्थ सामर्थ्यवान प्रकृति ही हो सकती है। यदि प्रकृति को मूल कारण के रूप में स्वीकार न किया जाए, तो अनावस्था दोष पैदा हो जाएगा। सूक्ष्म एवं अतीन्द्रिय होने के कारण प्रकृति का प्रत्यक्ष नहीं होता। प्रकृति के कार्यों के आधार पर ही उसकी सत्ता का अनुमान किया जाता है।

    ईश्वरकृष्ण ने अपनी सांख्यकारिका में प्रकृति के अस्तित्व को सिद्ध करने हेतु निम्न उक्ति दी है-

"भेदानां परिमाणात् समन्वयात् शक्तित: प्रवृत्तेश्च।

कारणकार्यविभागादविभागद् वैश्व रूपस्य। "

इस कारिका में प्रकृति की सत्ता की सिद्धि हेतु निम्नांकित पंक्तियाँ प्राप्त होती हैं-

भेदानां परिमाणात् अर्थात् जगत् में जितने भी विषय हैं, वे सब सीमित परिणाम के हैं तथा एक-दूसरे पर आश्रित हैं। अत: वे अपना कारण स्वयं नहीं हो सकते, उनका कारण कोई असीम तत्त्व ही हो सकता है और वह तत्त्व ही प्रकृति है।

समन्वयात् अर्थात् हमारे अनुभव के विषय भिन्न-भिन्न हैं, फिर भी इनमें कुछ सामान्य विशेषताएँ हैं; जैसे-सभी विषय कभी हमें सुख, कभी दुःख तथा उदासीनता प्रदान करते हैं। अत: इन विषयों का कोई सामान्य कारण अवश्य है। इस कारण को ही प्रकृति कहा गया है।

शक्तितः प्रवृत्तेश्य अर्थात् हमारे अनुभव के जितने भी विषय हैं, उनमें प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति है। इन विषयों में प्रभाव उत्पन्न करने की शक्ति जहाँ से आई है, वह स्रोत ही प्रकृति है।

कारण-कार्य विभागाद् अर्थात् जितने भी अनुभव के पदार्थ हैं, वे सभी किसी के परिणाम हैं अर्थात् इनका कोई--कोई कारण अवश्य है। इन कारणों का भी कारण है तथा जो सभी का अन्तिम कारण तथा स्वयं-भू कारण है, वही प्रकृति है।

अविभागद् वैश्व रूपस्य अर्थात् प्रलयावस्था में सभी वस्तुएँ कहीं--कहीं जाकर लय हो जाती हैं अर्थात् जहाँ सबका लय हो जाता है, वही प्रकृति है।

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