वैशेषिक दर्शन में पदार्थ की अवधारणा तथा इसके प्रकार

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वैशेषिक दर्शन में पदार्थ की अवधारणा तथा इसके प्रकार

वैशेषिक दर्शन में पदार्थ की अवधारणा तथा इसके प्रकार

    अन्य भारतीय दर्शनों की भाँति वैशेषिक दर्शन में भी 'मोक्ष' को जीवन का परम आध्यात्मिक लक्ष्य माना गया है तथा इस मोक्ष की प्राप्ति हेतु तत्त्वज्ञान को आवश्यक माना गया है। अतः तत्त्व के सम्यक् ज्ञान के लिए पदार्थ की विवेचना प्रासंगिक है। पदार्थ क्या है? शाब्दिक दृष्टिकोण से पदार्थ का अर्थ है, पद से सांकेतिक वस्तु अर्थात् पद का अर्थ ही पदार्थ है। शिवादित्य के 'सप्त पदार्थी' के अनुसार यथार्थ ज्ञान को प्राप्त करने के जो विषय हैं, वही पदार्थ हैं।

    वैशेषिक सूत्र के भाष्यकार प्रशस्तपाद के अनुसार, 'पदार्थ वह है जो सत् है, ज्ञेय है तथा अभिधेय है'। तात्पर्य-पदार्थ वह है, जिसका अस्तित्व है, जिसका ज्ञान हम प्राप्त कर सकते हैं तथा जिसका कोई नाम है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार, जिसका भी अस्तित्व है या जो भी सत् है वह सात पदार्थों में से कोई एक पदार्थ है। तात्पर्य-समस्त विषय इन्हीं सात पदार्थों में ही समाहित हैं, ये सात पदार्थ हैं-

  1. द्रव्य,
  2. गुण,
  3. कर्म,
  4. सामान्य,
  5. विशेष,
  6. समवाय तथा
  7. अभाव।

1- द्रव्य

   द्रव्य, गुण तथा क्रिया का आधार तथा समस्त सावयव वस्तुओं का उपादान कारण है। वैशेषिकों के अनुसार द्रव्य 9 प्रकार के हैं-

    पंचमहाभूत, (पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश)

    दिक्-काल,

    मन और

    आत्मा।

   उल्लेखनीय है कि पंचमहाभूतों-पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु तथा आकाश में से आकाश के परमाणु नहीं होते, शेष चार भूतों के परमाणु होते हैं तथा ये परमाणु नित्य हैं, किन्तु इनके मिलने से जो कुछ भी बनता है वह अनित्य है अर्थात् उत्पन्न और नष्ट होता है। संसार की समस्त वस्तुएँ इन्हीं भूतों के संयोग से उत्पन्न हुई हैं तथा अनित्य हैं। वस्तु के नष्ट होने पर भी परमाणु नष्ट नहीं होते, क्योंकि परमाणु नित्य हैं। वैशेषिकों के अनुसार, द्रव्य पर ही 'गुण' तथा कर्म ये दोनों पदार्थ निर्भर करते हैं।

वैशेषिक दर्शन में पदार्थ एवं द्रव्य

पदार्थ                      

द्रव्य

द्रव्य                       

पृथ्वी

गुण                        

जल

कर्म                        

तेज

सामान्य                   

वायु

विशेष                     

आकाश

समवाय                    

काल

अभाव                      

दिक

 

आत्मा

 

मन

2- गुण

    वैशेषिक के अनुसार पंचमहाभूतों के पाँच गुण-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द तथा आत्मा के छ: गुण-इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख तथा ज्ञान आदि तथा अन्य कुछ गुणों को मिलाकर कुल 24 गुणों का उल्लेख किया गया है।

वैशेषिक दर्शन में गुणों की संख्या

  1. रूप
  2. रस
  3. गन्ध
  4. स्पर्श
  5. संख्या
  6. परिणाम
  7. पृथकत्व
  8. संयोग
  9. वियोग
  10. दूरी
  11. समीपता
  12. बुद्धि
  13. सुख
  14. दुःख
  15. इच्छा
  16. द्वेष
  17. प्रयत्न
  18. गुरुत्व
  19. द्रवत्व
  20. स्नेह
  21. संस्कार
  22. धर्म
  23. अधर्म
  24. शब्द

3- कर्म

   कर्म या क्रिया का आधार द्रव्य है। कर्म मूर्त द्रव्यों का गतिशील व्यापार है। कर्म का निवास सर्वव्यापी द्रव्यों (जैसे-आकाश) में नहीं होता, क्योंकि वे स्थान परिवर्तन से शून्य हैं। द्रव्य की दो विशेषताएँ होती हैं- सक्रियता तथा निष्क्रियता। कर्म द्रव्य का सक्रिय रूप तथा गुण द्रव्य का निष्क्रिय रूप है।

कर्म के प्रकार

कर्म या क्रिया पाँच प्रकार की होती हैं-

  1. उत्प्रेक्षण-ऊपर जाना
  2. अवक्षेपण-नीचे जाना
  3. संकुचन
  4. प्रसारण-विस्तार
  5. गमन

4- सामान्य

    सामान्य वह पदार्थ है जिसके कारण एक ही प्रकार के विभिन्न व्यक्तियों या वस्तुओं को एक जाति के अन्दर रखा जाता है। एक ही वर्ग के व्यक्तियों या वस्तुओं का एक सामान्य होता है, कभी भी अकेली वस्तु का सामान्य नहीं हो सकता; जैसे-आकाश। सामान्य द्रव्य, गुण और कर्म में रहता है विशेष, समवाय तथा अभाव का सामान्य नहीं होता।

    सामान्य का ज्ञान सामान्य लक्षण अलौकिक प्रत्यक्ष द्वारा प्राप्त होता है। यद्यपि सामान्य वास्तविक है तथापि यह अन्य व्यक्तियों और वस्तुओं के समान देश और काल में स्थित नहीं है। यह सत्ताभाव मात्र है अस्तित्व नहीं। व्यापकता की दृष्टि से सामान्य की तीन श्रेणियाँ हैं-

  1. पर सामान्य,
  2. अपर सामान्य तथा
  3. पर-अपर सामान्य।

पर सामान्य संसार की प्रत्येक वस्तु में सर्वाधिक व्यापक सामान्य है। इसके अन्तर्गत अस्तित्व या सत् को सम्मिलित किया जाता है, क्योंकि संसार की प्रत्येक वस्तु सत् है अत: सत् एक उच्चतर सामान्य (सर्वाधिक व्यापक) है।

अपर सामान्य को निम्नतर सामान्य भी कहते हैं, इसके अन्तर्गत उन सामान्यों को सम्मिलित किया जाता है, जिनकी व्यापकता सबसे कम है; जैसे-गोत्व, मनुष्यत्व आदि। 

पर-अपर सामान्य वह सामान्य है, जिसकी व्यापकता पर सामान्य से कम तथा अपर सामान्य से ज्यादा होती है।

सामान्य के प्रकार

सामान्य के तीन प्रकार हैं

  1. पर जो सर्वाधिक व्यापक है; जैसे-सत्ता
  2. अपर जो सबसे कम व्यापक है; जैसे-घटत्व
  3. पर-अपर जो पर एवं अपर के बीच व्यापकता रखता है; जैसे-द्रव्यत्व

5- विशेष

    एक ही प्रकार के दो परमाणुओं का विभेदक 'विशेष' कहलाता है; जैसे-पृथ्वी के दो परमाणु जिनका गुण तो गन्ध ही है किन्तु दोनों एक-दूसरे से पृथक् हैं, क्योंकि दोनों का अपना-अपना विशेष है। अत: विशेष वह पदार्थ है जो एक ही प्रकार के दो नित्य द्रव्यों का विभेदक है।

6- समवाय

    यह नित्य सम्बन्ध सूचक पदार्थ है। यह नित्य सम्बन्ध दो ऐसे पदार्थों में पाया जाता है जो सदैव साथ साथ रहते हैं। इनमें से एक पदार्थ ऐसा होता है जो दूसरे पर आश्रित होकर रहता है। ये दोनों पदार्थ एक-दूसरे से अपृथक् होते हैं; जैसे-द्रव्य और गुण, भाग और पूर्ण, क्रियावान और क्रिया, विशेष और सामान्य, नित्य द्रव्य और विशेष आदि। वैशेषिकों ने समवाय को एक भाव पदार्थ के रूप में स्वीकार किया है तथा कहा है कि जिन दो पदार्थों के बीच समवाय सम्बन्ध पाया जाता है यदि उन्हें पृथक् किया जाए तो उनमें से एक का विनाश अपरिहार्य है।

7- अभाव

    न्याय-वैशेषिक दर्शन में अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है। इनके अनुसार किसी स्थान विशेष, काल विशेष में किसी वस्तु का उपस्थित नहीं होना 'अभाव' है। यहाँ अभाव को एक पदार्थ के रूप में स्वीकार किया गया है, क्योंकि अभाव का शाब्दिक अर्थ 'नहीं होना। किसी वस्तु के अभाव को सूचित करता है, इसे ज्ञान का विषय बनाया जा सकता है, इसे नाम दिया जा सकता है। यदि अभाव को स्वीकार न किया जाए तो असत्कार्यवाद तथा मोक्ष की संगत व्याख्या सम्भव नहीं है। वैशेषिक में अभाव के दो प्रकार बताए गए हैं- अन्योन्याभाव तथा संसर्गाभाव को पुन: तीन भागों में बाँटा गया है

  1. प्राग् भाव,
  2. प्रध्वंसाभाव तथा
  3. अत्यन्ताभाव।

    न्याय वैशेषिक ने अपना उपरोक्त जो पदार्थ विचार प्रस्तुत किया है उसकी कई आधारों पर आलोचना होती है; जैसे-शंकर का विचार है कि वैशेषिक के बहुत्ववाद से सांख्य का द्वैतवाद बेहतर है, क्योंकि वह सांख्य जगत का विभाजन जड़ व चेतन नामक दो मौलिक कोटियों में करता है, जबकि वैशेषिक को सात कोटियों की आवश्यकता पड़ती है। यदि जगत का विभाजन करना ही है तो सात ही कोटियाँ क्यों? इससे कम या अधिक क्यों नहीं? जगत का विभाजन अनन्त कोटियों में भी हो सकता है और यदि मौलिक कोटियों को भी स्वीकार करना है तो चित् व अचित् की दो कोटियाँ ही पर्याप्त हैं।

    वैशेषिक की द्रव्य की अवधारणा अन्तर्विरोधग्रस्त है। सापेक्ष द्रव्य आत्म व्याघाती है। द्रव्य अनिवार्यत: निरपेक्ष ही हो सकता है, किन्तु वैशेषिक का द्रव्य गुण से सदैव संयुक्त रहता है। यह गुण से स्वतन्त्र द्रव्य की स्थापना नहीं कर पाता है। वैशेषिक की सामान्य अवधारणा भी तर्कपूर्ण नहीं है, क्योंकि वस्तुवादी होने के कारण वह सामान्य को वस्तुनिष्ठ घोषित करता है, जबकि वास्तविकता यह है कि सामान्य का वस्तुनिष्ठ अस्तित्व सम्भव नहीं, क्योंकि सामान्य आकारिक (मानसिक) होता है। 'विशेष' वैशेषिक की कल्पना मात्र है, विशेष कोई तात्त्विक तत्त्व नहीं है। यह दो तादात्म्यक वस्तुओं में उनकी पृथक्ता के कारण होता है न कि विशेष के कारण। समवाय विचार में अनावस्था दोष है, क्योंकि दो पदार्थों को जोड़ने के लिए एक तीसरे पदार्थ के रूप में समवाय पदार्थ को मानना आवश्यक है। चूंकि समवाय एक नित्य पदार्थ है, अत: यह अकेला नहीं रह सकता। इसके साथ एक विशेष का होना अनिवार्य है। पुनः समवाय और विशेष को जोड़ने के लिए एक समवाय पदार्थ की आवश्यकता पड़ेगी और इस क्रम में अनावस्था दोष उत्पन्न हो जाता है। रामानुज के अनुसार, समवाय एक आन्तरिक नहीं, बल्कि बाह्य सम्बन्ध है, क्योंकि समवाय से जुड़ी वस्तुएँ एक-दूसरे से पृथक् होती हैं।

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